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केरल में हथिनी को मारने वाले शैतान के लिए

केरल में हथिनी को मारने वाले शैतान के लिए

अश्विनी तिवारी 

दक्षिण अफ्रीका के पर्यावरणविद, संरक्षणकर्ता और अन्वेषक लॉरेंस एंथनी ने अपना जीवन विलुप्तप्राय प्राणियों, जनजातियों के संरक्षण और उनके पुनर्वास में लगाया था। उन्होंने भिन्न-भिन्न जंगली जानवरों के संरक्षण के क्रम में एक वक्त ज़ुलुलैंड के थुला-थुला गेम रिज़र्व में कई जंगली हाथियों को बचाया । ये वो हाथी थे जो मार दिये जाने के कगार पर थे, लेकिन लॉरेंस अपनी आंखों की भाषा और आत्मीयता से उन हाथियों में मनुष्यों के प्रति फिर से विश्वास जगा सके ।

 ये वो हाथी थे जो लॉरेंस से परिचित होने से पूर्व इंसानों को मार डालते थे या खुद मारे जाते थे लेकिन लॉरेंस ने न सिर्फ उन हाथियों को बचाया बल्कि मनुष्य और पशु के सहअस्तित्व को पुनर्परिभाषित भी किया, जो कि 2012 में उनकी मृत्यु के बाद एक विलक्षण घटना से प्रमाणित हो जाता है । लॉरेंस की मृत्यु के दो दिन के बाद 112 किलोमीटर दूर के जंगलों से 31 हाथियों का झुण्ड उनके घर तक आ पहुंचा ।ये सभी हाथी दो दिनों तक लॉरेंस के घर के बाहर डेरा जमाए रहे और इस दौरान भूखे-प्यासे भी रहे । उन्होंने लॉरेंस के गुजर जाने का शोक वैसे ही मनाया जैसे अपने झुण्ड के किसी सदस्य की मृत्यु पर मनाते रहे थे। दो दिन के बाद हाथियों का झुण्ड धीरे-धीरे अपने वन में लौट गया ।

यहां आश्चर्यजनक बात यह नहीं है कि हाथियों ने इंसान की मौत का मातम मनाया बल्कि आश्चर्यजनक बात यह है कि संवाद का वह कौन सा तार था जो लॉरेंस की मृत्यु का संदेश लेकर उन हाथियों तक पहुंचा ? दिशाओं से मिलने वाला वह कौन सा ज्ञान, आत्मा का वह कौन सा अदृश्य आलेख जिसे पढ़कर हाथियों को यह ज्ञात हो गया कि उन्हें जीवन देने वाले लॉरेंस इस दुनिया से जा चुके हैं । 

क्या यह साक्षात ईश्वरत्व की अनुभूति नहीं है ? लॉरेंस ने 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के दौरान बगदाद के चिड़ियाघर से भी जानवरों को बचाया था । मृत्यु से पहले वे विशालकाय सफेद गैंडों को बचाने में जुटे थे । उन्होंने तीन किताबें भी लिखी हैं जो कि बेस्ट सेलर हैं । लॉरेंस और उन हाथियों के बारे में जानते हुए मैं यह मानने लगा हूं कि जैसे मनुष्यों में पशुता होती है वैसे ही पशुओं में भी बहुत अधिक मनुष्यता होती है। दोनों के सहअस्तित्व की भूमिका उसी मनुष्यता से तैयार होती है जो दोनों में समान रूप से विद्यमान है।

एक निरीह हथिनी को बारूद से भरा फल खिलाने वाला कौन था ? केरल के लोगों में हाथियों से बहुत प्रेम होता है। वहां के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन में उनकी उपस्थिति सहज और शेष भारत से बढ़ चढ़कर है फिर एक हथिनी को इतनी निर्दयता से मारने वाला कौन है?

