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गंगा-जयंती


गंगा-जयंती

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे पी. मिश्र)

आज गंगा सप्तमी है और इसे गंगा-जयन्ती के रूप में मनाया जाता है। गंगा के उद्भव के बारे में यह कहा जाता है कि यह मानसरोवर, गोमुख से निकली है और हिमालय क्षेत्र के वन-प्रांत से होकर समतल में ऋषिकेश और फिर हरिद्वार आई है। हरिद्वार शहर के ठीक पहले गंगा पर एक बराज बनाकर नहर के द्वारा इसे हरिद्वार तीर्थ क्षेत्र में लाया गया, जिसे हर की पौड़ी कहते हैं। उसके बाद इसके पावन जल को नहरों के द्वारा दूर-दूर तक खेतों की सिंचाई के लिए ले जाया गया है।
हरिद्वार के बाद जब गंगा आगे बढ़ती है तो नरौरा
होकर गुजरने के क्रम पर इस पर एक और बांध बनाकर उसके जल को रोककर एटेमिक इनर्जी का उत्पादन यहां किया जाता है। फलत: क्षीण होकर गंगा आगे बढ़ती है और बंगाल के मालदह के पास फरक्का डैम के नाम से इसे फिर बांधा जाता है, ताकि बंगलादेश को पर्याप्त पानी मिल सके। गंगाजल का उपयोग भले फिर सिंचाई के लिए भी होता हो, पर गंगा के बंध जाने से इसका प्रवाह रुक जाता है और दूर-दूर से बहकर आयी गाद गंगा की तलहटी में बैठ जाती है और वर्षा का पानी अधिक हो जाने पर प्रलयंकारी बाढ़ का रूप ले यह अपने कोरों को दूर-दूर तक डुबाने लगती है। पतित पावनी कही जानेवाली यह गंगा विनाशिनी भी बन जाती है।
खैर, बंगलादेश के बाद फिर महानदी के रूप में यह गंगासागर में जाकर समुद्र में मिल जाती है।
वैसे गंगा की कहानी तो यही लगती है, पर इसे धार्मिक परिधान भी संभवत: पहना दिया गया है।

जैसे, गंगा स्वर्ग से उतरी और शिव की जटा में समा गई। जहां से शिव ने अपनी जटा चीर कर इसे धरती पर गिरा दिया और फिर राजा सगर के 60 हजार पुत्रों ने कठिन तपस्या कर इसे समतल पर लाकर गंगासागर में मिला दिया। कथा के इस भाग के विश्लेषण से हम इस बात को यों देखें कि स्वर्ग से उतरी गंगा हिमालय स्थित गोमुख होकर मानसरोवर आयी और आगे वन-प्रांतर में उलझकर रह गयी, जिसे महादेव की जटा का रूप माना गया, जहाँ से राजा सगर के 60 हजार पुत्रों अर्थात् श्रमिकों ने अनवरत परिश्रम या तपस्या कर, उनके लिए रास्ता बनाकर उन्हें जाह्नु ऋषि के आश्रम तक, संभवत:आज के सुल्तान गंज तक, लाया; जहाँ रास्ते में आश्रम पड़ने से जाह्नु ऋषि ने कार्य को रोक दिया, पर बातचीत से इसका हल निकाल कर गंगा को आगे बढ़ाया और अंततः गंगासागर में समुद्र में मिला दिया।

धार्मिक दृष्टकोण
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गंगा सप्तमी का दिन महत्वपूर्ण होता है। इस दिन गंगा जी में स्नान करना शुभ माना जाता है। गंगा सप्तमी के दिन मां गंगा की पूजा का विधान है। इस दिन गंगा मां की पूजा करने से समस्त पापों से मुक्ति मिलती है। इस बार यह पावन दिन आज, गुरुवार, 30 अप्रैल, 2020ई. को मनाया जा रहा है।
गंगा सप्तमी पर गंगा जी में स्नान का बहुत अधिक महत्व होता है, परंतु इस बार कोरोना वायरस के कारण संपूर्ण देश में लॅाकडाउन चल रहा है जिस वजह से इस बार गंगा जी में स्नान करना संभव नहीं है। इस बार घर में ही स्नान वाले जल में थोड़ा सा गंगा जल मिला कर स्नान कर सकते हैं और मां गंगा का ध्यान कर सखते हैं।
आज,  कुछ मंत्र का पाठ किया जा सकता है, जिनके जप से गंगा में स्नान के समान ही लाभ मिलता माना जाता है।  

ॐ नमो गंगायै विश्वरुपिणी नारायणी नमो नम:।।
अर्थ
गंगा मैया !! आप विश्वरुपिणी हो, नर नारायण स्वरूपा हो, गंगा मां आपको नमस्कार !!

