सच का वो आईना जो इतिहास के काले पन्नों को उजागर करता है - “द बंगाल फाइल्स”
लेखक जितेन्द्र कुमार सिन्हा दिव्य रश्मि के उपसम्पादक है |
सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन नहीं होता है, कभी-कभी यह समाज का आईना बनकर उन सच्चाइयों से रूबरू कराता है जिसे जानबूझकर भूल जाना चाहते हैं या जिसे छिपा लिया गया है। “द बंगाल फाइल्स” ऐसी ही एक फिल्म है। यह फिल्म दर्शकों को हिलाकर रख देती है, उनके भीतर सवाल जगाती है और उन्हें अपने इतिहास की गहराई में उतरने के लिए मजबूर करती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ से भी दस गुना अधिक तीव्र, भयानक और रूह कंपा देने वाली फिल्म है।
भारत का विभाजन केवल पंजाब और कश्मीर की कहानी नहीं है। बंगाल, जो उस दौर में सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक उथल-पुथल का केंद्र था, वहाँ हुई घटनाओं को मुख्यधारा के इतिहासकारों और फिल्मों ने लगभग भुला दिया है। “द बंगाल फाइल्स” इस भूले-बिसरे दर्द को फिर से जीने पर मजबूर करती है। फिल्म में तीन अहम हिस्से हैं। वर्तमान का संदेश- फिल्म आज के समय में दर्शकों से सीधे संवाद करती है, उन्हें बताती है कि इतिहास को भूल जाना कितना खतरनाक हो सकता है। 1946 का डायरेक्ट एक्शन डे- यह वह दिन था जब मुस्लिम लीग ने कलकत्ता में बड़े पैमाने पर दंगे भड़काए और हजारों हिंदुओं का कत्लेआम हुआ। नौआखाली का नरसंहार- पूर्वी बंगाल (आज का बांग्लादेश) में हुआ यह नरसंहार इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हो गया था, जबकि इसकी क्रूरता की तुलना शायद ही किसी घटना से की जा सकती है।
16 अगस्त 1946 का दिन भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय है। मुस्लिम लीग के आह्वान पर इस दिन कलकत्ता में व्यापक दंगे हुए। सैकड़ों लोग मारे गए, हजारों बेघर हो गए। फिल्म में इस घटना को इतनी तीव्रता से दिखाया गया है कि दर्शक सिहर उठते हैं। निर्देशक ने किसी भी प्रकार की ‘बैलेंसिंग’ नहीं की है, यानि अपराधी को अपराधी और पीड़ित को पीड़ित के रूप में ही दिखाया है। यह ईमानदारी ही फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है।
नौआखाली का नरसंहार इतिहास के उन पन्नों में दबा दिया गया जिन पर शायद ही कभी रोशनी डाली गई हो। 1946 में वहाँ हिंदुओं के गाँवों को आग के हवाले कर दिया गया, महिलाओं के साथ दुष्कर्म हुए और हजारों लोग या तो मारे गए या जबरन धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किए गए। फिल्म इस पूरी घटना को विस्तार से दिखाती है। पीड़ितों की आँखों में वह भय, वह दर्द, वह असहायता, सब कुछ परदे पर जीवंत हो उठता है। यह केवल फिल्म नहीं, बल्कि दस्तावेज जैसा अनुभव देती है।
फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि कैसे दशकों से बंगाल की इन घटनाओं को इतिहास की किताबों से गायब कर दिया गया। बच्चों को पढ़ाया गया कि विभाजन केवल राजनीतिक समझौतों का नतीजा था, जबकि वास्तविकता इससे कहीं ज्यादा क्रूर और रक्तरंजित थी। “द बंगाल फाइल्स” इन झूठों को नंगा करती है और सोचने पर मजबूर करती है कि आने वाली पीढ़ी को क्या सिखा रहे हैं।
फिल्म के निर्देशक ने बहुत साहसिक काम किया है। उन्होंने न तो किसी विचारधारा के दबाव में कहानी को तोड़ा-मरोड़ा और न ही तथ्यों को छिपाया। छायांकन (cinematography) इतना प्रभावी है कि दर्शक घटनाओं को अपने सामने घटता हुआ महसूस करता है। अभिनय इतना सजीव है कि कलाकार और चरित्र के बीच का फर्क मिट जाता है।
जैसा कि फिल्म के प्रमोशन में भी कहा गया है, यह फिल्म 18 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए नहीं है। इसमें दिखाई गई घटनाएँ इतनी भयानक और यथार्थपरक हैं कि कम उम्र के दर्शकों के मानसिक स्वास्थ्य पर असर डाल सकती हैं। यह फिल्म मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि आत्ममंथन के लिए देखी जानी चाहिए।
फिल्म देखते समय कई दर्शकों के भीतर गहरे सवाल उठते हैं। जैसा कि कई लोगों ने अनुभव साझा किया है कि उनके मित्र, जो स्वयं को सेकुलर मानते थे, फिल्म देखने के बाद घटनाओं की सच्चाई पढ़ने लगे और उनका दृष्टिकोण बदल गया। इसका अर्थ यह है कि सिनेमा समाज की सोच को बदलने की ताकत रखता है। यह फिल्म बताता है कि ‘सेकुलरिज्म’ का मतलब इतिहास को दबाना नहीं बल्कि सत्य को स्वीकारना होना चाहिए।
फिल्म के अंत में जो संदेश दिया गया है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। यदि इतिहास को नहीं जानेंगे, तो वही गलतियाँ दोहराएँगे। “द बंगाल फाइल्स” झकझोरती है और कहती है कि इतिहास को पूरी सच्चाई के साथ जानना और स्वीकारना चाहिए। यह केवल बंगाल के लोगों का इतिहास नहीं है, यह पूरे भारत का इतिहास है।
दर्शक जब थिएटर से बाहर निकलते हैं, तो उनके भीतर केवल कहानी नहीं रह जाती है, बल्कि एक बेचैनी, एक गुस्सा और एक दृढ़ निश्चय भी जन्म लेता है कि अब इन सच्चाइयों को और नहीं दबाया जाएगा। फिल्म देखने के बाद बहुत से लोग इंटरनेट पर जाकर घटनाओं के बारे में पढ़ते हैं, दस्तावेज खंगालते हैं और इतिहास की गहराई में जाते हैं। यही इस फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
इस फिल्म को किसी भी सामान्य मापदंड पर आँकना मुश्किल है। यह मनोरंजन नहीं है, यह इतिहास का सबक है। यह फिल्म याद दिलाती है कि आजादी केवल राजनीतिक घटना नहीं थी, बल्कि इसके पीछे लाखों बलिदानों और असंख्य त्रासदियों की कहानी छिपी है।
“द बंगाल फाइल्स” न केवल एक फिल्म है बल्कि यह हर भारतीय के लिए एक चेतावनी है कि अपनी जड़ों को, अपने इतिहास को और अपनी पहचान को समझना होगा। यह फिल्म कश्मीर फाइल्स से दस गुना अधिक असरदार इसलिए लगती है क्योंकि यह केवल एक क्षेत्र नहीं बल्कि पूरे बंगाल के दर्द को सामने लाती है। ---------------
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