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जब जर्मनी इसाई होने पर लजाता नहीं है, तो भारत क्यों, अपनी हिंदू विरासत पर लजाता है?

जब जर्मनी इसाई होने पर लजाता नहीं हैतो भारत क्योंअपनी हिंदू विरासत (पर लजाता हैनकारता है?

(इस लेख को हमने २०१५ के दिव्य रश्मि में प्रकाशित किया था )
जब बहुसंख्य भारतीय हिंदु ही हैं। और भारत का विश्व में, विशेष सम्मानइसी लिए है,क्यों कि, भारत प्राचीन हिंदु परम्पराओं का  देश है। पश्चिमी देशवासियों का  भारत के प्रति आकर्षण इसी विशेषता के कारण हैं।
फिर क्यों, हिंदु मूल्यों को स्वीकार करने में भारत में ही विरोध है? आगे वें कहती है, कि, उन्हें यह वृत्ति दो कारणों से, बडी अचरज-भरी  लगती है।
()पहले, इन पढे लिखे भारतीयों को केवल हिंदु-भारतइस पहचान से ही समस्या है,
() पर अन्य देश जो, अपने आप को मुस्लिम या इसाई कहलाते हैं, उन देशों से कोई समस्या नहीं है।
बडा अचरज है।

एक ओर, पढे लिखे भारतीय अस्वस्थ हो जाते हैं, जब भारत को हिंदु राष्ट्र (उनका शब्द  Hindu Country) माना जाता है; पर जब जर्मनी को इसाई देश कहा जाता है तो जर्मन नागरिक अस्वस्थ नहीं होता।
वैसे, जर्मनी में केवल ५९ % -(59%)जनसंख्या ही कॅथोलिक और प्रोटेस्टंट चर्चों की सदस्य है, पर जर्मनी फिर भी क्रिश्चियन देशमाना जाता है।
समाचार पत्रों में छपा है, कि, जर्मन चान्सलर ( जो,प्रधान मन्त्री जैसा, सर्वोपरि पद है) ऍन्जेला मर्केल ने, जर्मनी के ईसाइयत मूल्यों पर भार देकर, जर्मन  प्रजा को अपने  ईसाइयत के मूल्यों पर टिके रहने के लिए ही, प्रोत्साहित किया था।
यहाँ तक, कि, २०१२ में उसने अपना G-8 की  शिखर बैठक पर जाने का प्रवास भी विलम्बित कर दिया था।कारण था, जर्मन कॅथोलिक दिनपर उनका आयोजित भाषण। ऐसे, जर्मन कॅथोलिक दिन के उनके भाषण के कारण उन्हें प्रवास भी विलम्बित करना पडा था।

जर्मनी के, दोनो प्रमुख विरोधी राजनैतिक पक्षों के नाम में भी,  “क्रिश्चियन”  शब्द का समावेश किया गया है। ऐसे नाम से, भी, और, जर्मनी को जब इसाई देश कहा जाता है उससे भी, जर्मन नागरिक अस्वस्थ नहीं होता।
वास्तव में यदि जर्मन नागरिक क्रिश्चियनिटीके नाम से अस्वस्थ होता, तो बात समझ में अवश्य आती।
क्यों कि जर्मनी का इसाइयत का, इतिहास   रक्तरंजित  घटनाओं से, और आतंक से भरा पडा है।और बहुत भय फैलानेवाला रहा है।
इसाइयत की तथाकथित विजय-गाथानिरंकुशता  और भयंकर क्रूरता से भरी पडी  है।

१२०० वर्ष पूर्व, महान(?)जर्मन सम्राट, कार्ल ने  कडी आज्ञा दी थी, कि या तो इसाइयत स्वीकारो, या, मरने के लिए तैय्यार रहो।
दूसरी ओर,जाना जा सकता है।
कि, आज पश्चिमी जनता बडी संख्या में, चर्च छोड रही हैंकारण है, चर्च-पुरोहितों का चारित्रिक पतन।
वें इस  “चर्च -पुरोहितों के  चारित्र्यिक पतनसे श्रद्धाहीन होकर ही, चर्च छोड रहें हैं।
साथ में, “इशु के सिवा आपको कोई बचा नहीं सकता,” इस पर भी उनका विश्वास नहीं है।
उसी भाँति, “इसु का अस्वीकार  करने पर, “गॉड आप को नर्क में भेजेगा।इस पर से भी उनका विश्वास हट रहा है।

