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अस्तित्व की जंग लड़ते पर्वत और नदियाँ:

अस्तित्व की जंग लड़ते पर्वत और नदियाँ:

सत्येन्द्र कुमार पाठक
विनाश के मुहाने पर खड़ी सभ्यता मानव सभ्यता का इतिहास नदियों की गोद में फला-फूला और पहाड़ों की छांव में सुरक्षित रहा। लेकिन आज इक्कीसवीं सदी का तथाकथित 'विकास' इन्हीं आधारभूत स्तंभों को ढहाने पर तुला है। हिमालय की शिवालिक श्रेणियों से लेकर अरावली के प्राचीन पत्थरों तक और गंगा की लहरों से लेकर मगध की छोटी धाराओं तक—हर ओर प्रकृति की चीख सुनाई दे रही है। वायु प्रदूषण, जल संकट और बढ़ता तापमान कोई संयोग नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ किए गए खिलवाड़ का परिणाम है। यदि आज हमने अपनी नदियों और पर्वतों को नहीं बचाया, तो भविष्य की पीढ़ियों के पास विरासत के नाम पर केवल मरुस्थल और जहरीला पानी बचेगा।
नदियों का संकट: केवल जल नहीं, जीवन का क्षरण - आयरलैंड जैसे छोटे देश में 73,000 किलोमीटर लंबी नदी-नालियां हैं, जो पृथ्वी का दो बार चक्कर लगा सकती हैं। भारत में भी नदियों का ऐसा ही जाल था, जो अब सिमट रहा है। प्रदूषण का ज़हर: गंगा, सोन, और गंडक जैसी पवित्र नदियां आज औद्योगिक कचरे और अनुपचारित सीवेज (Sewage) का केंद्र बन गई हैं। 'तूफानी जल अपवाह'अपने साथ भारी मात्रा में प्लास्टिक और घातक रसायन लेकर इन जलस्रोतों में मिलता है, जिससे जलीय ऑक्सीजन खत्म हो रही है। परिणामस्वरूप, मछलियां मर रही हैं और शैवाल का साम्राज्य बढ़ रहा है।
बिहार की दम तोड़ती नदियाँ: बिहार के परिप्रेक्ष्य में देखें तो स्थिति और भी भयावह है। जहाँ गंगा और बागमती प्रदूषण से कराह रही हैं, वहीं बूढ़ी गंडक, फल्गु और मोरहर जैसी नदियां अपने अस्तित्व के पुनरुद्धार की बाट जोह रही हैं। दारधा, जमुनी और वाया जैसी नदियां आज अतिक्रमण का शिकार होकर नालों में तब्दील हो चुकी हैं। सबसे दुखद है वैदिक काल की हिरण्यबाहु और बाह जैसी नदियों का विलुप्त हो जाना, जो हमारी सांस्कृतिक और भौगोलिक क्षति है।
कम प्रवाह और बांध: बड़े बांधों ने नदियों की 'अविरलता' को नष्ट कर दिया है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा का पैटर्न बदला है, जिससे नदियों का जलस्तर घट रहा है। कम प्रवाह के कारण नौकायन और मछली पकड़ना अब पहले जैसा सुगम नहीं रहा
पर्वतों पर प्रहार: टूटता सुरक्षा कवच - पर्वत न केवल नदियों के स्रोत हैं, बल्कि वे बादलों को रोककर वर्षा कराते हैं और मरुस्थलीकरण को रोकते हैं। लेकिन आज पहाड़ों को 'कच्चे माल' की खदान समझ लिया गया है।
मगध के पर्वतों का रुदन: मगध प्रमंडल की पहचान कही जाने वाली बराबर, कौवाडोल और ब्रह्मयोनि जैसी ऐतिहासिक पहाड़ियाँ आज अवैध खनन के कारण पत्थरों के ढेर में तब्दील हो रही हैं। यह न केवल पारिस्थितिक नुकसान है, बल्कि हमारी प्राचीन धरोहरों पर भी सीधा प्रहार है।अरावली और दिल्ली-एनसीआर का भविष्य: हाल ही में अरावली पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के बीच यह तथ्य डरावना है कि इस पर्वत श्रृंखला का 91% हिस्सा संरक्षण से बाहर है। यदि अरावली खत्म हुई, तो दिल्ली-एनसीआर को मरुस्थलीकरण और भीषण जल संकट से कोई नहीं बचा पाएगा। टांडा में भीलीस्तान लायन सेना जैसे संगठन आदिवासियों के हक और पर्यावरण के लिए आवाज उठा रहे हैं, क्योंकि पहाड़ों का विनाश सीधे तौर पर वहां रहने वाले समुदायों को विस्थापित कर रहा है।
