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भारत का योग दर्शन

भारत का योग दर्शन

संकलन अश्विनीकुमार तिवारी 

हमें इस बात पर आत्माभिमान होना चाहिए कि भारत के पास योग जैसे विषय पर 100 से अधिक संस्कृत ग्रन्थ हैं! 
कुछ अलग और कुछ ग्रंथों में आत्मसात्!
1 दर्शन और 100 दृष्टियां !
लगभग 2000 साल की अवधि!
योग वेद!

इस विषय का इतना महत्त्व रहा है... आपने कौन कौन सा नया ग्रंथ देखा है?

योग दिवस : प्रेरक दिवस
*
देश में गांव-गांव योग की अलख जगाने में नाथ योगियों की बड़ी भूमिका रही। हठयोग से ही सही, संसार को असार सिद्ध कर वे स्वयं सिद्ध, वचन सिद्ध हुए और नगर, पुर, गांव गांव सिद्ध आसन, सिद्ध पीठ स्थापित हुए। हजारों भारतीय बस्तियां इसके प्रमाण सहेजे हुए हैं। कंधार तक अनेक नगर, किले- कोट, गढ़-गढ़ियां, मठ- मठियां, मन्दिर- मालिए, धूणियां और धूणे नाथ योगियों के थरपे हैं और सब छोर साधक तपे हैं...।
( गांव-गांव गोरख : नगर-नगर नाथ)
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू

योग : #ऋषियों की धरोहर

योग सूत्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है - 

‘ योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’  यो.सू.1/2 

अर्थात् - चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही #योग है। चित्त का तात्पर्य, अन्त:करण से है। 

महर्षि याज्ञवल्क्य ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है- 

"संयोग योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनो।"

अर्थात जीवात्मा व परमात्मा के संयोग की अवस्था का नाम ही योग है। 

महर्षि व्यास के अनुसार

"योग: समाधि:"
अर्थात्- योग नाम समाधि का है , जिसका भाव है कि जीवात्मा सत चित आनन्द परमेश्वर का #साक्षात्कार करे , यही योग है, 

मनुस्मृति के अनुसार

"ध्यानं योगेन सम्यश्यदगतिस्यान्तरात्मन:"16, 731

अर्थात्- ध्यान योग से भी जीवात्मा को जाना जा सकता है, अत: ध्यान भी योग पारायण होना चाहिये,,

#सांख्य में कहा है,,

"पुरुष प्रकृत्योतियोगेपि योग इत्यभिधीयते"

अर्थात्- प्रकृति पुरुष का वियोग स्थापित कर , अर्थात् दोनों का वियोग करके, पुरुष के स्वरुप में स्थित हो जाना ही योग है,,

कैवल्योपनिषद मे कहा है,,

"श्रद्धा भक्तियोगावदेहि "

अर्थात्- श्रद्धा, भक्ति और ध्यान के द्वारा #आत्मा को जानना ही योग है,,

वैशेषिक दर्शन में योग को परिभाषित किया है--

"तदनारम्भ आत्मस्ये मनसि शरीरस्य दुखाभाव: संयोग:" वैशेषिक सूत्र 6/2/16

अर्थात्- मन और आत्मा में स्थिर होने पर उसके ( मन के कार्य) का अनारम्भ योग है,,

#कठोपनिषद् में योग के विषय में कहा गया है- 

‘यदा पंचावतिष्ठन्ते  ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिष्च न विचेश्टति तामाहु: परमां गतिम्।। 

तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभावाप्ययौ।।
कठो.2/3/10-11  

अर्थात् जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियां मन के साथ स्थिर हो जाती है और मन निश्चल बुद्धि के साथ आ मिलता है, उस अवस्था को ‘परमगति’ कहते है।,,,

इन्द्रियों की स्थिर धारणा ही योग है। जिसकी #इन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है, अर्थात् प्रमाद हीन हो जाती है.. 