आगे कहती है, “पर आपका हिंदु धर्म ऐसे अब्राहमिक धर्मों से बिलकुल अलग है।
हिंदू धर्म का इतिहास, इसाइयत और इस्लाम से निःसन्देह बिलकुल अलग है। वह निम्नतम हिंसक है। उसका प्रसार और प्रचार तर्क के आधार पर हुआ है।छल, बल, कपट और रक्तरंजित अत्याचारों के प्रयोग से नहीं।
वह अंध-श्रद्धा की माँग, और अपनी बुद्धि को गिरवी रखने की माँग भी नहीं करता।
उलटे हिंदु-मत आप की बुद्धि के अधिकतम उपयोग को प्रोत्साहित करता है।
इसलिए, “उपनिषदों को जब मैं ने खोजा, तो मेरे आश्चर्य का पार न था।
सामान्य भारतीय को पता ही नहीं है, कि, “भारत का लाभ ही होगा, घाटा तो बिलकुल नहीं, यदि, वह अपनी अतल सर्वसमन्वयी हिंदू परम्परा को अपनाता है।इसी लिए, श्री दलाई लामा नें कुछ समय पहले,ल्हासा मे युवाओं के सामने भाषण में कहा था, कि वें भारतीय विचार प्रणाली से गहरे पभावित हैं।
उन्हों ने ने कहा था कि, “भारत के पास संसार को दिशा देने की भी क्षमता है।
“India has great potential to help the world,” he had added.
कब पश्चिम प्रभावित भ्रांत भारतीय इसे समझ पाएगा?
सारे संसार में यह विशेषता है केवल भारतकी है।पर साम्प्रत उस भारत का भी र्‍हास हो रहा है। उसीका र्‍हास है पाकिस्तान। उसीका र्‍हास है बंगलादेश। उसी परम्परा का र्‍हास है, पण्डितों का कश्मिर से खदेडे जाना। उसीका र्‍हास है, सारे बृहत्तर भारत की शासन द्वारा उपेक्षा।

विवेकानंद जी  कहते हैं, “सारा  विश्व हमारी मातृभूमि भारत का अत्यंत ऋणी है। और आगे कहते हैं, कि, विश्व के देशों के विषय में यदि आप सोचें, और एक के बाद एक प्रत्येक देश के इतिहास को देखते चलें,तो पाएंगे, कि, ऐसा कोई देश या संस्कृति नहीं है, जिस पर भारत नें उपकार न किए हो, और जो भारत का ऋणी न हो।
आज भी संसार भर में प्रयोजे जाते अंक हिंदू अंक है।जिनके बिना अब माना जाता है, कि, साम्प्रत विज्ञान का अस्तित्व भी  न होता—-लेखक।
उसी प्रकार सर्व विश्रुत संगणकों के मूलमें भी भारतीय पाणिनि का व्याकरण है। एक हज़ार वर्ष की दासता के उपरांत भी, यदि ऐसा योगदान हम कर पाए, तो त्रैराशिकी  चिंतन से बताइए, कि, यदि हमारे गत हज़ार वर्ष के इतिहास पर काली कराल छाया ना फैली होती, तो हम क्या क्या अनहोना योगदान दे पातें? परतंत्रता में इतना योगदान हो पाया, तो यदि हम स्वतंत्र होते, तो कैसा गगन चुम्बी योगदान दे पाते?

आप के ही आतिथ्य से और आपसे  ही भीख माँगकर  जो, तलवार खरीदता है, और आप के ही, धन से खरीदी हुयी उ्सी तलवार से  आप का ही माथा धड से अलग करता है, उस को आप किस नाम से पुकारोगे? शब्द कोश में इस गुण के लिए  अभी तक शब्द नहीं है। उसे कृतघ्न कहना भी कृतघ्न शब्दका अपमान होगा।
पर हिंदू सौम्य है, शालीन है, सज्जन है। एक ही आशा से कि इस तलवारबाज़ को भी कभी उसीका अपना इतिहास जानने पर समझ आ आएगी।
इसी आशासे उस तलवारबाज को भी वह समानता का चोला पहना देता है। यह सोचकर कि सामान्य बुद्धि सज्जनों को भी सूर्य प्रकाश जैसा यह सत्य कभी तो समझ  आ ही जाएगा।

कुटुम्ब संस्था की समाप्ति ही, यूनान और रोम की संस्कृतियाँ मिटाने का एक मूल (?) कारण माना जाता है। यदि हम भी उसी मार्ग पर चले तो फिर हमारा नामो-निशां भी अवश्य मिट जाएगा। 
आज-कल भारत में, बलात्कार के समाचार कुछ अधिक पढ रहा हूँ, इसलिए, विचारकों और हितैषियों के समक्ष अमरिका के इतिहास की निम्न वास्तविकताएँ लाना अत्योचित समझता हूँ।

विचार के लिए सामग्री।
(१) अमरिका में संयुक्त कुटुंब होता ही नहीं है। शायद पहले भी कभी नहीं था। इस लिए  कोई कोई अमरिकन, यदि  भारतीय संयुक्त कुटुंब, देखता है, तो उसे, कुटुम्ब के सदस्यों के आपसी संबंधो पर अनैतिकता का, सन्देह होने लगता है। क्यों कि वे उनकी अपनी जानकारी और मानसिकता को हम पर भी आरोपित करते हैं। और सभी अमरिकनों को हमारी संस्कृति के विषय में जानकारी भी नहीं होती।
वैसे, वैयक्तिक अनुभव के आधार पर ही प्रत्येक व्यक्ति की, समझदारी भी हुआ करती है।
(२) हमें टिकाया है, हमारी परम्पराओं ने, पर आज हम अपनी ही परम्पराओं से मुँह मोड रहे हैं। इसका दूरगामी विषैला परिणाम भारत-हितैषियों के सामने रखना चाहता हूँ। इस उद्देश्य से यह आलेख।
परम्परा टिकाने से हम टिक जाते हैं। धर्मोऽ रक्षति रक्षितः का ऐसा भी अर्थ किया जा सकता है।
और परम्परा तोडकर हम नहीं रह पाएंगे।

परम्परा एक प्रबल प्रवाह 
परम्परा एक प्रबल प्रवाह या आँधी की भाँति ही होती है। भाग्य है हमारा कि हमारी विशुद्ध  परम्पराओं ने हमारी आज तक रक्षा ही की है। पर आज जिस परम्परा के विषय में मैं लिखना चाहता हूँ, वह हमारी परम्परा नहीं है। पर भारत भी धीरे धीरे उसी मार्ग को अपना रहा है।  इस मार्ग में फिसलन है, फिसला तो जा सकता  है, फिर वापस उठा नहीं जा सकता।  इस सिंह की गुफा में सारे पदचिह्न अंदर जाते ही दिख रहें हैं।

मैं डेटींग परम्परा की बात कर रहा हूँ।
जब आप डेटींग की परम्परा ही बना देते हैं, जैसी अमरिका में बनी हुयी है; तो सारा समाज उसी प्रकार व्यवहार करता है। आप कुछ ही व्यक्तियों को समझाकर सारे समाज की दिशा मोड नहीं सकते।
जैसे, जहाँ सभी गाडियाँ दाहिनी ओर, चली हो, वहाँ आपकी गाडी बायीं ओर कब तक चलेगी? चलेगी तो टकरा जायेगी। परम्परा ऐसी ही प्रबल होती है।

अमरिका का ऐतिहासिक अवलोकन
७० के दशक के पहले से ही, यहाँ, डेटींग प्रणाली प्रारंभ हो चुकी थी। उस समय कुछ ७० % लोग विवाहित हुआ करते थे। यहाँ शुक्रवार की रात्रि डेटींग की रात्रि मानी जाती है। यहाँ का मोटेल व्यवसाय इसी कारण पनप रहा (है) था। जिस में शुक्रवार की रात्रि एक कमरा किराए पर लिया जाता है। और लडका लडकी अपनी संभोग वासना के वशीभूत आचरण करते हैं। यह है आधुनिक डेटींग प्रणाली।

