जिन कर्मचारियों के खून पसीने से महल खड़ा हुआ उन्हीं से आज मुँह छिपाने की कोशिश कर रहे उद्यमी ।
पंडित रावेन्द्र तिवारी ।
कोरोना जैसे वैश्विक महामारी जो आज समुचे विश्व के लिए एक भीषण त्रासदी बन गई है जिसके पूर्णतः उपचार के लिए कोई दबा अब तक सही ढंग से नहीं मिल पाई ऐसी अवस्था में सिर्फ सामाजिक दूरी ही सबसे बड़ी दवा साबित हो रही हैं जिसके फलस्वरूप अन्य देशों की तरह भारत में भी सोसल डिस्टेसिंग का पालन कराने के लिए लाक डाउन की घोषणा की गई किन्तु वायरस ने जिस तरह से देश में अपना कब्जा जमाने की कोशिश किया उसे देखते हुए भारत सरकार ने लाक डाउन की अवधि को 3 मई तक बढ़ाना ही मुनासिब समझा यहाँ तक कि कहानी तो हम सभी जानते हैं ।परंतु इस अवधि में निजी क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारियों ने क्या खोया इसकी जानकारी न ही इनके नियुक्ता लिए और न ही किसी सरकार ने लिया ।
निजी क्षेत्र भारत का वह क्षेत्र है जहाँ चाय पान की दुकान से लेकर लिमिटेड कम्पनियों तक की गिनती की जाती है फिर चाहे वह संस्था 1 कर्मचारी रख कर काम कर रही हो या फिर 5,10 कर्मचारी हो अथवा 500,5000 कर्मचारी हो अमूमन हर जगह इन कर्मचारियों से इनके नियुक्ता मुँह छिपाने की कोशिश ही कर रहे हैं तो वही दूसरी तरफ सरकार के द्वारा दी जा रही सुविधाओं से भी ज्यादा तर इस क्षेत्र के कर्मचारी बंचित ही है इसका मूल कारण है कि यह कर्मचारी अमूमन दूसरे जिले या राज्य के होते हैं जो रोजगार की दृष्टि से बड़े शहरों की तरफ गाँवो से आ बसते है।
अकेले जबलपुर महाँ नगर में ऐसे ही कर्मचारियों की संख्या लाखों में है जो अति दयनीय स्थिति में जीवन यापन करने के लिए मजबूर है ।
नियुक्ता जहाँ मुँह छिपा रहे हैं तो सरकारी सहायता के लिए इन कर्मचारियों के पास कोई अभिलेख ही नहीं है जिससे इन्हें शासन की योजना का लाभ मिल सके ।
एक सामाजिक संगठन के पदाधिकारी के रूप में मैंने 25 मार्च से निरंतर गुप्त दान महादान की नीति के साथ अपने पदाधिकारियों के साथ मिलकर काम किया है और पाया कि वास्तव में जो लोग जरूरत मंद है उन्हें किसी तरह की कोई सुविधा न ही किसी सामाजिक संगठन के द्वारा मिल रही है और न ही इनके नियुक्ता द्वारा मिल रही है सरकारी सुविधाओं से तो बंचित है ही ।
बड़ा आश्चर्य होता है कि जिन मालिकों के लिए लोग अपना खून पसीना बहाया वर्षों से निरंतर सेवा की आज वही मालिक संकट के इस घड़ी में मुँह छिपा रहे हैं
लाखों कर्मचारियों के बीच यदि सही जाँच की जाए तो हजारों ऐसे निजी क्षेत्र के कर्मचारी मिलेंगे जो कर्ज लेकर किसी तरह से अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं किन्तु फिर भी वह किसी सामाजिक संगठन के पास किसी सहायता के लिए नहीं जा रहे हैं जिसका प्रमुख कारण है कि इनका स्वाभिमान अभी जिंदा है खाएगें तो अपनी खून पसीने के कमाई का पर ऐसा कब तक चलेगा यह देश की सरकार को सोचना होगा उन मालिकों को सोचना होगा कि उन्होंने क्या किया क्या सभ्य समाज की यही निशानी है आज देश संकट से गुजर रहा है पर कल संकट हटेगा और यही कर्मचारी पुनः अपने पथ पर वापिस आएँगे परंतु तब शायद इनकी आत्मा बफादारी की चादर उतारकर आएगी सरकारों के सिस्टम पर सवाल लेकर आएगी जो न ही समाज के लिए अच्छा होगा और न ही देश के लिए ।
जरूरतमंद किसी भी जाति धर्म का हो सरकार के योजनाओं में सबसे पहले अधिकार उसी का होना चाहिए