गंगा सप्तमी के दिन पूजा के समय आप इस पावन मंत्र का जप कर सकते हैं। नित्य भी इस मंत्र का जप किया जा सकता है।

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु।।
अर्थ
हे गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी नदियो ! (मेरे स्नान करने के) इस जल में (आप सभी) पधारिए ।

इस पावन मंत्र का जप स्नान करने से पहले करना चाहिए।

गंगां वारि मनोहारि मुरारिचरणच्युतं ।
त्रिपुरारिशिरश्चारि पापहारि पुनातु मां ।।
अर्थ
गंगा जी का जल, जो मनोहारी है, विष्णु जी के श्रीचरणों से जिनका जन्म हुआ है, जो त्रिपुरारी के शीशपर विराजित हैं, जो पापहारिणी हैं, हे मां तू मुझे शुद्ध कर!

गंगा गंगेतियां यो ब्रूयात, योजनानाम् शतैरपि। मुच्यते सर्वपापेभ्यो, विष्णुलोके स गच्छति॥
अर्थ
जो मनुष्य सौ योजन दूर से भी गंगाजी का स्मरण करता है उसके सभी पाप दूर हो जाते हैं और वह विष्णु लोक को जाता है।

गंगा जयंती या गंगा सप्तमी एक महत्वपूर्ण दिन है जो देवी गंगा की पूजा करने के लिए समर्पित है। यह सबसे महत्वपूर्ण हिंदू त्योहारों में से एक है क्योंकि यह माना जाता है कि इस विशेष दिन पर गंगा का पृथ्वी पर पुनर्जन्म हुआ था या वह उत्पन्न हुई थी।
गंगा सप्तमी
हिंदू कैलेंडर के अनुसार, शुक्ल पक्ष के दौरान वैशाख के महीने में सातवें दिन (सप्तमी तिथि) को गंगा सप्तमी मनाई जाती है। ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार, यह दिन आज 30 अप्रैल को आया है। प्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, वाराणसी आदि विभिन्न पवित्र स्थानों पर, इस दिन का बहुत महत्व और इसकी प्रासंगिकता है।
गंगा सप्तमी के अनुष्ठान:
गंगा जयंती के शुभ दिन, भक्त सुबह जल्दी उठते हैं यानी सूर्योदय से पहले और पवित्र गंगा नदी में पवित्र स्नान करते हैं। भक्त गंगा देवी की पूजा और प्रार्थना करते हैं। फूल और माला देवी गंगा को अर्पित किया जाता है जो सामग्री नदी में तैरती रहती है।

भक्त देवी को जगाने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए गंगा आरती भी करते हैं।

विभिन्न घाटों पर गंगा आरती के लिए ज़बरदस्त तैयारियां की जाती हैं और सैकड़ों की संख्या में भक्त एक साथ दर्शन करने आते हैं।

इस विशेष दिन पर एक ख़ास 'दीपदान' की रस्म भी निभाई जाती है, जहां भक्त नदी में एक दीया डालते हैं, क्योंकि इसे अत्यधिक शुभ माना जाता है।

भक्त गायत्री मंत्र और गंगा सहस्रनाम स्तोत्रम् जैसे पवित्र मंत्रों का देवी गंगा की पूजा करने के लिए उच्चारण करते हैं।

गंगा सप्तमी का महत्व :
गंगा नदी को भारत में सबसे पवित्र और धार्मिक माना जाता है। गंगा सप्तमी को विशेष रूप से उन स्थानों पर बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है जहाँ गंगा नदी और उसकी सहायक नदियाँ बहती हैं। यह उन लोगों के लिए बहुत ही आशाजनक और महत्वपूर्ण दिन है जो देवी गंगा की पवित्रता में विश्वास करते हैं और पूरी श्रद्धा के साथ उनकी पूजा करते हैं।