अमरिका देश कैसे  इस अवस्था तक पहुंचा ?
प्रारंभ कुछ स्वतंत्रता के मनमोहक और  उत्तेजक विचारों से ही हुआ होगा।
यहाँ पर संयम की बात तो प्रायः है ही नहीं।
संयम, व्यक्ति का स्वयं का स्वयं पर नियंत्रण लाता है।
हमारा पर-स्त्री मातृसमानका आदर्श हर कोई शायद मानता नहीं है, पर, फिर भी यही आदर्श  संयम को परिपुष्ट करता है। और समाज को एक नैतिकता का आदर्श भी अवश्य देता है। जानता हूँ, कि, हर कोई इस आदर्श को शायद मानता भी नहीं है, पर फिर भी संदर्भ में होने के कारण निकष तो माना ही जाता  है। और ऐसा आदर्श दुराचार की संभावना में भी कमी अवश्य लाता है। कुछ दुराचार जो हो रहा है, वह हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को त्यजने की आधुनिक प्रगतिवादी सोचका परिणाम है।
संयम और विधि- नियम (कानून)
संयम नीतिमत्ता से संचालित होता है और  विधि-नियम (कानून)  दण्ड के डर से।
इस लिए, दोनों की, सफलता में गुणवत्ता का, और मात्रा का भी बहुत बडा अंतर होता है।
संयम नियम की अपेक्षा अधिक  सफल होता है। और हमारी संस्कृति संयम पर भार देती है। नियम भी होते हैं, उनके लिए, जो संयम से संस्कारित नहीं है। कुछ प्रतिशत तो ऐसे होते ही है।
जहाँ नियम बाह्य(बाहर से) अंकुश लाता है; आंतरिक अंकुश नहीं ला सकता। जब तक विधि नियम (कानून) तोडे नहीं जाते, तब तक सभी स्वीकार्य होता है। इस कारण विधि-नियमों के अनुसार  जीने वाले, जो भी किया जा सकता है, उसकी मर्यादा खोजते  है। और व्यवहार में, उस मर्यादा तक पहुंच जाते  है। उसी मर्यादा का पालन करने पर अपने आपको नीतिमान भी मान लेते हैं। पकडे गये तो दोषी, नहीं तो नीतिमान।अपने  मन से ही स्वयं-स्वीकृत नीति नहीं होती।
पश्चिम में, अधिकतर लोग विधि-नियमों (दण्ड) का नियंत्रण मान कर चलते है।
इस लिए पश्चिम का समाज नियमों से चलता अवश्य है। पर उसको नियंत्रण में रखने के लिए दण्ड शक्ति की आवश्यकता होती है।
दुर्भाग्य है, कि, हमारे भारत में ऐसी सडन प्रारंभ हो चुकी है।
आजकल समाचारों में जो प्रतिबिम्बित हो रहा है, उससे लगता है, कि, हम इसी मार्ग पर अग्रसर होते जा रहे हैं; उसी का प्रारंभ कर चुके हैं। यह प्रक्रिया वर्धमान हुआ करती है; घटती नहीं, जैसे कॅन्सर।

देश के कर्णधार यदि इस पर ध्यान नहीं देंगे, तो यह नयी भोग परम्परा धीरे धीरे वृद्धि करती ही चलेगी। और देश को पूरा निगलने की शक्ति रखती है।
जैसा अमरिका में हो चुका है। 
लडकी डेटींग में अपने शील की बलि देती है, विशेषतः इसी  आशा से कि उसके कारण उसका विवाह होने में सहायता होगी।  प्रारंभ में ऐसा ही होता भी था। पर धीरे धीरे लडके (लडकियाँ नहीं)  इस प्रथा का लाभ लेकर, वासना की पूर्ति करने लगे। बढते बढते अमरिकन ने, छात्रों के परामर्शक होने के कारण जाना, कि कॉलेज के छात्र डेटींग से विविधता का आनंद लेना तो चाहते हैं, पर विवाह से बचना भी चाहते हैं। यहाँ की बहुतेरी लडकियाँ भी यह जानती तो है; पर कोई उपाय नहीं है। जो भी, अधूरी  ही परम्परा थी, खो दी गयी है।