केरल का सबसे बड़ा चर्च है सायरो-मालाबार कैथोलिक चर्च। ये सबसे बड़ा इसलिए है क्योंकि केरल के पश्चिमी घाट पर रहने वाले ईसाइयों में से ज्यादातर इसी ज़ात के हैं। इस चर्च ने 2013 में कम्युनिस्टों के साथ मिलकर गाडगिल समिति की सिफारिशों के खिलाफ आन्दोलन शुरू कर दिया था। आप सोचेंगे कि शायद गाडगिल समिति ने क्षेत्र में उद्योग-फैक्ट्रियां लगाने की बात की होगी और इलाके के लोगों को अपनी जमीनें जाना पसंद नहीं आया होगा तभी कॉमरेड विरोध कर रहे होंगे। मामला इसका ठीक उल्टा था।

रेन-फारेस्ट यानि वर्ष-वन जैसे अमेज़न में हैं, वैसे ही केरल के पश्चिमी घाटों पर भी हैं। ये पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही नाजुक क्षेत्र है। अगर यहाँ से जंगल हटे तो पर्यावरण संतुलन बिगड़ेगा, जिसके भयावह नतीजे झेलने पड़ सकते हैं। इसी को लेकर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने वेस्टर्न घाट्स इकोलॉजी एक्सपर्ट्स पैनल (डब्ल्यू.जी.इ.इ.पी.) की स्थापना की थी जिसके प्रमुख जाने-माने पर्यावरण शास्त्री माधव गाडगिल थे। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पहले 8 अक्टूबर और फिर काम ना होने पर 12 नवम्बर तक वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को इस रिपोर्ट को लागू कर देने कहा था।

रिपोर्ट कहती है कि घाट का 37% हिस्सा पर्यावरण की दृष्टि से नाजुक है, इसे यथास्थिति में रखा जाए। ओमान चंडी की सरकार इसे मानने के बदले, इसे रुकवाने, सर्वोच्च न्यायलय पहुँच गयी। सर्वोच्च न्यायलय ने एक ही दिन में केरल की सरकार की मांग ठुकरा दी। ये इलाका संयुक्त राष्ट्र द्वारा “विश्व धरोहर” घोषित है। इसे बचाने के बदले केरल की कांग्रेसी सरकार ने सभी पार्टियों की बैठक बुलाकर केंद्र सरकार से गाडगिल समिति की रिपोर्ट को ख़ारिज कर देने की मांग की।

कांग्रेसी नेता पी.सी.जोर्ज, गाडगिल समिति की सिफारिशों को लागू करके जंगल बचाने की कोशिश करने आने वाले लोगों को पीटकर भगाने की धमकी दे चुके हैं। लगातार जंगलों को काटने के स्थानीय दबाव के मद्देनजर केंद्र सरकार ने अन्तरिक्ष वैज्ञानिक जी.कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में गाडगिल समिति की रिपोर्ट को फिर से जांचने के आदेश दिए। इस बार भी नतीजे करीब करीब वही निकले। जिन क्षेत्रों में जंगल होना चाहिए, उसके नक़्शे में बहुत मामूली से परिवर्तन के अलावा सभी सिफारिशें जस की तस रही। जंगलों को काटने पर आमादा कॉमरेडों (सीपीआई-एम) ने कहा कि जंगलों को ना काटने का ये आदेश तो केरल की तरक्की ही रोक देगा!

सीपीआई-एम यहाँ अथिरापल्ली हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट बनाने पर तुला है। जंगल बचाने की कोशिशों को सायरो-मालाबार कैथोलिक चर्च अंतर्राष्ट्रीय साजिश, या राजनीती की भाषा में “विदेशी ताकतों का हाथ” घोषित कर चुका है। केरल में बाढ़ आई है। वहां से स्थानीय विधायकों के सेव आवर सोल (एस.ओ.एस) यानि हमारी आत्मा बचाओ जैसे संदेशों को अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करके भावनाओं को आंदोलित भी किया जा रहा है। हम बिहार से हैं और बाढ़ क्या होती है ये हम लोग निजी अनुभवों से जानते हैं। पर्यावरण से छेड़-छाड़ के नतीजे क्या हो सकते हैं इसका अनुभव कुछ दुधमुंहे बच्चों का पहली बार का भी होगा।

बाकी पांच साल पहले से जो जंगल “विकास” के रास्ते में रोड़ा लग रहे थे, उनके हट जाने से कैसा “विनाश” हो सकता है उसका अंदाजा भी कीजिये। पेड़ ज्यादा लगाना और प्लास्टिक का इस्तेमाल कम करना, पूरे भारत की जरूरत है। इसे जितना जल्दी मान लें, उतना बेहतर।

