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"अहं का अवसान, स्व का उदय"

"अहं का अवसान, स्व का उदय"

पंकज शर्मा 
मनुष्य अपने भीतर अदृश्य पर्वत गढ़ता है,
चढ़ जिस पर वह स्वयं को ऊँचा मानता है,
पर हर ऊँचाई पर पहुँचते ही
धरती की नमी उससे छूट जाती है —
सहभागिता की, करुणा की, और प्रेम की।


अहं का यह शिखर,
कठोर और चमकीला है,
पर उसकी चमक में अंधकार छिपा है —
दृष्टि जहां केवल स्वयं तक सीमित हो जाती,
और दूसरों के अस्तित्व का आकार लुप्त।


कभी-कभी वह ऊँचाई इतनी निस्संग होती है
कि मनुष्य अपनी ही प्रतिध्वनि को
ईश्वर का आशीर्वाद समझ बैठता है —
और यही भ्रम उसका पतन बन जाता है।


किन्तु उसी मन के भीतर
एक दूसरी दिशा भी खुली है —
जहाँ ‘स्व’ का दीप शांत ज्वाला में जलता है,
जो किसी को जलाता नहीं,
केवल आलोकित करता है।


स्वाभिमान वहाँ जन्म लेता है
जहाँ आत्मा अपनी गरिमा को पहचानती है —
जहाँ शक्ति का अर्थ
विनम्रता से अभिन्न हो जाता है,
और सफलता का अर्थ
सबके साथ साझा प्रकाश में बदलता है।


यह ‘स्व’ किसी ऊँचाई पर नहीं रहता,
यह धरती के भीतर की नमी है,
जो हर बीज में जागरण का साहस भरती है —
जो कहती है, बढ़ो,
पर किसी को रौंदकर नहीं।


‘अहं’ बाँधता है,
‘स्व’ मुक्त करता है।
एक अपनी सीमा में कैद है,
दूसरा अनंत की ओर प्रवाहित।
और यही भेद तय करता है
मानव होने की सच्ची मर्यादा।


ओ मनुष्य, पहचान उस सूक्ष्म रेखा को —
जहाँ तेरा नाम नहीं, तेरी चेतना बोलती है।
जहाँ ऊँचाई नहीं, गहराई मापी जाती है।
वहीं आरंभ होता है
वास्तविक उत्कर्ष —
जहाँ तू स्वयं में लीन होकर
सभी में फैल जाता है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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