और आज बहुसंख्य लडके इसी का लाभ उठाकर भोग विलास तो चाहते हैं, पर कुटुम्ब के पालन पोषण का उत्तरदायित्व नहीं लेना चाहते। तो विवाह बिलकुल नहीं चाहते। जो विवाह होते हैं, उनका प्रमाण दिनोदिन घट रहा है। बहुत सारे विवाह-विच्छेद भी होते हैं।
भोग केंद्रित जीवन में, अमरिकन अपने संतानों की देखभाल कम करते  हैं।और इस लिए, विच्छेदित परिवारों के बच्चे अनेक मानसिक समस्याओं से ग्रस्त होते हैं।
इसका लाभ पहली पीढी के, भारतीय बच्चों को होता अवश्य है। प्रतिस्पर्धी छात्रों की अपेक्षा हमारे बच्चे पढाई में अच्छा प्रदर्शन करते हैं।

विवाह में, आध्यात्मिक प्रेरणा नहीं?
पश्चिम नें, विवाह को धार्मिक संस्कारतो पहले भी माना नहीं था।और आज भी उसे वैसा कोई मानता नहीं। एक संविदा (कोन्ट्रॅक्ट) ही माना जाता है। जब कुएँ में ही नहीं, तो गागर में कहाँ से आएगा?

इस लिए विवाह के पीछे आध्यात्मिक प्रेरणा भी नहीं है।
गुजरात में मेरी जानकारी होने से कहता हूँ, कि, विवाह को प्रभुता (आध्यात्म )में आगे बढने की सीढी़ समझा जाता है। प्रेम शारीरिक से प्रारंभ अवश्य होता है, पर फिर मानसिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक ऐसे सीढी दर सीढी चढते जाने का आदर्श समझा जाता है। प्रेम का ऊर्ध्वगमन होना चाहिए।
असंभव 
महिलाओं ने यहाँपर अपना शील खोकर जिस प्रकार नीलामी में अपने को उतारा है, उसे सुधारना असंभव है। प्राणी ही केवल आहार निद्रा भय और मैथुन की पूर्ति में सारा जीवन बिता देता हैं।बालक मिठाई खाने ही ललचाता है। पर संज्ञानी होनेपर उसका विवेक जाग्रत होता है, और उसकी सोच भी बदल जाती है।  पर इस समझ के लिए बालक को कुछ अनुभव लेकर सयाना होना पडता है, विवेक जगाना पडता है।

कुछ रोग कॅन्सर जैसे  होते हैं। कहते है, कि, किसी व्यक्ति के सोते सोते उसका प्राणवायु धीमे धीमे घटाया जाए, तो वह नींद में ही प्राण त्याग जाता है। उसको जगाए बिना ही, बहुत शांति  से उसकी मृत्यु आप करवा सकते हैं।
अमरिकामें क्या हुआ?
कुछ वृत्तान्त को पढने से, ७०-८० के दशक से स्पष्ट दिख रहा है, कि, विवाहितों की संख्या सतत घट रही है।

व्यक्ति स्वातंत्र्य के लुभावने नाम तले, स्वच्छंदता और स्वैराचार की बढत ही हो रही है। इसी के साथसंभोग की सहज  उपलब्धि, और शुक्रवार रात्रि की परम्परित डेटींग (हिंदी में अनुवाद, नहीं करूंगा।) ऐसे अनेक कारण हैं इसके। शराब भी इसी में अपना योग देती है।
ऐसी सामाजिक समस्याओं के, यहाँ के बुद्धिमान शोधकर्ता भी हर प्रकार के, अन्य कारण गिनाते हैं, पर सीधा सीधा स्पष्ट कारण उन्हें सचमुच दिखाई नहीं देता।  शायद उन्हें, उनकी वैचारिक चौखट के बाहर होकर देखने की आदत नहीं है। उन्हों ने पतंजलि को भी आत्मसात जब किया नहीं है, तो, अपनी समस्त पहचान से ऊपर उठकर सोचने की क्षमता उनमें कुछ ही लोगों में देखता हूँ।
ऐसा सस्ता संभोग कैसे हुआ?
पहले ऐसा नहीं था। पर युवा और युवतियों का मिलन पहले स्वीकार हुआ। युवतियाँ कठोरता से अपने शील-चारित्र्यको सुरक्षित रखते हुए, मित्रता ही बढाती थीं; ऐसा अनुमान करने के आंकडे भी है।कल्चर यहाँ का, वैसे परम्परा में, गहरे उतरा हुआ तो पहले भी था नहीं, उथला कल्चर (संस्कृति नहीं ) ही था।
निम्नतम कल्चर केवल दैहिक आधारशिला पर टिकता है।उससे ऊंचा भौतिकता पर। ऊससे  कुछ ऊंचा मानसिकता, और बौद्धिकता पर। और सबसे ऊंचा आध्यात्मिकता पर ही टिक सकता है, तब उसे संस्कृति कहा जा सकता है।  संस्कार के साथ संस्कृति जुडी हुयी है,और विकार के साथ विकृति। विकृति को संस्कृति नहीं कहा जा सकता, तो यह विकृति ही मानी जाएगी।

इसी लिए भारत उसकी  संस्कृति जो आध्यात्मिक है, उसीसे ही टिकेगा, जिएगा, और चमकेगा।यही हमारे अस्तित्व का पवित्र ईश्वरी उद्देश्य है।
हफ़्फ़ींग्टन पोस्ट 
हफ़्फ़ींग्टन पोस्ट का समाचार है।  “अमरिका में, विवाह  का प्रमाण लगातार घट रहा है।

१८ से अधिक आयु के आधे अमरिकन ही विवाहित हैं। ये आंकडे है, “प्यु रिसर्च इन्स्टिट्यूटके एक नवीन वृत्तान्त  के अनुसार।
वर्ष(२००९) की अपेक्षा (२०१०) में विवाहित युगलों की संख्या में ५ प्रतिशत घटना ,चौंकानेवाला है। उद्धरण –>
We looked at how many adults are currently married — among people over 18, how many of them have a spouse — and we found that barely half of all adults now are married. That’s declined quite a bit from the past. In 2010, again it was barely half — 51 percent — in 1960, it was 72 percent.
The number of couples married in 2010 dropped a startling 5 percent from the previous year, and the overall number of married couples has declined by more than 20 percentage points since 1960.
बिना उत्तरदायित्व संभोग
युवाओं को बिना उत्तरदायित्व संभोग उपलब्ध हो तो कौन मूर्ख विवाह करेगा?
युवतियाँ विवाह की आकांक्षा से ही डेटींग में समर्पण करती है, और युवा उसीका लाभ उठाकर वासना पूर्ति कर लेता है। महिलाओं के सामने बोलते हुए, जब मैं ने कहा, कि आप अपने शील की बलि ना चढाएं, तो महिला का प्रतिप्रश्न था, कि, तो और महिलाएं ऐसा कर के, स्पर्धा में सफल हो जाती है। तो क्या करें? आप उपाय बताएं। क्या उपाय बताऊं? मैं भी हतप्रभ ही हूँ।
इस लिए भारत जागे  —”परम्परा बचाना सरल है, टूटने के पश्चात पुनर्स्थापन करना असंभव है।
परम्परा अविकृत रखें, अक्षुण्ण रखें। देशके कर्णधार परम्परा को बचाए रखें यही  उपाय है।

जब महिलाएं शील-समर्पण नहीं करेगी। और विवाह के पश्चात ही संभोग स्वीकार करेंगी।
तो विवाह एक प्रेरणादायक  रूप में परम्परा में  स्थिर बना रहेगा, जो शतियों से रहा है। भारत की संस्कृति अजेय है। यह एक कारण भी है।
कुटुम्ब संस्था की समाप्ति ही, यूनान और रोम की संस्कृतियाँ मिटाने का एक मूल (?) कारण माना जाता है।
यदि हम भी उसी मार्ग पर चले तो फिर हमारा नामोऽनिशां भी अवश्य मिट जाएगा।

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