अपराधों के आंकड़े देखें तो भारत में होने वाले बलात्कारों की तुलना में केरल में बलात्कारों की दर डेढ़ गुना ज्यादा रही है | अगर हिंसक वारदातों में लगी चोटों की दर देखें तो वो राष्ट्रिय औसत से दोगुनी रही है | स्त्रियों के प्रति होने वाले यौनाचार सम्बन्धी हिंसा की दर यहाँ दोगुनी से भी ज्यादा रहती है |

स्त्रियों के साथ छेड़-छाड़ की घटनाएँ केरल में राष्ट्रिय औसत से दोगुनी हैं | पति या अन्य रिश्तेदारों द्वारा किये जा रहे शोषण के मामले भी इस राज्य में दोगुने रहे हैं | दंगे फसाद की गिनती देखेंगे तो वहां राष्ट्रिय औसत की तुलना में पांच गुना ज्यादा दंगे होते रहे हैं |

यहाँ एक चीज़ जो गौर करने लायक है वो है ठगी | कहने को सबसे ज्यादा साक्षर इस राज्य में ठगी की घटनाएँ भी राष्ट्रिय औसत से लगभग दोगुनी रही हैं | इस स्पष्ट गिनती के वाबजूद कुछ तथाकथित वामपंथी ये कहने आयेंगे कि केरल भारत का सोमालिया नहीं है | ठगी के नित नए तरीकों के इजाद में सच में इन तथाकथित वामपंथी धर्म के अनुयायियों का कोई मुकाबला नहीं कर सकता |

दक्षिण भारत में केरल की तरफ जाएँ या तमिलनाडु की तरफ वहां आपको कई पालतू हाथी दिख जायेंगे | वैसे तो पूरे भारत में ही हाथी पाले जाते हैं लेकिन वहां जंगलों से लकड़ी निकलने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं और मंदिरों, धार्मिक जुलूसों में भी अक्सर हाथी होते हैं इसलिए पाले भी ज्यादा जाते हैं | दक्षिण भारत घूमने के लिए गया एक परिवार भी ऐसे ही पालतू हाथियों को पास से देखने पहुंचा |

बच्चों को हाथी बड़े पसंद आते हैं | विशाल, कान हिलाते, हर छोटी मोटी चीज़ को गौर से देखते हुए अनोखे जानवर ! तो इस परिवार के साथ जो बच्चे थे वो भी उत्सुकतावश हाथियों के नजदीक पहुँच गए | हाथी अपने अपने खूंटे से मामूली रस्सियों से बंधे खड़े थे | इतनी पतली रस्सी से बंधे इतने बड़े हाथी को देखकर बच्चे बड़े अचंभित हुए | एक बच्चे ने महावत से पूछा, ये हाथी तो आसानी से रस्सी तोड़ लेंगे ! ये रस्सी तोड़कर जंगल में नहीं भाग जाते ?

महावत हंस पड़ा | बोला, नहीं बच्चे, तुम्हें लग रहा है कि हाथी रस्सी से बंधा है दरअसल ये रस्सी से नहीं बंधा | बच्चों ने गौर से फिर देखा, रस्सी के अलावा कुछ नजर नहीं आया जिस से हाथी बंधा हो ! उन्होंने फिर से महावत की तरफ देखा | महावत हंस पड़ा, बोला, बच्चे हम लोग हाथी के बच्चों को पकड़ कर जंगल से लाते हैं | उस वक्त ये बहुत छोटे होते हैं और हम लोग इन्हें मजबूत रस्सियों और जंजीरों से जकड़ कर रखते हैं | उस समय जब हाथी के बच्चे रस्सी तोड़कर भागने की कोशिश करते हैं तो छोटे हाथी से मजबूत रस्सी टूटती नहीं है | धीरे धीरे हाथी को लगने लगता है की वो रस्सी नहीं तोड़ सकता | बाद में बड़े हाथी को जब मामूली रस्सी से भी बंधा होता है तो वो रस्सी तोड़कर भागने की कोशिश नहीं करता |

हाथी उस मामूली रस्सी से नहीं, अपनी ही सोच से बंधा हुआ है |

ऐसा ही इंसानों के साथ भी है | बचपन से ही कई कामों के लिए इतनी बार कहा जाता है कि तुमसे नहीं होगा, तुम नहीं कर सकते की वो बात दिमाग में बैठ जाती है | हम कभी कोशिश ही नहीं करते बाद में उसे करने की, तो फिर वो होता भी नहीं | एक बार फिर से अपनी लिमिट टेस्ट कर लीजिये | हो सकता है आप भी अपनी ही सोच से बंधे हों !
गज और उसका शृंगार

मूर्तियों में हाथी का अंकन बहुत सुंदर तरीके से किया हुआ मिलता है। इतने सजे धजे हाथी कि देखते ही विचार होता है कि बनाने वाले ने गज सिंगार का कितना अध्ययन किया होगा !