उसमें शुभ संस्कारो की उत्पत्ति और अशुभ संस्कारो का नाश होने लगता है। यही अवस्था योग है।

#मैत्रायण्युपनिषद् में कहा गया है - 

एकत्वं प्राणमनसोरिन्द्रियाणां तथैव च.। 
सर्वभाव परित्यागो योग इत्यभिधीयते।। 6/25  

अर्थात प्राण, मन व इन्द्रियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य  विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और #मन आत्मा में लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है

योगशिखोपनिषद् में कहा गया है

योSपानप्राणयोरैक्यं स्वरजोरेतसोस्तथा।सूर्याचन्द्रमसोर्योगो जीवात्मपरमात्मनो:। एवंतु़द्वन्द्व जालस्य संयोगो योग उच्यते।। 1/68-69  

अर्थात् अपान और प्राण की एकता कर लेना, स्वरज रूपी महाशक्ति कुण्डलिनी को स्वरेत रूपी आत्मतत्त्व के साथ संयुक्त करना,,,

सूर्य अर्थात् पिंगला और चन्द्र अर्थात् इड़ा स्वर का संयोग करना तथा परमात्मा से #जीवात्मा का मिलन योग है।

योगेश्वर #श्रीकृष्ण ने कुछ इस प्रकार से परिभाषित किया है।

योगस्थ: कुरू कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय:।सिद्ध्यसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। 2/48

अर्थात् - हे धनंजय! तू आसक्ति त्यागकर समत्व भाव से कार्य कर। सिद्धि और असिद्धि में समता-बुद्धि से कार्य करना ही योग हैं।

सुख-दु:ख, जय -पराजय, सर्दी गर्मी आदि #द्वन्द्वों में एकरस रहना योग है। 

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृतें।
तस्माद योगाय युज्यस्व योग: कर्मसुकौशलम्।। 2/50 

अर्थात् कर्मो में #कुशलता ही योग है। कर्म इस कुशलता से किया जाए कि कर्म बन्धन न कर सके। 

अर्थात् अनासक्त भाव से कर्म करना ही योग है। 

योगेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र जी के समक्ष कैसी भी परिस्थिति हों, वे सदा #अनासक्त होकर मुस्कुराते रहते थे,,
क्योंकि वे महान योगी थे,,

वे स्वयं प्रतिदिन योगाभ्यास करते थे, चाहे वो #अष्टांगयोग का अभ्यास हो या शारीरिक योगाभ्यास ,,,

महाभारत में #श्रीकृष्ण जी के विषय में प्राप्त होता है-

अत्रतीर्य रथात् तूर्णं कृत्वा शौचं यथाविधि।
रथमोचनमादिश्य सन्ध्यामुपविवेश ह।।(महा० उद्योग०८४/२१)

जब #सूर्यास्त होने लगा तब श्रीकृष्ण शीघ्र ही रथ से उतरे और घोडों को रथ से खोलने की आज्ञा देकर और विधिपूर्वक शौच-स्नान करके सन्ध्योपासना करने लगे।

ब्रह्ममुहूर्त उत्थाय वाय्रुपस्प्रश्य माधव:।
दध्यो प्रसन्नकरण आत्मनं तमस: परम् ।।(भा० पु० ९०.७०.४)

श्रीकृष्ण जी ब्रह्ममुहूर्त में उठकर , पवित्र जल से हाथ मुंह धोकर, अत्यन्त प्रसन्न हो, हृदय में प्रकृति से परे ज्योतिस्वरुप परब्रह्म का #ध्यान करने लगे।

#अष्टांगयोगाभ्यास में यम नियम ध्यान आदि का समावेश होता है,,

मानसिक विकारों के दूर करने के लिये लिये अष्टांगयोग आदि के अभ्यास के साथ शारीरिक योगाभ्यास को भी अपनाएं ,,

और जीवन को स्वस्थ्य, निरोग और उन्नत बनाएँ,,

तो आइये अपनाते हैं, हमारे ऋषियों की प्राचीन विधा #योग को,, 
और मनाते हैं #योगदिवस,,
✍"आचार्य लोकेन्द्र"

