जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भगवान पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर थे, जिनका कालखंड भगवान महावीर स्वामी से लगभग 250 वर्ष पूर्व, ईसा-पूर्व 9वीं से 8वीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। वे न केवल एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व थे, बल्कि उन्होंने भारतीय आध्यात्मिक परंपरा को अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह जैसे मूलभूत सिद्धांतों से सींचा। उनकी शिक्षाएँ जैन धर्म का आधार बनीं और आज भी विश्व भर में नैतिक जीवन के लिए एक महान संदेश देती हैं। उनका प्रतीक चिह्न सर्प (नाग) है और उनका शरीर नीले वर्ण का बताया गया है। भगवान पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग 2,900 वर्ष पूर्व भारत के पवित्र नगर वाराणसी (काशी) में हुआ था। भेलूपुर, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में पौष माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को विशाखा नक्षत्र में।जन्म लिया था । वह इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रिय थे। उनके पिता वाराणसी के शासक राजा अश्वसेन और माता रानी वामा देवी थीं ।: जैन ग्रंथों के अनुसार, माता वामा ने गर्भकाल में एक सर्प देखा था, जिससे उनका नाम पार्श्वनाथ पड़ा और सर्प ही उनका चिह्न बना। उन्होंने 30 वर्ष की आयु तक राजकुमार के रूप में जीवन व्यतीत किया, जिसके बाद उन्होंने संसार का त्याग कर वैराग्य धारण किया था ।
राजसी सुख-सुविधाओं का त्याग करने के बाद, भगवान पार्श्वनाथ ने दीक्षा ग्रहण की और कठोर तपस्या शुरू की। उनका केवलज्ञान प्राप्त करने का मार्ग उनके पूर्व जन्म के बैर के कारण हुए एक भयंकर कष्ट उपसर्ग है।
पार्श्वनाथ अपने पूर्व जन्म में पुरूषोत्तम थे, जिनका द्वेष उनके भाई कमठ ने पाला था। कमठ ने इस जन्म में मेघमाली नामक क्रूर दैत्य (व्यंतर देव) के रूप में जन्म लिया और पार्श्वनाथ की तपस्या भंग करने का निश्चय किया।: तपस्या के दौरान, मेघमाली ने भयंकर मूसलाधार वर्षा, तूफ़ान और ओले बरसाए, जिससे जल भगवान पार्श्वनाथ के गले तक भर गया। नागों के राजा धरणेन्द्र और उनकी देवी पद्मावती (जिन्हें पार्श्वनाथ ने पूर्व जन्म में जलने से बचाया था) वहाँ प्रकट हुए। यक्ष-यक्षिणी: धरणेन्द्र ने एक विशाल सर्प का रूप लिया और अपने 1000 फणों को पार्श्वनाथ के सिर पर छत्र की तरह फैलाकर उनकी रक्षा की। पद्मावती ने कमल का आसन प्रदान किया। ये दोनों आज उनके यक्ष और यक्षिणी (शासन देव और शासन देवी) के रूप में पूजे जाते हैं।
केवलज्ञान: उपसर्ग के दौरान भी अविचल रहने पर, भगवान पार्श्वनाथ को उसी स्थान पर केवलज्ञान (सर्वोच्च ज्ञान) की प्राप्ति है। केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद, भगवान पार्श्वनाथ ने लगभग 70 वर्षों तक अपने उपदेश दिए। उन्होंने जैन धर्म के मूल सिद्धांतों को 'चातुर्याम धर्म' (चार व्रतों का धर्म) के रूप में स्थापित किया। महाव्रत विवरण में 1. अहिंसा मन, वचन और कर्म से किसी भी जीव को कोई नुकसान न पहुँचाना। यह उनकी शिक्षा का केंद्र बिंदु है।2. सत्य हमेशा सत्य बोलना।3. अस्तेय चोरी न करना या बिना अनुमति के कुछ भी न लेना।4. अपरिग्रह आवश्यकता से अधिक भौतिक वस्तुओं का संग्रह न करना है । भगवान पार्श्वनाथ का मोक्ष : श्रावण शुक्ल सप्तमी को झारखंड के गिरिडीह जिले में स्थित पारसनाथ पहाड़ी (जिसे सम्मेद शिखर भी कहते हैं)। जैन धर्म का सबसे पवित्र तीर्थस्थल है, पार्श्वनाथ एवं 20 तीर्थंकरों ने यहीं से मोक्ष प्राप्त किया था। इसी कारण इस पहाड़ी को पार्श्वनाथ के नाम पर 'पारसनाथ' कहा जाता है।
सम्मेद शिखर (पार्श्वनाथ टोंक) झारखंड मोक्ष कल्याणक भूमि। सबसे पवित्र तीर्थ स्थल। पहाड़ी की सबसे ऊँची चोटी पर पार्श्वनाथ का टोंक स्थित है। पार्श्वनाथ मंदिर खजुराहो, मध्य प्रदेश चंदेल कला का अद्भुत नमूना। अपनी जटिल और बारीक मूर्तिकला के लिए विश्व प्रसिद्ध।।श्री पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र वाराणसी (भेलूपुर) जन्मभूमि और उनके तीन कल्याणकों का स्थल। जैन समुदाय के लिए अत्यंत पूजनीय। श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ जैन तीर्थ बाड़मेर, राजस्थान चमत्कारी (अतिशय) प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध। राजस्थान का प्रमुख जैन तीर्थ। पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर कोलकाता, पश्चिम बंगाल आधुनिक भव्यता, सुंदर उद्यान और विस्तृत वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध। जैन मंदिर समूह जैसलमेर किला, राजस्थान पीले बलुआ पत्थर पर नक्काशी। किला परिसर के भीतर स्थित, जैन समुदाय प्रवासी के रूप में बसे हैं, वहाँ पार्श्वनाथ को समर्पित मंदिर और जैन केंद्र स्थापित हैं: संयुक्त राज्य अमेरिका यू जर्सी, कैलिफ़ोर्निया और शिकागो जैसे स्थानों पर जैन मंदिरों में उनकी प्रतिमाएँ पूजी जाती हैं। यूनाइटेड किंगडम और पूर्वी अफ्रीका (केन्या, युगांडा): इन क्षेत्रों में बसे जैन समुदायों ने अपने सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए आधुनिक मंदिर स्थापित किए हैं, जिनमें पार्श्वनाथ एक प्रमुख तीर्थंकर के रूप में पूजे जाते है। भगवान पार्श्वनाथ केवल जैनों के लिए 23वें तीर्थंकर मात्र नहीं हैं। उनका जीवन, उनकी तपस्या और उनका 'चातुर्याम धर्म' मानव इतिहास को अहिंसा और नैतिक बल के महत्व की याद दिलाता है। उनके गणधरों (शिष्यों) की संख्या 10 थी, जिनमें आर्यदत्त स्वामी प्रमुख थे। उनकी शिक्षाएँ आज भी लाखों लोगों के जीवन का आधार हैं और उनके नाम पर बने मंदिर – चाहे वह वाराणसी की जन्मभूमि हो या सम्मेद शिखर की मोक्ष भूमि – भारतीय कला, इतिहास और आध्यात्मिक आस्था का शाश्वत प्रतीक हैं। उनकी विरासत यह दर्शाती है कि करुणा और अहिंसा ही सर्वोच्च धर्म हैं, जो हर युग में प्रासंगिक बने रहेंगे।
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