हम भारतीयों को आत्माभिमान होना चाहिए कि हमारे यहां हाथी का वर्णन करने वाले लगभग पचास ग्रन्थ होंगे जो पालकाप्य के संस्कृत गजशास्त्र से लेकर राजस्थानी, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलगु, बंगाली, कश्मीरी, उड़िया आदि भाषाओं में भी मिल जाते हैं। इन शास्त्रों से कहीं इतर वर्णन संहिताओं आदि में भी मिल जाता है और इतना रुचिकर है कि आइन ए अकबरी में भी उस विवरण को जगह मिल गई।

बहरहाल, गज के श्रृंगार की बात है जो अब किताबों में ही रह गई है। मुकाबले के लिए प्रयाण से लेकर वाह्याली यानी क्रीड़ागार तक ले जाने के लिए जिस तरह महावत गज को सजाते, उसे जानकर लगता है कि आदमी से कहीं अधिक ध्यान हाथी का रखा जाता। 

गजशाला में रात में वीरसूड नामक बाजा बजाया जाता। हाथी सचेत हो जाते थे और फिर उनको उनकी जातियों के अनुसार पौष्टिक आहार व औषध दिए जाते। महावत उनकी मसाज करता, तिलक लगाकर सजाने का काम करता।

पीछे के दोनों बाजुओं में घण्टे लटकाये जाते। इनको पार्श्व घंटे कहा जाता। ऊपर स्वर्ण पुष्पका ( सुनहरी पालकी) सजती। मुक्ताजाल या मोतियों की लड़ियाँ लुम्बक झुम्बक करती, पुष्पिकाएँ शोभा बढती और उनमें किंकिनियां छुम छुमाती। वायु भरे कलश जैसे मस्तक पर सुंदरता के लिये चामर जैसी रचनाएं कानों व आँखों के बीच लटकती और गले में बहुत कीमती 27-27 गोलाकार, पान पत्ती और ताराओं जैसी मालाएं पहनाई जाती। इसे वृत्त नक्षत्र मालिका कहा जाता। वक्ष पर दो लड़ी का बंधा और पांवों में किंकिणी वाले चमकते छमके...।

है न पशु शृंगार के मायने! वह केवल पशु नहीं, परिवार का अंग भी। माना तो ये भी जाता कि एक समर्थ गजबल के सहारे राज्य और प्रजा निश्चिन्त होती है। वक्त चला गया लेकिन आज भी गज बालमन से लेकर चित्रकार और मूर्तिकार सभी को प्रिय है। "हाथी मेरे साथी" जैसी कई कहानियां उससे और हमसे जुडी हो सकती हैं। समझदारी के तो कई प्रसंग है ही... ।
जय जय।

हस्त्यायुर्वेद की मेवाड़ी प्रति
आयुर्वेद की एक शाखा हाथी या गजायुर्वेद भी है। ब्रह्मपुराण की माने तो प्राचीन भारत में गजवैद्य होते थे और बौद्धग्रन्थों में भी गजों के पालन, पोषण और उपचार के लिए अनेक शास्त्र होने के प्रमाण मिल जाते हैं।मत्स्यपुराण, रामायण और अग्निपुराण में मुनि पालकाप्य द्वारा गजविद्या पर अंगराज को उपदेश करने का सन्दर्भ साक्ष्य मिल जाते हैं। 

पालकाप्य के सन्दर्भ सोमेश्वर (1129 ई.) ने भी दिए हैं। गजशास्त्र के अलावा एक विस्तृत ग्रन्थ है : हस्त्यायुर्वेद। यह आकार में गजशास्त्र से चार गुना है और इसे महा प्रवचन व वृद्धोपदेश महापाठ कहा गया है। इसमें चार स्थान है लेकिन अनेक अध्यायों में गज चिकित्सा पर जो वर्णन है, वह इस अर्थ में आँखें खोलने वाला है कि हाथी के उपचार के लिए कितना बड़ा ग्रन्थ भारत की देन रहा है! 