भारत का योग दर्शन

दर्शनशास्त्र में योगदर्शन का विशेष महत्व है। इसीलिए भारतीय या वैदेशिक अथवा आस्तिक या नास्तिक समस्त दार्शनिक संप्रदाय किसी न किसी रूप में योग साधना करते हैं। इसका कारण है कि योगसाधना समस्त दर्शनों और विशेषकर सांख्यदर्शन का व्यवहारिक पक्ष है। योग दर्शन और साधना उतनी ही पुरानी है जितनी पुरानी मानव सृष्टि। भारतीय कालगणना के अनुसार वर्तमान मानव सृष्टि का आरंभ एक अरब, सतानवे करोड़, उन्तीस लाख, सैतालीस हजार एक सौ एक ईसा पूर्व हुआ। आधुनिक भौतिकी, खगोल, भूगोल, नृवैज्ञानिक भी मानते हैं कि पृथ्वी पर जीव की उत्पत्ति दो से तीन अरब वर्ष पूर्व हुई। भारतीय वांङमय के अनुसार सृष्टि के आरंभ में सर्वप्रथम योगसिद्ध ॠषियों को गहन ध्यानावस्था में वैदिक ॠचाओं के दर्शन हुए। अतः योग का इतिहास सृष्टि के आरंभकाल से वैदिक ॠषियों से प्रारंभ होता है। वेद और वेदांग साहित्य में योग के अनेकों संदर्भ मिलते हैं। वेदांत अर्थात् वेदों के अंतिम भाग ब्राह्मण, उपनिषद, आरण्यक तो साधना को लक्ष्य क रके ही लिखे गए ग्रंथ हैं। कठोपनिषद, श्वेताश्वर और मैत्रायणी उपनिषदों तथा छह वैदिक शास्त्रों में योग और साधना से संबंधित संदर्भ प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।

 हिरण्यगर्भ भगवान ब्रह्मा को योगशास्त्र का आदि प्रवक्ता कहा गया है। योगशास्त्र को प्राचीनकाल में ‘हैरण्यगर्भशास्त्र’ कहा जाता था। प्राचीन भारतीय इतिहास की आधारशिला पुराणों के अनुसार सृष्टि के आदि में सनकादि ॠषियों, मरीच्यादि प्रजापतियों ने योगसिध्दि प्राप्त की। स्वयंभू मंवंतर में महर्षि कपिल महायोगी थे। उन्होंने अपनी माता देवहूति को ज्ञानप्राप्ति के लिए भक्तियोग तथा अपने शिष्य आसुरि को सांख्यदर्शन का उपदेश दिया। इसी काल में स्वयंभू मनु की पांचवी पीढ़ी में भगवान शिव महायोगी हैं और वे ही तंत्रशास्त्र के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। उनकी पत्नि दक्षपुत्री सती एवं उमा (पावर्ती) भी योगविद्या निष्णात थीं। इस प्रकार सृष्टि के आदिकाल में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, शिव, ॠषभदेव, सनत्कुमार, नारद, कर्दम, कपिल तथा वेद ॠचाओं के दृष्टा अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप आदि अनेकों योगसिद्ध साधकों आदि महर्षियों के योगशास्त्र का विस्तार किया।

 वैवस्वत मन्वंतर में योगदर्शन के आदि प्रवक्ता भगवान विवस्वान् अर्थात् सूर्य कश्यप थे। उन्होंने अपने पुत्र वैवस्वत मनु को, मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को योगशास्त्र का उपदेश दिया। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययं, विवस्वान्मनवे प्राह, मनुरिक्ष्वाकवे ब्रवीत्। 
 एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः, स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप॥

 अर्थात् हे अर्जुन! आदि में इस योग को विस्वान् सूर्य से कहा, सूर्य ने इसे मनु को कहा, मनु ने इक्ष्वाकु को कहा और इस प्रकार परंपरा से प्राप्त योग को राजर्षि ने जाना जो कि बहुत काल तक नष्ट हो गया था उसे मैं तुझे कह रहा हूं।

 इस प्रकार योगशास्त्र के अध्ययन एवं प्रयोग शिष्य परंपरा के द्वारा सूर्यवंश में हजारों वर्षों तक चला। वैवस्वत मन्वतंर के 24 वें त्रेतायुगांत में महर्षि बाल्मिकी ने भगवान् राम को योगशास्त्र की शिक्षा दी। उस काल में विश्व के आदिकाल महर्षि बाल्मिकी ने भी योगसाधना के ग्रंथ योग-वशिष्ठ और इतिहास ग्रंथ रामायण की रचना की। इसी प्रकार सहस्रबाहू के गुरु भगवान दत्तात्रेय भी योगसिद्ध महात्मा थे जो कि आज भी समस्त वानप्रस्थ-संयासी समुदाय के गुरु माने जाते हैं। छठे अवतार भगवान परशुराम ने योग साधना कर अनेकों सिध्दियां प्राप्त की थी जिनमें मन की गति से यात्रा करना भी शामिल है। इस काल में शेषावतार महर्षि पतंजलि ने हिरण्यगर्भशास्त्र को क्रमबद्ध कर योगसूत्र की रचना की जो कि योगदर्शन के इतिहास में युगांतकारी उपलब्धि थी।

 इस काल में मैत्रावारूणि वशिष्ठ कराल जनक, असुरि शिष्य पंचशिख, उनके शिष्य धर्मध्वज जनक, याज्ञवलक्य, उनके शिष्य दैवराजि जनक, विभिन्न ऐक्ष्वाकु जैन तीर्थंकर, कॉम्पिल्यनरेश ब्रह्मदत्त, पतंजलि आदि अनेकों ज्ञात-अज्ञात ॠषियों ने योगदर्शन का विकास किया।

 महाभारत काल में गृहस्थ आश्रम के पश्चात् वानप्रस्थ में योगसाधना करके संन्यास आश्रम में प्रवेश करना सामान्य नियम था। महर्षि वेदव्यास प्रणीत श्रीमद्भगवदगीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग, जपयोग आदि का विस्तार से वर्णन है। पातंजलि योगसूत्र पर उनका ‘व्यासभाष्य’ योगशास्त्र के इतिहास की सार्वकालिक रचना है, जिस पर आगामी पांच हजार वर्षों तक अनेकानेक योगियों, विद्वानों ने टीका, वृत्ति, विवरण आदि अनेकों ग्रंथों की रचना की जिनके माध्यम से आज तक हमें योगशास्त्र का क्रमबद्ध ज्ञान प्राप्त होता है।

 अष्टम् अवतार भगवान कृष्ण को योगिराज कहा जाता है जो कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों विषयों के जगद्गुरू माने जाते हैं। इस काल में महाभारत युद्ध के समय उपदिष्ट उनकी भगवदगीता योग ही नहीं बल्कि मानवता के इतिहास में अद्वितीय उपदेश है जिसका संकलन कर वेदव्यास भी अमर हो गए। श्रीमदभगवदगीता के ज्ञानयोग, भक्तियोग, निष्काम कर्मयोग आदि विभिन्न योगसाधनाएं पांच हजार वर्षों से ज्ञानियों, गृहस्थों, संयासियों, साधकों के लिए मार्गदर्शन हेतु दीपस्तंभ के रूप में स्थापित है। श्री कृष्ण के ही कुलबंध 22वें जैन तीर्थंकर अरिष्टनेमी या नेमिनाथ ने इसी काल में सौराष्ट्र स्थित गिरनार पर्वत पर योग साधना कर मोक्ष प्राप्त किया। 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ इस काल में विख्यात योगी हुए। वेदव्यास से लेकर महात्मा बुद्ध के 1500 वर्षों के अंतराल में योगशास्त्र पर अनेकों प्रयोग, शोध हुए तथा अनेकानेक प्रकार की योगपद्धतियों का विकास किया गया। ‘ब्रह्मपुराण’, ‘शिवपुराण’, ‘अग्निपुराण’, ‘विष्णुपुराण’ आदि पुराण एवं ‘पंचरात्र’ आदि तांत्रिक ग्रंथ तथा इनके अनुशांगिक साहित्य में योगसाधना की अनेकों पद्धतियों का वर्णन प्राप्त होता है।

