उत्तराधिकार की राहें

परिचय
अतीत काल से भारत में हिंदू एवं मुसलमान आदि धर्मावलंबियों का उत्तराधिकार नियम व कानून इन धर्मों का अपनी विशेष व्यवस्था से शासित होता रहा। ब्रिटिश शासन ने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम सन् १८६५ ई. एवं आज लागू वही अधिनियम सन् १९२५ ई. में पारित करके संपूर्ण भारत में, कुछ विशेष आवश्यक एवं प्रमुख मुद्दों पर सभी धर्मावलंबियों, जैसे हिंदू, मुसलमान, ईसाई आदि को एक समान एवं सरल कानून से शासित कर दिया जिसके अंतर्गत वसीयतनामा, उत्तराधिकार सर्टिफिकेट, शासनपत्र आदि अन्यान्य व्यवस्थाओं का विशद प्रावधान है। परंतु इस अधिनियम के बाहर के सभी उत्तराधिकार संबंधी प्रश्न हर धर्म की अपनी-अपनी व्यवस्था से शासित होते रहे हैं।
वेद, शास्त्र पर आधारित हिंदू कानून में संयुक्त अविभक्त हिंदू परिवार की मूर्तिमान् व्यवस्था, जो संपत्ति स्वामित्व के साथ-साथ भोजन एवं पूजा पाठ को भी संयुक्त एवं अविभक्त रूप में स्वीकार करती है, हिंदू कानून का अविचल सोपान है जिसकी समयांतर पर जीमूतवाहन ने मात्र बंगाल के लिए दायभाग नियम एवं विज्ञानेश्वर ने शेष भारत के लिए मिताक्षरा नियमों में वर्गीकृत कर दिया। अटल रूढ़ियों से व्याप्त इस संयुक्त अविभक्त हिंदू परिवार के दुरूह नियमों को सन् १९३७ ई. के हिंदू-नारी-संपत्ति-अधिकार अधिनियम ने जड़ से हिला दिया एवं हिंदू नारी को उसके पति की मृत्यु के बाद स्वामित्व अधिकार पर स्थानापन्न कर दिया। परिणामस्वरूप जागरूकता की धारा प्रवाहित हुई एवं समीचीन हिंदू कोड की माँग की। इसी से प्रेरित राव-कमेटी ने सन् १९४४ ई. में हिंदू कोड का बृहद् मसविदा भारत सरकार को समर्पित किया। इसी मसविदे से भारतीय संसद् ने कई चरणों एवं भागों में कई अधिनियम पारित किए। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (२५, सन् १९५६ ई.) ने संपूर्ण भारत में अन्यान्य हिंदू जाति को एक समान एवं सरल प्रावधान द्वारा उत्तराधिकर का पूर्ण कानून प्रदान किया है। यह अधिनियम दिनांक १७ जून सन् १९५६ से लागू होकर कई महत्वपूर्ण एवं आधुनिकतम प्रावधान सशक्त रूप से सामने रखता है। अब समानता एवं एकरूपता की धारा उत्तराधिकार में प्रवाहित है। पैतृक या स्वगृहीत संपत्ति में लड़का, लड़की, विधवा तथा माँ का अधिकार एवं भाग समान हो गया है। स्त्री के संपत्ति संबंधी सीमित अधिकार को पूर्ण एवं असीमित रूप प्रदान कर दिया गया है।
परंतु कृषि योग्य भूमि की बाबत हर प्रदेश में अलग-अलग भूमिसुधार एवं काश्तकारी अधिनियम संपूर्ण भारत में लागू हैं जिनमें कृषि योग्य भूमि आदि के उत्तराधिकार का विशेष प्रावधान प्रदत्त है। परिणामस्वरूप कृषि योग्य भूमि इन प्रदेशीय भूमि सुधार एवं काश्तकारी अधिनियमों में प्रदत्त उत्तराधिकार प्रावधानों से ही शासित होती है। इस विषय में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, १९५६, लागू नहीं होता है। कृषि योग्य भूमि संबंधी इन अधिनियमों में धर्म, जाति या वर्ग का कोई स्थान न होकर हर भारतीय नागरिक का समान उत्तराधिकार प्रावधान प्रदत्त है।
कोरोना महामारी के चलते जारी ताला-बंदी (Lockdown) के कारण लोगों को घर में बांधे रखने के लिए अभी दो प्रसिद्ध धारावाहिकों - रामायण और महाभारत का पुनर्प्रसारण हो रहा है. इससे लोगों को अपनी बहुत पुरानी संस्कृति से परिचित होने का और उत्तराधिकार पाने के लिए संघर्ष करने का दृष्टांत मिलता है. वैसे भाई-भाई में जहर का बीज बोने में उत्तराधिकार का विषय सब दिन आगे रहा है. तो इसी परिप्रेक्ष्य में देख लें कि हिन्दू उत्तराधिकार है क्या?
जन्मना उत्तराधिकार के लिए दो सिद्धांत बनाये गये हैं -
'मिताक्षरा और दायभाग.
मिताक्षरा
मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की टीका है जिसकी रचना 11वीं शताब्दी में हुई। यह ग्रन्थ 'जन्मना उत्तराधिकार' (inheritance by birth) के सिद्धान्त के लिए प्रसिद्ध है।
हिंदू उत्तराधिकार संबंधी भारतीय कानून को लागू करने के लिए मुख्य रूप से दो मान्यताओं को माना जाता है- पहला है दायभाग मत, जो बंगाल और असम में लागू है। दूसरा है मिताक्षरा, जो शेष भारत में मान्य है। मिताक्षरा के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से ही अपने पिता की संयुक्त परिवार सम्पत्ति में हिस्सेदारी हासिल हो जाती है। इसमें 2005 में कानून में हुए संशोधन के बाद लड़कियों को भी शामिल किया गया।'
रामायण को लें तो इच्छ्वाकु वंश में जिसने जन्म लिया, उसमें ज्येष्ठ पुत्र को पिता के बाद राजगद्दी मिली. पर, पिता जीवित और सक्षम है तो बड़े पुत्र को युवराज की पदवी देकर उसे भी राजकाज कार्य में शामिल किया गया. इसीको ज्येष्ठ पुत्र राम के लिए कार्यरूप देने की बात चली तो राजा दशरथ की दूसरी रानी कैकेयी ने इसमें विघ्न डालकर, अपने पुत्र भरत को युवराज बनाने के लिए दीर्घगामी प्रभाव वाली चाल चल दी कि उसको दिए गए दो वर के कार्यान्वयन के रूपमें राम को चौदह वर्ष का वनवास दिया जाय और भरत को राज! उत्तराधिकार नियम की अवहेलना से बचते हुए, यह युक्ति कारगर सोची गई, लेकिन आगे की घटनाओं से यह कारगर हुई नहीं और पूरे राजपरिवार का जीवन घोर-कष्टमय हो गया.
महाभारत में भी भीषण लड़ाई इसी उत्तराधिकार निर्धारण में गड़बड़ी के चलते हुई. शान्तनु के बड़े पुत्र देवव्रत ने प्रणबद्ध होकर अपने अधिकार से मुख मोड़ लिया और शान्तनु के जो दो पुत्र हुए वे बिना उत्तराधिकारी दिए मर गए. उसके बाद नियोग प्रथा से धृतराष्ट्र और पाण्डु का जन्म कराया गया तो सिर्फ उत्तराधिकार बचाने के लिए. फिर उत्तराधिकार पाने के लिए ज़ो 18 दिनों का भीषण युद्ध हुआ, उसकी बानगी से आप महाभारत धारावाहिक से परिचित हो ही रहे हैं!
तो देखें, वर्तमान काल में उत्तराधिकार निर्धारण के लिए और क्या-क्या नियम लागू होते हैं:
"दायभाग
'दायभाग' जीमूतवाहनकृत एक प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथ है जिसके मत का प्रचार बंगाल में है। 'दायभाग' का शाब्दिक अर्थ है, पैतृक धन का विभाग अर्थात् बाप दादे या संबंधी की संपत्ति के पुत्रों, पौत्रों या संबंधियों में बाँटे जाने की व्यवस्था। बपौती या विरासत की मालिकियत को वारिसों या हकदारों में बाँटने का कायदा कानून।
परिचय
दायभाग हिन्दू धर्मशास्त्र के प्रधान विषयों में से है। मनु, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों में इसके संबंध में विस्तृत व्यवस्था है। ग्रंथकारों और टीकाकारों के मतभेद से पैतृक धनविभाग के संबंध में भिन्न भिन्न स्थानों में भिन्न भिन्न व्यवस्थाएँ प्रचलित हैं। प्रधान पक्ष दो हैं - मिताक्षरा और दायभाग। मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की टीका है जिसके अनुकूल व्यवस्था पंजाब, काशी, मिथिला आदि से लेकर दक्षिण कन्याकुमारी तक प्रचलति है। 'दायभाग' जीमूतवाहन का एक ग्रंथ है जिसका प्रचार वंग देश में है।
सबसे पहली बात विचार करने की यह है कि कुटुंबसंपत्ति में किसी प्राणी का पृथक् स्वत्व विभाग करने के बाद होता है अथवा पहले से रहता है। मिताक्षरा के अनुसार विभाग होने पर ही पृथक् या एकदेशीय स्वत्व होता है, विभाग के पहले सारी कुटुंबसंपत्ति पर प्रत्येक संमिलित प्राणी का सामान्य स्वत्व रहता है। दायभाग विभाग के पहले भी अव्यक्त रूप में पृथक् स्वत्व मानता है जो विभाग होने पर व्यंजित होता है। मिताक्षरा पूर्वजों की संपत्ति में पिता और पुत्र का समानाधिकार मानती है अतः पुत्र पिता के जीते हुए भी जब चाहे पैतृक संपत्ति में हिस्सा बँटा सकते हैं और पिता पुत्रों की सम्मति के बिना पैतृक संपत्ति के किसी अंश का दान, विक्रय आदि नहीं कर सकता। पिता के मरने पर पुत्र जो पैतृक संपत्ति का अधिकारी होता है वह हिस्सेदार के रूप में होता है, उत्तराधिकारी के रूप में नहीं। मिताक्षरा पुत्र का उत्तराधिकार केवल पिता की निज की पैदा की हुई संपत्ति में मानती है। दायभाग पूर्व स्वामी के स्वत्वविनाश (मृत, पतित या संन्यासी होने के कारण) के उपरांत उत्तराधिकारियों के स्वत्व की उत्पत्ति मानता है। उसके अनुसार जब तक पिता जीवित है तब तक पैतृक संपत्ति पर उसका पूरा अधिकार है; वह उसे जो चाहे सो कर सकता है। पुत्रों के स्वत्व की उत्पत्ति पिता के मरने आदि पर ही होती है। यद्यपि याज्ञवल्क्य के इस श्लोक में
भूर्या पितामहोपात्त निबंधी द्रव्यमेव वा। तत्र स्यात् सदृशं स्वाम्यं पितुः पुत्रस्य चोभचोः।।
पिता पुत्र का समान अधिकार स्पष्ट कहा गया है तथापि जीमूतवाहन ने इस श्लोक से खींच तानकर यह भाव निकाला है कि पुत्रों के स्वत्व की उत्पत्ति उनके जन्मकाल से नहीं, बल्कि पिता के मृत्युकाल से होती है।"
'अब समानता एवं एकरूपता की धारा उत्तराधिकार में प्रवाहित है। पैतृक या स्वगृहीत संपत्ति में लड़का, लड़की, विधवा तथा माँ का अधिकार एवं भाग समान हो गया है। स्त्री के संपत्ति संबंधी सीमित अधिकार को पूर्ण एवं असीमित रूप प्रदान कर दिया गया है।'
खैर, ये बातें तो आज भी चलती रहती हैं और आपस में मामला नहीं सुलझा तो, मारपीट भी होती है और अदालत तक बात जाने की नौबत भी आ जाती है. पर, ये बातें तभी होती हैं, जब आधारभूत ज्ञान की कमी होती है, इसी उद्देश्य से इन प्राथमिक बातों को माननीय पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास किया गया है!
आएं हम इसका लाभ उठायें!
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- योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे. पी. मिश्र),
अर्थमंत्री-सह-कार्यक्रम संयोजक, बिहार-हिन्दी- साहित्य-सम्मेलन, पटना 800003.
निवास: मीनालय, केसरीनगर, पटना 800024.