आदमी ही आदमी से डर रहा
संक्रमित हो वायरस से मर रहा ।
आदमी अब आदमी से डर रहा ।।
हो गया यों आदमी मजबूर है ।
आदमी से आदमी अब दूर है ।
चाहकर भी कुछ न कोई कर रहा ।
आदमी अब आदमी से डर रहा ।।
कौन किसको बाँह में अब भर सके !
है जिसे देखो जहाँ चेहरा ढके ।।
प्यार से भी प्यार न अब कर रहा ।
आदमी से आदमी अब डर रहा ।।
सह रहा सबकोई अंतर्वेदना ।
मर चुकी सब ओर सब संवेदना ।।
हूक हृदय का न कोई हर रहा ।
आदमी अब आदमी से डर रहा ।।
देख औरों की व्यथा जो द्रवित मन ।
टूट पड़ते सब उसी पर बाज बन ।।
है भला न जो भलाई कर रहा ।
आदमी अब आदमी से डर रहा ।।
दर्द आहें अश्रुपूरित नैन है ।
पल किसी को भी नहीं चितचैन है ।।
जब सुरक्षित न किसी का घर रहा ।
आदमी अब आदमी से डर रहा ।।
त्रास की अग्नि जराये जर रहा ।
बीज विष बोया वही अब फर रहा ।।
जो किया अबतक वही अब भर रहा ।
आदमी ही आदमी से डर रहा ।।
कवि चितरंजन 'चैनपुरा' , जहानाबाद, बिहार, 804425