दिल से कब आह निकलेगी, सोच रहा हूँ,
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
दिल से कब आह निकलेगी, सोच रहा हूँ,
अपनों के गम पर भी चुप्पी, सोच रहा हूँ।
बहन बेटियों की अस्मत, सरे राह रौंदी जाती,
क्या मजबूरी बेबस दिखने की, सोच रहा हूँ।
छिपे हुए गद्दार, देश में भेष बदलकर,
नेता का परिवेश, देश में भेष बदलकर।
कभी ओढ़ते खाल भेड की, फिरें भेड़िए,
धर्म के ठेकेदार, देश में भेष बदलकर।
कब जागेंगे, जाग जाग कर सोने वाले,
कब जागेंगे, बात बात पर रोने वाले।
मेरी खामोशी पर मुखर तंज कसते हैं,
कब जागेंगे, रात रात भर जगने वाले।
कायरता या सहिष्णुता, सोच रहा हूँ,
समर प्रांगण गीता सार, सोच रहा हूँ।
एक हाथ में शस्त्र, एक में शास्त्र पढा,
राम कृष्ण ने संदेश दिया, सोच रहा हूँ।
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अपनों के गम पर भी चुप्पी, सोच रहा हूँ।
बहन बेटियों की अस्मत, सरे राह रौंदी जाती,
क्या मजबूरी बेबस दिखने की, सोच रहा हूँ।
छिपे हुए गद्दार, देश में भेष बदलकर,
नेता का परिवेश, देश में भेष बदलकर।
कभी ओढ़ते खाल भेड की, फिरें भेड़िए,
धर्म के ठेकेदार, देश में भेष बदलकर।
कब जागेंगे, जाग जाग कर सोने वाले,
कब जागेंगे, बात बात पर रोने वाले।
मेरी खामोशी पर मुखर तंज कसते हैं,
कब जागेंगे, रात रात भर जगने वाले।
कायरता या सहिष्णुता, सोच रहा हूँ,
समर प्रांगण गीता सार, सोच रहा हूँ।
एक हाथ में शस्त्र, एक में शास्त्र पढा,
राम कृष्ण ने संदेश दिया, सोच रहा हूँ।
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