5 डिग्री सेल्सियस की मार: एक शोध के अनुसार, पहाड़ों का औसत तापमान 5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है। इसके कारण उत्तराखंड के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जो नदियों में अचानक बाढ़ (Flash Floods) और फिर लंबे सूखे का कारण बन रहे हैं। खनन, शहरीकरण और वनों की कटाई: एक घातक गठजोड़ - पहाड़ों को काटकर बनाई जा रही सुरंगें और सड़कें उनकी स्थिरता को खत्म कर रही हैं। वनों की कटाई से मिट्टी का कटाव बढ़ा है, जिससे पहाड़ कमजोर होकर भूस्खलन का कारण बन रहे हैं। अनियंत्रित खनन न केवल भूगोल बदल रहा है, बल्कि भू-जल स्तर को भी पाताल में धकेल रहा है। बढ़ती आबादी और पानी की मांग के बीच जलवायु परिवर्तन किसानों को लंबे समय तक सूखे की ओर धकेल रहा है।
समाधान की राह: अब नहीं तो कभी नहीं - समस्या का समाधान केवल सरकारी फाइलों में नहीं, बल्कि धरातल पर कड़े निर्णयों में है: जीवनधारा नमामि गंगे और दिव्य गंगा मिशन: इन अभियानों को केवल धार्मिक चश्मे से न देखकर 'पारिस्थितिक शुद्धिकरण' के रूप में देखना होगा। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार , झारखण्ड और बंगाल—इन सभी राज्यों को गंगा बेसिन के लिए एक एकीकृत प्रबंधन नीति अपनानी होगी। सतत खनन और शून्य अतिक्रमण: नदियों के किनारों और पहाड़ों के संवेदनशील क्षेत्रों को 'नो-डेवलपमेंट ज़ोन' घोषित किया जाए। अतिक्रमणकारियों पर सख्त दंडात्मक कार्यवाही हो । प्लास्टिक का पूर्ण बहिष्कार और 'रीसाइक्लिंग' को जीवनशैली का हिस्सा बनाना होगा। सार्वजनिक परिवहन का उपयोग और वृक्षारोपण ही बढ़ते तापमान को रोकने के प्राथमिक हथियार हैं।मगध की पहाड़ियों से लेकर अरावली के जंगलों तक, स्थानीय समुदायों और आदिवासियों को संरक्षण का भागीदार बनाना होगा। प्रकृति के पास हमारी जरूरतों के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन हमारे लालच के लिए नहीं। यदि हमने आज अपनी जीवनरेखा कही जाने वाली नदियों और प्रहरी पर्वतों की रक्षा नहीं की, तो प्रकृति स्वयं अपना संतुलन बनाएगी, लेकिन वह तरीका बाढ़, सूखे और आपदाओं के रूप में अत्यंत विनाशकारी होगा। नदियों को फिर से बहने दें और पहाड़ों को अपनी जगह स्थिर रहने दें—यही मानवता के बचने का एकमात्र रास्ता है। नमामी गंगे की ओरसे भारतीय प्रशासनिक संस्थान नई दिल्ली में जीवनधारा नमामी गंगे के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ हरिओम शर्मा के नेतृत्व इन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सत्येन्द्र कुमार पाठक सहित बिहार से बिहार राज्याध्यक्ष डॉ उषाकिरण श्रीवास्तव , डॉ दिव्या स्मृति आदि गंगा सेवियों को गंगा बेसिन के क्षेत्रों की विस्तृत चर्चा संस्थान के पदाधिकारियों द्वारा की गई ।


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