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राजमाता दुःशला


राजमाता दुःशला

लेखक श्री मनोज कुमार मिश्र, मुख्य प्रबंधक, इंडियन बैंक।

राजमाता की जय हो, द्वार पर एक प्रहरी खड़ा है, कुछ अत्यावश्यक सूचना लाया है - सेविका ने राजमाता दुःशला को आकर सूचना दी। महाभारत का युद्ध समाप्त हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए थे। जयद्रथ के वध के उपरांत दुःशला वापस अपने राज्य सिंधु लौट आयी थी। कभी 105 भाइयों की इकलौती लाडली बहन रही दुःशला आज पूरे विश्व मे अपने को असहाय महसूस कर रही थी। उसका जीवन विवाह के उपरांत पूरी तरह से बदल गया था। कभी जो फूलों की कली की तरह नाजुक सी बहना थी, आने पिता और माता यहां तक कि पांडवों की भी लाडली थी।  दुर्योधन ने उसका विवाह जयद्रथ के साथ करवा दिया था।  इस विवाह के पीछे उसकी सोच अपने साम्राज्य की पश्चिमी सीमाओं को सुदृढ़ करना था। जयद्रथ हस्तिनापुर के पश्चिम भूभाग में सिंधु और सौवीर राज्य का स्वामी था। अपने समय के महारथियों में उसकी गणना होती थी। अपार बलशाली और भगवान शिव का उपासक था। उसके पिता वृद्धक्षत्र भी अनन्य शिवभक्त थे और जयद्रथ को राज्य सौंप कर वन प्रस्थान कर गए थे। उनके एक मात्र पुत्र होने के नाते दुःशला अपार ऐश्वर्य की स्वामिनी थी। एक पिता और भाई के लिए इससे बढ़कर क्या हो सकता था। पर जयद्रथ में एक दोष भी था, स्त्रियों के प्रति उसका लोलुप स्वभाव। चरित्र का वह थोड़ा कमजोर व्यक्ति था पर उस समय राजाओं में ऐसी प्रवृत्ति होना कोई बड़ी बात न थी। दुर्योधन के भय से उसने बहु विवाह तो नहीं किया था पर उसके व्यभिचार की खबरें दुःशला तक आती रहती थी। भिज्ञ तो दुर्योधन भी था पर वह इसे राजा का अधिकार समझ कर अनदेखा करता रहता था। फिर आयी वो अशुभ घड़ी जब द्रौपदी के वन में होने का फायदा उठाकर उसने उसे अपहृत करना चाहा। सकल कौरव सेना मिलकर भी उसे अर्जुन भीम के क्रोध से नहीं बचा सकीं। उसका सिर मूँड़ कर उसे घुमाया गया और सिर्फ दुःशला का पति होने के कारण जीवित छोड़ दिया गया। दुःशला के लिए इससे बड़ा अपमान कोई न था उसके शर्म की कोई सीमा भी न थी कि उसके पति ने उसकी भाभी के साथ दुष्कर्म की चेष्टा की थी। महाभारत का युद्ध और जयद्रथ का वध उसकी आँखों मे कौंध गया। क्या वो वर्तमान के इतिहास बनने से पूर्व ही इसकी पुनरावृत्ति का शिकार हो जाएगी। कुरुक्षेत्र के युद्ध समाप्त होने पर वो सिंधु प्रदेश लौट आयी थी तथा अपने पुत्र सुरथ को राज्यभार सौंप दिया था। सुरथ के लिए यह सब बड़ा अनमयस्क कार्य था। उसका विवाह हुए कुछ ही साल बीते थे। एक पुत्र का पिता भी था। फिर भी गाम्भीर्य से उसका नाता न था। अतः राजमाता दुःशला को याद कदा उसकी राज कार्य मे मदद करनी पड़ती थी। वह समझ रही थी कि शायद कुछ दुश्कर राज कार्य है जिसके लिए उससे सहायता मांगी जा रही थी।

सेविका ने पुनः प्रयास किया - राजमाता प्रहरी आपकी प्रतीक्षा में है।
अच्छा, बुलाओ उसे।
क्या संवाद है, प्रहरी।

राजमाता के चरणों में अभिवादन स्वीकार हो - प्रहरी ने  सर झुका कर अभिवादन किया। राजमाता सिंधु प्रदेश की सीमाओं पर हस्तिनापुर का ध्वज लिए अश्व घूम रहा है, उसकी रक्षा में महावीर अर्जुन और महाबली भीम सन्नद्ध हैं। पता नहीं उनका आशय क्या है। महाराज को सूचना दे दी गई है। शायद वे सिंधु प्रदेश पर हस्तिनापुर का अधिकार चाहते हैं।