1922 ईस्वी में अविभाजित भारत में मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई की गई जिसमें सिंधुघाटी की अति-प्राचीन सभ्यता का उद्धाटन हुआ। बाद में भारतीय पुरातत्वशास्त्रियों ने उत्तर प्रदेश के आलमगीरपुर, पंजाब के रोपड़, हरियाणा के कुणाल, बनावाली, शीशवाल, राखी गढ़ी, राजस्थान के कालीबंगन, गुजरात के धौलावीर, सुरकोटड़ा, लोथल, भेट, द्वारका, रंगपुर, राजड़ी आदि स्थानों पर उत्खनन कर सिंधु घाटी की समकालीन सभ्यता का अन्वेषण किया। 1985 ई. में भारतीय भूगर्भ-वैज्ञानिकों, पुरातत्वविदों ने नासा के एक उपग्रह से प्राप्त भूगर्भीय मानचित्र के आधार पर आदि बद्री, हिमाचल प्रदेश से लेकर कच्छ के रण तक 4500 किमी क्षेत्र का सर्वेक्षण कर विलुप्त सरस्वती नदी का उद्धाटन किया। इस सिंधु-सरस्वती सभ्यता के उत्खनन में विलुप्त पुरातात्विक सामग्री प्राप्त हुई जिसमें पशुपति शिव, कार्योत्सर्ग मुद्रा में खड़े साधक आदि अनेकों योगमुद्राओं में साधकों की प्रतिमाएं प्राप्त हुई। यह सिंधु-सरस्वती सभ्यता भी योगशास्त्र को लगभग 3000 ईसापूर्व प्राचीन सिद्ध करती है। अतः महाभारतकालीन साहित्यिक स्रोत एवं सिंधु-सरस्वती सभ्यता के पुरातात्विक प्रमाण योगशास्त्र की प्राचीनता को समान रूप से प्रमाणित करते हैं।

 भारतीय ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार भगवान बुद्ध एवं स्वामी महावीर का काल लगभग कलि संवत् 1500 अर्थात् 1600 ईसा पूर्व है। बौद्ध और जैन दर्शन संयास और मोक्षोपाय के दर्शन हैं। अतः इस काल में चार आश्रमों की जीवनशैली के स्थान पर संन्यास और मोक्ष का महत्व बढ़ गया और इस काल में मंत्रयोग, यंत्रयोग की योगसाधना का बहुत विकास हुआ। इस क ाल में शाक्तमुनि सिध्दार्थ, मेघंकल, शरणंकर, दीपंकर, कौडिन्य, मंगल, सुमन, रैवत, शोभित, अनामदर्शी, पद्म, नारद, सुमेध, सुजात, प्रियदर्शी, अर्थदर्शी, पुष्य, विपश्यिन, विश्वभू, कुसंधि, कनकमुनि, काश्यप और गौतम चौबीस बुध्दों ने योग साधनाओं के द्वारा निर्वाण प्राप्त किया। हीनयानी बौद्ध ध्यानमार्ग और महायानी बौद्ध अष्टांग योग की साधना करते थे। बोधिसत्व मैत्रेय का ‘सूत्रालंकार’, असंग का ‘योगाचार भूमिशास्त्र’, और वसुबंधु का ‘विज्ञप्तिमात्रतासिध्दि’ आदि इस काल में उल्लेखनीय साधना ग्रंथ है। इन्होंने एक अलग बौद्ध संप्रदाय योगाचार की स्थापना की।

24 वें जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी उनके शिष्य आर्य सुधर्मा, स्थविर संभूति विजय, भद्रबाहू आदि जैन मुनि योगसाधक इसी काल में हुए। गणधर गौतम इंद्रभूति ने जैनसाधना के बारह अंगों और 14 पूर्वों को उपनिबद्ध किया। इस काल में श्वेतांबर और दिगंबर जैन साधकों ने योग विद्या में अनेकों प्रयोग किए और तांत्रिक और शुद्ध यौगिक साधनाओं का विकास किया। बौद्धसंघ की विपश्यना और जैनसंघ की प्रेक्षाध्यान पद्धति का प्रादुर्भाव इसी काल में हुआ। योग-तंत्र मार्ग के अनेकों बौद्ध, जैन साधु इस काल में हुए।

 आस्तिक दर्शन के ईश्वर कृष्ण, उद्योतकर आदि सांख्य एवं योग के आचार्य इसी काल की विभूतियां थे। इसी काल में महर्षि गौड़पाद, भाष्यकार पतंजलि एवं गोविंद भागवतपाद ने साधना मार्ग की अनेकों सिध्दियां प्राप्त कीं। ‘जाबालोपनिषद’, ‘योगशिखोपनिषद’, ‘अद्वयतारकोउपनिषद’, ‘तेजबिन्दु उपनिषद’, ‘योगतत्वोपनिषद’, ‘अमृतबिन्दोपनिषद’ आदि योगशास्त्र के ग्रंथों का प्रणयन इस काल में किया गया।