किंवदंतियों और हिंदू धर्म के अनुसार, यह माना जाता है कि जो व्यक्ति गंगा में एक पवित्र डुबकी लगाते हैं, वे अपने सभी अतीत और वर्तमान पापों से छुटकारा पा लेते हैं।

यह भी माना जाता है कि पवित्र नदी के करीब अंतिम संस्कार करने से व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

मंगल के दुष्प्रभाव से प्रभावित होने वाले मूल-नक्षत्रवालों को देवी गंगा की पूजा करनी चाहिए और ग्रह के नकारात्मक प्रभावों से राहत पाने के लिए गंगा सप्तमी के दिन नदी में पवित्र स्नान करना चाहिए।

गंगा सप्तमी की कथा क्या है?

हिंदू धर्मग्रंथों और पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि देवी गंगा सबसे पहले भगवान विष्णु के चरणों के पसीने से निकली थीं और दूसरा, वे भगवान ब्रह्मा के कमंडल (ईवर) से प्रकट हुई थीं।

गंगा के जन्म से जुड़ी एक और पौराणिक कथा है। उसके अनुसार, गंगा सप्तमी के दिन, गंगा ने पृथ्वी पर पुनर्जन्म लिया था। एक जगह का नाम कोसल था और राजा भागीरथ उस जगह के शासक थे। बहुत सारे व्यवधान हो रहे थे और राजा भागीरथ को बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। उन्हें पता चला कि यह उनके मृत पूर्वजों के बुरे कर्मों और पापपूर्ण कार्यों के परिणाम के कारण है।

इस मुसीबत से बाहर आने के लिए, उन्होंने उस पिछले कर्म से छुटकारा पाने के लिए और अपने पूर्वजों की आत्माओं को शुद्ध करने के लिए देवताओं की मदद मांगी। इसके लिए, उन्हें पता चला कि केवल गंगा ही उसे पवित्र करने की शक्ति रखती है। भागीरथ ने बड़ी कठोर तपस्या की और आखिरकार युगों के बादभगवान ब्रह्मा ने उन्हें आश्वासन दिया कि देवी गंगा पृथ्वी पर जन्म लेंगी और उनकी सहायता करेंगी।

लेकिन फिर भी, एक बड़ी दुविधा थी क्योंकि गंगा का वेग इतना ज़बरदस्त था कि यह पृथ्वी को पूरी तरह से नष्ट कर सकता था। भगवान ब्रह्मा ने भागीरथ को भगवान शिव से अपने बालों से नदी को छोड़ने का अनुरोध करने के लिए कहा क्योंकि वही एकमात्र ऐसा व्यक्ति थे जो गंगा के प्रवाह को नियंत्रित कर सकता थे। भागीरथ की भक्ति और सच्ची तपस्या के कारण, भगवान शिव सहमत हुए और इस तरह गंगा ने पृथ्वी पर पुनर्जन्म लिया और उस दिन को अब गंगा सप्तमी के रूप में माना जाता है।

लेकिन उसके पारगमन के दौरान, गंगा नदी ने ऋषि जह्नु के आश्रम को मिटा दिया। क्रोध में आकर ऋषि जह्नु ने गंगा का पूरा पानी पी लिया। फिर से भागीरथ ने ऋषि से विनती की और उन्हें सब कुछ समझाया। जब ऋषि का क्रोध शांत हुआ तो उन्होंने अपने कान से गंगा को मुक्त कर दिया और उस दिन से गंगा सप्तमी को जाह्नु सप्तमी के रूप में भी मनाया जाता है।

आयें गंगासप्तमी को हम पूरी पावनता से मनायें और इस कोरोना महामारी को अपनी स्वच्छता, पवित्रता से दूर भगायें!
कहा जा रहा है कि ताला-बंदी से गंगा की निर्मलता में भी गुणात्मक सुधार हुआ है।
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अर्थमंत्री-सह-कार्यक्रम संयोजक, बिहार-हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन, पटना 800003: