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जब नेता व प्रत्याशी जानबूझ कर भी नहीं जानते—क्या यही है हमारी लोकतान्त्रिक परख?

जब नेता व प्रत्याशी जानबूझ कर भी नहीं जानते—क्या यही है हमारी लोकतान्त्रिक परख?

लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्र

हमारे लोकतंत्र की जड़ें तब ही मजबूत होंगी जब उसके नोडल नेता और चुनावी प्रत्याशी समाज के मुद्दों को समझें, उनकी सीमाएँ पहचानें और उसी कड़ी में जवाबदेही निभाएँ। पर आज की सियासत में एक विचित्र और खिन्नता पैदा करने वाली बात देखनी को मिलती है — कई दलों के नेता और उनके प्रत्याशी यह भी नहीं जानते कि कौन-सा मुद्दा राज्य का है और कौन-सा केन्द्र का। जब जन-नेता यह भी नहीं जानते कि किसकी ज़िम्मेदारी किस पर आती है, तो उस दल को जनता का समर्थन मिलने पर वास्तव में जनता की सोच पर तृष्णा होती है।

समस्याः असमंजस और अनवधान
राज्य और केंद्र के बीच शक्तियों का बंटवारा संविधान ने स्पष्ट रखा है — शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, कानून-व्यवस्था, बुनियादी ढाँचे के कुछ पहलू और कई नीतिगत क्षेत्र जहाँ प्रदेश सरकारें सक्रिय होती हैं; वहीं रक्षा, विदेश नीति, मौद्रिक नीति, अंतर-राज्यीय परिवहन जैसे विषय केन्द्र के दायरे में आते हैं। परन्तु अक्सर चुनावी बहसों में दोनों का गालमेल हो जाता है। नेता किसी स्थानीय सड़क, पानी या स्कूल की समस्या का ठीकरा केन्द्र पर फोड़ देते हैं; वहीँ केन्द्रीय नीतियों का दोष प्रदेश सरकारों पर डालकर जनता को गुमराह किया जाता है। इसकाअर्थ सिर्फ प्रशासनिक भ्रम नहीं—यह सांस्कृतिक और नैतिक क्षति भी है।

इस भ्रामकता के कारण क्या होता है?

  • जवाबदेही धुंधली हो जाती है — जनता जान नहीं पाती कि किससे जवाब माँगे।
  • वास्तविक समस्याएँ पीछे छूट जाती हैं — नीतिगत समाधान नहीं मिलते क्योंकि प्रश्न ही गलत रखा गया है।
  • लोक विश्वास घटता है — नेता जितनी बार जिम्मेदारी टालते हैं, जनता की अपेक्षाएँ और भरोसा कम होते जाते हैं।
  • वोटिंग का महत्त्व कलंकित होता है — समर्थन अनुभव और ज्ञान के बजाय अफवाह और भावनाओं पर आधारित हो जाता है।


क्यों होता है यह? 
कारण तीन हैं — राजनीतिक अवसरवाद, शिक्षा का अभाव और संवाद की कमी। कई दल केवल चुनावी नारों और लोकप्रिय वादों पर निर्भर रहते हैं, बिना यह समझे कि किस समस्या का समाधान कैसे संभव होगा। प्रत्याशी अनेक बार स्थानीय प्रशासन, सरकारी प्रक्रियाओं या संवैधानिक सीमाओं से अनभिज्ञ रहते हैं — या जानबूझकर अनभिज्ञ बने रहते हैं, क्योंकि राजनीति में भ्रामक आरोप-प्रत्यारोप से वोट मिलना सरल लगता है।

जनता का भी क्या कहना है? 
सहनशील नहीं पर सहानुभूतिशील
जब कोई दल इस तरह की कुशाग्रता दिखाता है और फिर भी जनता उसे समर्थन दे देती है, तो यह दर्शाता है कि हमारे समाज में तर्क-विरोधी मान्यताओं और भावनात्मक मतदान का प्रभाव कितना प्रबल है। इसका अर्थ यह नहीं कि लोगों की बुद्धि कम है—बल्कि यह संकेत है कि लोगों तक सही, सटीक और समझदार जानकारी पहुँचाने में कमी है। मीडिया, सामाजिक संस्थाएँ और नागरिक समाज की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे सच्ची जानकारी और नागरिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार करें।

समाधान की रूपरेखा — 
पाँच दिशाएँ

  • नागरिक शिक्षा का विस्तार: स्कूलों और स्थानीय शासकीय-गैर-सरकारी कार्यक्रमों के ज़रिये नागरिकों को संवैधानिक वैधानिकता, अधिकार और सरकारी व्यवस्थाओं के बारे में शिक्षित करें।
  • प्रत्याशियों का प्रशिक्षण व मूल्यांकन: हर प्रत्याशी के लिये लोक-नीति, प्रशासनिक सीमाएँ और क्षेत्रीय योजनाओं पर अनिवार्य प्रशिक्षण तथा पारदर्शी मूल्यांकन।
  • स्थानीय समस्या-समाधान मंच: ब्लॉक/नगर स्तरीय सार्वजनिक मंच जहाँ जनता सीधे अधिकारियों से प्रश्न कर सके — स्पष्ट जवाबदेही बने।
  • मीडिया व सोशल मीडिया की ज़िम्मेदारी: खबरों में संदर्भ-सच्चाई पर विशेष ध्यान — अफ़वाहों के विरुद्ध तथ्यपरक रिपोर्टिंग को प्रोत्साहन।
  • वोटर जाँच-सूची: चुनावों से पहले उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि, उनके विचार और योजनाएँ स्पष्ट रूप में जनता के समक्ष हों — ताकि वोट जागरूकता पर आधारित हो।

लोकतंत्र का शुद्धिकरण आवश्यक

यह दुखद है कि ऐसे समय में जब समाज चुनौतियों से जूझ रहा है — बेरोज़गारी, शिक्षा की कमी, स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ — नेता और प्रत्याशी कमज़ोर संवैधानिक समझ के साथ जनता के सामने आते हैं। पर यह हमारे हाथ में भी है कि हम अपनी सोच बदलें। यदि हम समर्थन देने से पहले अपेक्षा करें कि प्रत्याशी अपनी ज़िम्मेदारियों को समझता हो, अपने दायित्वों का ज्ञान रखता हो और सच्चे समाधान की प्रतिबद्धता रखता हो — तभी हमारा लोकतंत्र ज़िंदा और मजबूत रहेगा।

आइए — हम मतदान को एक भावनात्मक कृत्य न रखते हुए, विवेकपूर्ण और जानकारी पर आधारित बनाएं। जब राजनीति में ज्ञान और जवाबदेही की माँग बढ़ेगी, तभी नेता भी ठहरेंगे, समझेंगे और बदलेंगे। और तब जनता को झूठे दावों से नहीं, वास्तविक नीतियों और काम से मूल्यांकन करने का अवसर मिलेगा। 
डॉ. राकेश दत्त मिश्र,
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