ठीक है तुम प्रस्थान करो और सेनापति को सेना सुसज्ज करने का संदेश दो- दुःशला ने राज सभा की ओर अपने कदम बढ़ाते हुए आज्ञा दी।
सैनिक अभिवादन कर प्रस्थान कर गया।

तब तक एक अन्य परिचारिका ने, भागती हुए, राजमाता के भवन में प्रवेश किया। राजमाता राजमाता अनर्थ हो गया, महाराज सीमा पर शत्रु की बात सुनकर मूर्क्षित हो गए हैं। मन ही मन दुःशला ने अपने भाग्य को कोसा। उनकी चिकित्सा का क्या प्रबन्ध किया गया है- दुःशला का मन संताप के साथ क्रोध से भी भरा हुआ था। तभी राज वैद्य ने समीप आकर वो समाचार दिया जो किसी माता के लिए संसार के अंत जैसा था। राजा सुरथ की भय से मृत्यु हो गई थी। राजमाता के शोक का पारावार न रहा। बड़ी दुविधा की घड़ी थी एक ओर पुत्र शोक और दूसरी ओर राज्य पर संकट। निर्णय कठिन था। विधना सचमुच विपरीत दिख रहे थे। है प्रभु अभी ही पांडवों को उसका राज्य हड़पने की आवशकता हुई? क्या अपनी बहन को भी वे इस दुख की घड़ी में और दुख देना चाहते हैं।  दुःशला क्षत्राणी थी, युद्ध, मृत्यु, विजय पराजय उसने अपने जीवन भर यही तो देखा था। अगर ऐसा है तो सिंधु देश लड़ेगा और अपनी सीमाओंकी रक्षा में अपने प्राणों का उत्सर्ग करेगा। उसने कवच शिरस्त्राण धारण किया और अपने लिए रथ मंगवाया। सुरथ अब जीवित न था और युद्ध मे स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था अतः उसने सुरथ के पुत्र को साथ ले लिया। अब राज सभा जाने का कोई अर्थ न था। उसने सेनापति को बुलवाया और मंत्रणा की।

हस्तिनापुर का प्रतिकार पूरे बल से किया जाएगा राजमाता - सेनापति ने आश्वस्त किया। सीमा पर दुःशला का रथ पहुंच रहा था।पीछे पीछे सिंधु देश की सेनाएं धूल उड़ाती आ रही थीं। अपने रथ पर विराजमान अर्जुन ने जब सिंधु की सेना देखी को बड़े विस्मय में पड़ गए। भीम के क्रोध का पुनः ठिकाना न था। उसने अनुज की ओर प्रश्नवाचक नज़रों से देखा। अर्जुन ने अग्रज को आश्वस्त किया और पैदल ही रथ की ओर बढ़ गए। अर्जुन को यूं आते देख दुःशला का मन थोड़ा आश्वस्त हुआ। उसने रथ रोक दिया, उसे ज्ञात था कि अर्जुन कभी अपनी ओर से वार नहीं करता है। वह भी अपने पौत्र को गोद में लेकर अर्जुन की ओर बढ़ चली। कैसे आना हुआ भ्राता? क्या सिन्धु देश पर अधिकार की कामना है? संज्ञान रहे कि सिंधु की राजमाता अभी भी अपने देश की रक्षा करने या अपने प्राणों का उत्सर्ग करने में सक्षम है। अर्जुन का मन कातर हो उठा। नहीं दुःशला मैं तो मैत्री का संदेश ले उपस्थित हूँ। यह महाराजा युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का अश्व है और तुम्हे आश्वस्त करता है कि सिंधु प्रदेश अगर हस्तिनापुर की सुरक्षा स्वीकार कर ले तो दोनों देशों का इससे कल्याण होगा। अनायास ही अर्जुन के हाथ दुःशला के गोद के उस बालक की ओर बढ़ गए। बालक थोड़ा झिझका पर पितामही का इशारा पाकर सहर्ष अर्जुन के पास आ गया।

दुःशला भ्राता भीम और अर्जुन के साथ राजसभा पहुंचीं। वहां का दृश्य देखकर दोनों भाइयों की आंखें नम हो गईं। दोनों ने कुछ दिन रुक कर बाल नरेश का राजतिलक किया और अपने गंतव्य को रवाना हो गए। दुःशला ने एक उच्छवास भरी और अपने भवन को प्रस्थान कर गयी।