आदरणीय प्रो. राणावत साहब ने कई बार फ़रमाया कि उनके संग्रह में 1754 ई. का लिपिकृत हस्त्यायुर्वेद है। इसके और भी कई पाठ मेरी जानकारी में हैं लेकिन इसका महत्व मेरे लिए इस अर्थ में भी है कि यह गोगुन्दा की पुरानी प्रति की अनुकृति है। 'महाराणा प्रताप का युग' में मैंने इसकी जानकारी भी दी है। इसकी प्रतिलिपि दशोरा सीताराम मिश्र ने संवत 1811 में की। सीताराम चक्रपाणि मिश्र के माथुरेय परिवार से अलग केवल लिपिकार था।

सीताराम ने उसी शास्त्र की प्रति तैयार की है जो कालांतर में कोलकाता, पूना और जयपुर में भी लिपिकृत हुआ और जिस आधार पर लाहौर संस्कृत पाठशाला के पहले अध्यापक पंडित दाधीच बद्रीनाथ के पुत्र शिवदत्त शर्मा ने इसको संशोधित कर मूल ही छपवाया था। यह सीसे के अक्षरों के प्रेस पर 1894 में छपा और जब हाथी के महावत को दो रुपये मासिक मिलते थे, इस किताब के 7 रुपये और छः आने के दाम रखा गया। यह राजकीय गज शालाओं और नामी गज वैद्यों की ही पहुंच में रहा होगा।

आज इस मूल प्रतिलिपि के अंतिम प्रशस्ति के पृष्ठ की प्रतिलिपि कर शिवदत्त जी के पाठ से मिलान किया तो संतुष्टि हुई कि यह प्रकाशित है। मेरे आग्रह पर इसी साल महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन ने इसका अनुवाद करवाया है। इसमें यह मूल प्रति पाठान्तर के लिए उपयोगी हुई होगी।

बहरहाल, मैं भारतीय चिकित्सा ज्ञान पर अभिभूत हूँ कि हाथी के पालन और उपचार पर 13 हजार श्लोक तो मिल चुके हैं। सोमेश्वर के काल में गज औषध के स्टोर्स होते थे।

मोटी रोटी - गजाकडा
- श्रीकृष्‍ण 'जुगनू'
'गजाकडा' अथवा 'गजागडा' एक रोटी है। मोटी रोटी। गज रोट। आज तो बनानी भी मुश्किल और सेकनी भी कठिन। आज की बहुओं के लिए भी बड़ी ही दुश्‍वार, मगर मां की उम्र की महिलाएं वार-त्‍यौहार बना देती है। ये तवे से ज्‍यादा मिट्टी की केलडी पर अच्‍छी सिकती है और चूल्‍हे से उतरते ही ऐसी लगती है कि यदि पौळी पर अंगुली मारे से खनक सुनाई दे। अच्‍छे मोटे आटे को देर तक भिगोया रखकर गूंथा जाता है और फिर रोटी बेली जाती है। इसी पर अंगुली और अंगूठे के सहारे चिमटी भरी जाती है। 

अनंत चतुर्दशी को खास तौर पर बनती है, इससे दो दिन  पहले भी बनाई जाती है और उसे गजाकड़ा दवास कहते हैं। शाम को ही कथा के बाद स्वाद - आस्वाद का आनंद आता है। 

कई बार उन पर पतले आटे की लैई से कोई अंकन भी कर दिया जाता है या फिर अंगूठी और गोलाकार वस्‍तु से चित्रण किया जाता है। है न कलात्‍मक रोटी, मेहनत वाली रोटी, बहुत मोटी। फुलके खाने वाले तो एक ही रोटी मे पेट पर हाथ फिराने लग जाएं। इसको घी डालकर ही सेंका जाता है। इसको प्राय: ऊपर पर्याप्‍त घी रखकर  दही, दाल के साथ खाया जाता है। खाकर देखिये, अंगुलियां चाटते ही रह जाएं... 

गज जैसी रोटियां, गजाकडा। 
गावता अर खावता... गज गज गजागडा, 
गायां रौ घर जाखडा, 
गायां रेगी बाखडी नै बळद रेग्‍या बाखडा, 
गज गज गजागडा..., 
नान्‍यौ बाबौ आयौ मांगवा, 
कन्‍नी कूकी लागी ठेकवा, 
खाय खाय नै खेमा बाबा घणां होग्‍या ताखडा, 
गज गज गजागडा...
श्रीकृष्ण "जुगनू"
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