ब्रिटिश
ने कैसे चुराया प्लास्टिक सर्जरी का ज्ञान ?
इन मे से
एक युद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ने वाला ‘कावसजी’ नाम का मराठा सैनिक और 4 तेलगु भाषी लोगों को टीपू सुलतान की फ़ौज ने पकड़
लिया. बाद में इन पांचों लोगों की नाक काटकर टीपू के सैनिकों ने, उनको अंग्रेजों के पास भेज दिया.
इस घटना के
कुछ दिनों के बाद एक अंग्रेज कमांडर को एक भारतीय व्यापारी के नाक पर कुछ निशान
दिखे. कमांडर ने उनको पूछा तो पता चला कि उस व्यापारी ने कुछ ‘चरित्र के मामले में गलती’ की थी, इसलिए उसको नाक काटने की सजा मिली थी.
लेकिन नाक
कटने के बाद,
उस व्यापारी ने एक वैद्य जी के पास जाकर अपनी नाक पहले जैसी करवा ली
थी. अंग्रेज कमांडर को यह सुनकर आश्चर्य हुआ. कमांडर ने उस कुम्हार जाति के वैद्य
को बुलाया और कावसजी और उसके साथ के चार लोगों की नाक पहले जैसी करने के लिए कहा.
कमांडर की
आज्ञा से,
पुणे के पास के एक गांव में यह ऑपरेशन हुआ. इस ऑपरेशन के समय दो
अंग्रेज डॉक्टर्स भी उपस्थित थे. उनके नाम थे – थॉमस क्रूसो
और जेम्स फिंडले.
इन दोनों
डॉक्टरों ने,
उस अज्ञात मराठी वैद्य के किए हुए इस ऑपरेशन का विस्तृत समाचार ‘मद्रास गजेट’ में प्रकाशन के लिए भेजा. वह छपकर भी
आया.
विषय की
नवीनता एवं रोचकता देखते हुए, यह समाचार इंग्लैंड पहुचा.
लन्दन से प्रकाशित होने वाले ‘जेंटलमैन’ नामक पत्रिका ने इस समाचार को अगस्त, 1794 के अंक
में पुनः प्रकाशित किया. इस समाचार के साथ, ऑपरेशन के कुछ
छायाचित्र भी दिए गए थे.
अगस्त, 1794 के लन्दन से प्रकाशित ‘जेंटलमैन’ मासिक का वह पृष्ठ, जिसमें पुणे में संपन्न हुई
प्लास्टिक सर्जरी का विवरण छपा है.
जेंटलमैन
में प्रकाशित ‘स्टोरी’ से प्रेरणा लेकर इंग्लैंड के जे. सी. कॉर्प
नाम के सर्जन ने इसी पद्धति से दो ऑपरेशन किये. दोनों सफल रहे. और फिर अंग्रेजों
को और पश्चिम की ‘विकसित’ संस्कृति को
प्लास्टिक सर्जरी की जानकारी मिली. पहले विश्व युद्ध में इसी पद्धति से ऐसे
ऑपरेशन्स बड़े पैमाने पर हुए और वह सफल भी रहे.
असल में
प्लास्टिक सर्जरी से पश्चिमी जगत का परिचय इससे भी पुराना हैं. वह भी भारत की
प्रेरणा से.
‘एडविन स्मिथ पापिरस’ ने पश्चिमी लोगों के बीच
प्लास्टिक सर्जरी के बारे में सबसे पहले लिखा ऐसा माना जाता हैं. लेकिन रोमन
ग्रंथों में इस प्रकार के ऑपरेशन का जिक्र एक हजार वर्ष पूर्व से मिलता हैं.
अर्थात
भारत में यह ऑपरेशन्स इससे बहुत पहले हुए थे. आज से पौने तीन हजार वर्ष पहले, ‘सुश्रुत’ नाम के शस्त्र-वैद्य (आयुर्वेदिक सर्जन) ने
इसकी पूरी जानकारी दी हैं. नाक के इस ऑपरेशन की पूरी विधि सुश्रुत के ग्रंथ में
मिलती हैं.
किसी
विशिष्ट वृक्ष का एक पत्ता लेकर उसे मरीज की नाक पर रखा जाता हैं. उस पत्ते को नाक
के आकार का काटा जाता हैं. उसी नाप से गाल, माथा या फिर हाथ /
पैर, जहां से भी सहजता से मिले, वहां
से चमड़ी निकाली जाती हैं. उस चमड़ी पर विशेष प्रकार की दवाइयों का लेपन किया जाता
हैं.
फिर उस
चमड़ी को जहाँ लगाना हैं,
वहां बांधा जाता हैं. जहां से निकाली हुई हैं, वहां की चमड़ी और जहां लगाना हैं, वहां पर विशिष्ट
दवाइयों का लेपन किया जाता हैं. साधारणतः तीन हफ्ते बाद दोनों जगहों पर नई चमड़ी
आती हैं, और इस प्रकार से चमड़ी का प्रत्यारोपण सफल हो जाता
हैं.
इसी प्रकार
से उस अज्ञात वैद्य ने कावसजी पर नाक के प्रत्यारोपण का सफल ऑपरेशन किया था.
नाक, कान और होंठों को व्यवस्थित करने का तंत्र भारत में बहुत पहले से चलता आ
रहा हैं. बीसवी शताब्दी के मध्य तक छेदे हुए कान में भारी गहने पहनने की रीति थी.
उसके वजन के कारण छेदी हुई जगह फटती थी. उसको ठीक करने के लिए गाल की चमड़ी निकाल कर वहां लगाई जाती थी. उन्नीसवी शताब्दी के अंत तक इस प्रकार के ऑपरेशन्स भारत में होते थे.
हिमाचल
प्रदेश का ‘कांगड़ा’ जिला तो इस प्रकार के ऑपरेशन्स के लिए मशहूर
था. कांगड़ा यह शब्द ही ‘कान + गढ़ा’ ऐसे
उच्चारण से तैयार हुआ हैं.
डॉ एस सी
अलमस्त ने इस ‘कांगड़ा मॉडल’ पर बहुत कुछ लिखा हैं. वे कांगड़ा के ‘दीनानाथ कानगढ़िया’ नाम के नाक, कान के ऑपरेशन्स करने वाले वैद्य से स्वयं जाकर मिले. इन वैद्य के अनुभव
डॉ. अलमस्त जी ने लिख कर रखे हैं.
सन 1404 तक
की पीढ़ी की जानकारी रखने वाले ये ‘कान-गढ़िया’, नाक और कान की प्लास्टिक सर्जरी करने वाले कुशल वैद्य माने जाते हैं.
ब्रिटिश
शोधकर्ता सर एलेग्जेंडर कनिंघम (1814–1893) ने कांगड़ा की
इस प्लास्टिक सर्जरी को बड़े विस्तार से लिखा हैं. अकबर के कार्यकाल में ‘बिधा’ नाम का वैद्य कांगड़ा में इस प्रकार के
ऑपरेशन्स करता था, ऐसा फारसी इतिहासकारों ने लिख रखा हैं.
‘सुश्रुत’ की मृत्यु के लगभग ग्यारह सौ (1100) वर्षों
के बाद ‘सुश्रुत संहिता’ और ‘चरक संहिता’ का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ. यह कालखंड
आठवी शताब्दी का हैं. ‘किताब-ए-सुसरुद’ नाम से सुश्रुत संहिता मध्यपूर्व में पढ़ी जाती थी.
आगे जाकर, जिस प्रकार से भारत की गणित और खगोलशास्त्र जैसी विज्ञान की अन्य शाखाएं,
अरबी (फारसी) के माध्यम से यूरोप पहुंची, उसी
प्रकार ‘किताब-ए-सुसरुद’ के माध्यम से
सुश्रुत संहिता यूरोप पहुच गई.
चौदहवीं–पंद्रहवीं शताब्दी में इस ऑपरेशन की जानकारी अरब–पर्शिया
(ईरान)–इजिप्त होते हुए इटली पहुँची.
इसी
जानकारी के आधार पर इटली के सिसिली आयलैंड के ‘ब्रांका परिवार’
और ‘गास्परे टाग्लीया-कोसी’ ने कर्णबंध और नाक के ऑपरेशन्स करना प्रारंभ किया. किन्तु चर्च के भारी
विरोध के कारण उन्हें ऑपरेशन्स बंद करना पड़े. और इसी कारण उन्नीसवीं शताब्दी तक
यूरोपियन्स को प्लास्टिक सर्जरी की जानकारी नहीं थी.
ऋग्वेद का ‘आत्रेय (ऐतरेय) उपनिषद’ अति प्राचीन उपनिषदों में से
एक हैं. इस उपनिषद में (1-1-4) ‘मां के उदर में बच्चा कैसे
तैयार होता हैं’, इसका विवरण हैं. इस में कहा गया हैं कि
गर्भावस्था में सर्वप्रथम बच्चे के मुंह का कुछ भाग तैयार होता हैं. फिर नाक,
आँख, कान, ह्रदय (दिल)
आदि अंग विकसित होते हैं.
आज के
आधुनिक विज्ञान का सहारा लेकर, सोनोग्राफी के माध्यम से अगर हम
देखते हैं, तो इसी क्रम से, इसी अवस्था
से बच्चा विकसित होता हैं.
भागवत में
लिखा है (2-1022 और 3-26-55) कि मनुष्य में दिशा पहचानने की क्षमता कान के कारण
होती हैं. सन 1935 में डॉक्टर रोंस और टेट ने एक प्रयोग किया. इस प्रयोग से यह
साबित हुआ कि मनुष्य के कान में जो वेस्टीब्यूलर (vestibular apparatus) होता है, उसी से मनुष्य को दिशा पहचानना संभव होता
हैं.
अब यह
ज्ञान हजारों वर्ष पहले हमारे पुरखों को कहां से मिला होगा..?
संक्षेप
में,
प्लास्टिक सर्जरी का भारत में ढाई से तीन हजार वर्ष पूर्व से
अस्तित्व था. इसके पक्के सबूत भी मिले हैं.

0 टिप्पणियाँ
दिव्य रश्मि की खबरों को प्राप्त करने के लिए हमारे खबरों को लाइक ओर पोर्टल को सब्सक्राइब करना ना भूले| दिव्य रश्मि समाचार यूट्यूब पर हमारे चैनल Divya Rashmi News को लाईक करें |
खबरों के लिए एवं जुड़ने के लिए सम्पर्क करें contact@divyarashmi.com