 आद्य शंकराचार्य भगवत्पाद का प्रादुर्भाव कलिसंवत् 2593, युधिष्ठिर संवत् 2629 अर्थात् 374 विक्रमपूर्व तदनुसार 509 ईसापूर्व में हुआ। उन्होंने न केवल तत्कालीन भारत में प्रचलित अनेकों दर्शनिक मतों, संप्रदायों, पाखंडों को शास्त्रार्थ से पराजित किया तथा भारत में प्रचलित अनेकों प्रकार की साधना पद्धतियों का समन्वय कर आधुनिक सर्वपंथ-समभाव की आधारशिला रखी। आदिशंकर ने आस्तिक और नास्तिक दर्शनों में प्रचलित, निराकार एवं साकार साधना, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, बुद्धयोग, जैनयोग आदि को समन्वित कर भविष्य के भारतीय दार्शनिक चिंतन, समन्वित कर्मकांड, मोक्ष साधना, संन्यास की मार्गदर्शिका का निर्माण कर मानवता अभियान का सूत्रपात किया। उन्होंने वेदांत, सांख्य तंत्रशास्त्र, स्त्रोत तथा अनेकों साधना ग्रंथों के साथ-साथ योगसूत्र के वेदव्यास पर लिखकर योगशास्त्र की महत्ता को प्रमाणित किया। उन्होंने दशनामी संप्रदाय तथा चार शंकरमठों की स्थापना कर योग साधना परंपरा को स्थायी कर दिया जो कि पूज्य शंकराचार्यों द्वारा आज तक प्रचलित है।

 इसी काल में आगे चलकर गुरू मत्स्येन्द्रनाथ आदि तांत्रिक, गुरू गोरखनाथ आदि योगी, भर्तृहरि आदि नाथपंथी, बौद्ध योगी, व्रजयानी तांत्रिक, सिद्ध सरहपाद आदि नवनाथ-चौरासी सिध्दों की परंपरा, जैनमुनि कुंदकुंदाचार्य, उमास्वाति, हरिभद्रसूरि में अनेकों योगियों ने योगशास्त्र का विस्तार किया। सातवीं शताब्दी ईस्वी में दक्षिण भारत के वैष्णव आळवार एवं शैव नयन्नार संतो ने भक्तियोग की स्थापना की। इसी काल में वाचस्पति मिश्र ने योगशास्त्र के व्यासभाष्य पर ‘तत्ववैशारदी टीका’ लिखकर विद्वत् समाज में योगदर्शन को प्रतिष्ठापित किया। इस कालखंड की सबसे बड़ी विशेषता हठयोग का प्रचलन थी। ‘शिवसंहिता’, ‘घेरंडसंहिता’, ‘सिद्ध-सिध्दांत-पद्धति’, ‘योगसिध्दांत पद्धति’, ‘अवधूतगीता’, ‘हठसंहिता’, ‘हठदीपिका’, ‘कौलज्ञान निर्णय’, ‘कुलार्णव-तंत्र’, ‘विद्यार्णव-तंत्र’ आदि योग-तंत्र के अनेकों ग्रंथ इस काल में रचे गए।

 आदि शंकराचार्य के समन्वित दर्शन की आधारशिला पर ही मध्यकालीन निर्गुण और सगुण भक्ति आंदोलन रूपी मानवता से प्रेम की विश्व की अद्वितीय अट्टालिका निर्मित की जा सकी। सातवीं शताब्दी ईस्वी में 12 वैष्णव अलवार संत और 63 शैव नयनार संत भक्तियोग के प्रवर्तक थे। इसी परंपरा में कलियुग की पंचम सहस्राब्दि के आरंभ में रामानुज के सभी जातियों के लिए भक्तियोग की दीक्षा के द्वार खोल दिए। उत्तर भारत में उनके शिष्य स्वामी रामानंद ने भक्ति मार्ग का प्रचार किया। रामानंद के दो शिष्य ज्ञानयोगी संत कबीर और भक्ति मार्गी संत तुलसीदास विश्व प्रसिद्ध संत हुए। इसके साथ ही यमुनाचार्य, मध्वाचार्य, विष्णुस्वामी, निंबार्काचार्य, बल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, गरू नानकदेव, गुरू रामदास, समर्थ श्री रामदास, गुरू अर्जुनदेव, दशमेश गरू गोविन्द सिंह, संत रविदास, गरीबदास, दादु दयाल, नरसी मेहता, संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, संत नामदेव, संत सुरदास, मीराबाई, रहीम आदि अनेक भक्तों ने भक्तियोग का प्रचार किया। यहां तक कि भारतीय भक्तियोग ने इस्लाम को भी आकर्षित किया और सूफीमत का प्रादुर्भाव हुआ जो कि विपरित मतों के समन्वय का प्रतीक बन गया। शेख मोइनुद्दीन चिश्ती, शेख निजामुदीन औलिया आदि सूफी संत इसकी काल में हुए। मलिक मुहम्मद जायसी की ‘पद्मावत’ अर्थात् रानी पद्मावती तथा ‘कान्हावत्’ अर्थात् भगवान कृष्ण का चरित्र इस काल की उच्चतम योग-दार्शनिक रचनाएं हैं।

