"संबंधों की रक्षा में मौन की गरिमा"
पंकज शर्मा
मधुर वचनों का लोभनीय स्वरूप अक्सर हमें पुष्पमाला की भाँति भासित होता है, किन्तु उस माला में छिपे काँटों का भान केवल अंतःकरण की सूक्ष्म दृष्टि को ही होता है। मनुष्य की आत्मा में स्थित विवेक, दर्पण की तरह है—जो शब्दों की चमकदार आभा से परे उनके गुप्त आशयों को उजागर करता है। मोहक वाणी क्षणिक आनंद तो देती है, पर कपट का बीज उसमें अंकुरित हो, तो सत्य का प्रखर प्रकाश उसे शीघ्र ही विवर्ण कर देता है। इस प्रकार, अंतःकरण वह सूर्य है, जो चाहे कितने ही बादल क्यों न हों, कपट एवं स्वार्थ के अंधकार को वह देर-सवेर भेद ही डालता है।
मौन को यदि हम केवल अज्ञान या दुर्बलता का चिह्न मानें, तो यह एक गंभीर भ्रांति होगी। मौन वस्तुतः वह सरिता है, जो संबंधों की भूमि को शीतल एवं उपजाऊ बनाए रखती है। जब कोई मनुष्य छलपूर्ण वचनों को पहचानकर भी मौन धारण करता है, तब वह अपनी आत्मीयता की गरिमा को बचाने हेतु तपस्वी धैर्य का परिचय देता है। ऐसा मौन कायरता नहीं, अपितु उदात्त कृपा है, जो संबंधों को विखंडित होने से रोकती है। यह मौन पीपल की छाँव-सा है, जो आहत हृदयों को शीतलता देता है, एवं यह भी संभव बनाता है कि संवाद की नई कलियाँ भविष्य में पुनः प्रस्फुटित हों।
अतः मधुर वचनों का आभास चाहे जितना मोहक हो, सत्य वही है जिसे अंतःकरण पहचान लेता है। एवं मौन—वह निष्कपट दीपक है, जो संबंधों की पवित्रता को आलोकित करता है। मनुष्य तभी परिपक्व कहलाता है, जब वह छल को समझकर भी संयमपूर्वक मौन की कृपा से जीवन में संतुलन बनाए रखे।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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