 इस कालखंड में योगसाधना में ज्ञानयोग और भक्तियोग अपने चरमोत्कर्ष पर था। एेंद्रीय शक्ति को सिद्धकर भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गुप्त साधनाएं और घोर तपस्याओं को छोड़कर भारतीय समाज शुद्ध आचरण और प्रेम साधना की ओर अग्रसर हुआ। इसके साथ ही योगसाधना केवल संयासियों तक सीमित न रहकर समाज में गृहस्थ जीवन में ही निष्काम भाव से मोक्ष की प्राप्ति के लिए सहज साधना का काल आरंभ हुआ। इस काल की सबसे बड़ी विशेषता मानव-मानव में समानता का उद्धोष था।

 भक्तियोग के अतिरिक्त हिरण्यगर्भ की पातंजल योग परंपरा में भी इसी काल में योगशास्त्र का विस्तार होता रहा। योगसूत्र पर राजा भोज प्रणीत ‘राजमार्तण्ड’, हेमचंद्राचार्य के ‘योगशास्त्र’, विज्ञानभिक्षु प्रणीत ‘योगभाष्य’ और ‘योगस्तर संग्रह’, श्रीनिवास भट्ट की ‘हठसंकेत चंद्रिका’, सुंदरदेव की ‘हठतत्वकौमुदी’, हर्षकीर्ति की ‘हठयोग प्रणाली’, आत्माराम की ‘हठयोग प्रदीपिका’, भोगेश्वरमुनि की ‘योगरत्न’ प्रदीपिका आदि योग साहित्य इसी काल के ग्रंथरत्न हैं।

 पुनर्जागरण काल में अनेकों युगपुरूषों ने जन्म लिया। स्वामी दयानंद जैसे उद्भट वैदिक विद्वान, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविंद, महर्षि रमण, स्वामी विशुध्दानंद, तैलंग स्वामी, योगीराज श्यामाचरण लाहिड़ी, गोपीनाथ कविराज, आदि अनेकों योगसाधक इस काल में हुए। ईसा की 20वीं सदी के द्वितीय विभूति महात्मा गांधी ने तो निष्काम कर्मयोग और अहिंसा का प्रयोग न केवल सक्रिय राजनीति में किया बल्कि उनके सत्याग्रह ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में विशेष योगदान दिया। ईसा की 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में श्रीपद प्रभुपाद, आचार्य रजनीश, महर्षि महेश योगी, जैन आचार्य श्री महाप्रज्ञ, बाबा रामदेव आदि महान विभूतियों ने भारतीय योगसाधना और दर्शन का जोर-शोर से प्रचार किया है। 

परिणामस्वरूप योगदर्शन और साधना ने भारत से बाहर निकलकर विश्वव्यापी साधना का रूप ले लिया। आज विश्व के सभी मतों, संप्रदायों, पूजा पद्धतियों के मानने वालों आस्तिकों, नास्तिकों ने योगसाधना की ओर आकर्षित होकर मोक्ष प्राप्ति या शारीरिक-मानसिक शांति-संतोष की प्राप्ति के लिए प्रयासरत हैं। इस प्रकार सृष्टि के आरंभ से उदय हुए योग-साधना रूपी दीपक अब सभी मतों के समन्वय रूपी सूर्य बनकर अपनी आभा से विश्व को आलोकित कर रहा है।
✍🏻संजय तिवारी
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