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तेन देवी महादेवं जग्राह महिषासुरम्

तेन देवी महादेवं जग्राह महिषासुरम्

श्री मार्कण्डेय शारदेयः
ईश्वरीय लीला समझ पाना सहज सम्भव नहीं।विभिन्न पौराणिक आख्यान इसी के परिचायक हैं।वस्तुतः जैसे बच्चे अपने ही बनाए घरौंदों से व अपने खिलौनों से अनेक कौतुक कर परम प्रसन्न होते हैं, वैसे ही ईश्वर की भी केलि चलती रहती है।अवतार भी लीला की ही एक पटकथा है, जिसका रचयिता भी वही, सूत्रधार भी वही, अभिनेता भी वही और सारा साजोसामान भी वह स्वयं है।जब पूरी सृष्टि ही उसका विलास है तो उसके सिवा और हो ही कौन सकता है? वह विष्णु ,शिव आदि नाना पुरुष नायकों का कभी अभिनय करता है तो कभी दुर्गा, लक्ष्मी आदि महानायिकाओं का। कभी अपने ही कई रूपों से कई सम्बन्ध बनाता-निभाता है तो कभी अपने ही किसी रूप को प्रतिनायक भी बना डालता है।कब क्या बन जाए कहना सम्भव नहीं।
प्रकृति के बिना पुरुष और पुरुष के बिना प्रकृति का कोई महत्व नहीं।इसीलिए तो गीता में भगवान कहते हैं- ‘द्वन्द्वः सामासिकस्य च’ (और समास के भेदों में मैं द्वन्द्व हूँ)।दोनों का संयोग ही ब्रह्माण्ड की संजीवनी है।प्रकृति समस्त स्त्रीत्व में व्याप्त मातृत्व शक्ति है तो पुरुष सबमें में समाहित पितृत्व।सृजन के बीज इन्हीं से चले हैं और अण्डज, पिण्डज, श्वेदज, उद्भिज के रूप में सृष्टि को सुहाना बनाने में लगे रहे हैं।एक में दूसरे को देखना ही एकत्व दृष्टि है।
सूक्ष्मता से स्थूलता की प्रथम परिणति आदिदेव ही हैं, जिनमें आद्या शक्ति का सन्निवास है।ये ही आदि वृक्ष हैं।इन्हीं के फलों के बीजों से पूरा विश्व अटा-पटा है। जर्रे-जर्रे में स्थूल और सूक्ष्म, स्थावर और जंगम देवांशों की ही व्याप्ति है।इसलिए वे हम सबके माता-पिता हैं।इसलिए हम विविध तरीकों से उनके प्रति आभार प्रदर्शित करते हैं।उनकी ही कृपा से हमारा जीवन संरक्षित है, इसलिए कृतज्ञता ज्ञापन के रूपमें अनेकानेक विधियों से, अनेकानेक मुद्राओं से और कृपा बनाए रखने की प्रार्थना भी करते हैं।
अब आदिदेव कहने से भले सम्प्रदायों के कारण विभेद हो, पर अभेद दृष्टि से क्षणिक रूपों के बावदूद कोई भेद नहीं।आप अपने आराध्य को ज्येष्ठत्व-श्रेष्ठत्व सिद्ध करने के लिए जितने हो सके प्रमाण प्रस्तुत कर लें, पर दूसरों के प्रमाणों पर भी यदि निश्छलता पूर्वक विचार करें तो सारे के सारे विशेषण एकत्व का ही घोष करते मिलेंगे।कारण यह है कि सत्य तो एक ही होता है, प्रदर्शन भले भिन्न हो।
हम भले ही असत्य से घिरे हों।उसी का दिन-रात अनेक रूपों में सेवन करते हों, पर हम सत्य के पूजक हैं।वही ईश्वर-परमेश्वर है, वही भगवान है, वही परम पिता है।यदि उसके स्त्रीत्व को सम्मान देना हो तो ईश्वरी-परमेश्वरी, भगवती, जगन्माता कह लें।इससे ईश्वरत्व में कोई फर्क नहीं पड़नेवाला।श्रद्धा-विश्वास के साथ समर्पित व्यक्ति को ईश्वर निराश नहीं करता और असम्भव से असम्भव कार्य सिद्ध कर देता है।ऐसे असंख्य उदाहरण हैं।उन्हीं में से एक है असुरराज रम्भ के पुत्र महिषासुर के रूप में भगवान शंकर का उत्पन्न होना। भक्ति में इतनी शक्ति है कि भगवान भी विवश हो जाते हैं।भक्त की मुराद पूरी करनी ही पड़ती है।रम्भ ने तीन जन्मों तक उन्हें पुत्र बनने का वर माँगा और उधर उसके पुत्र ने अपनी आराधना से शिवशक्ति से तीनो जन्मों तक अपना संहार माँगा।कैसी विचित्रता है! जब महिषासुर ही शिव है और शिवा दुर्गा हैं तो यह कैसी लीला है कि पति पत्नी से ही युद्ध में वीरगति माँगे! यह कैसा प्रेम है कि आदर्श पतिव्रता पत्नी आदर्श पति का संहार करे! पर कीचड़ से लथपथ व्यक्ति के कीचड़ की सफाई करनी ही होती है, नहीं तो उसकी वास्तविकता गायब ही रहेगी।सत्य असत्य के घर पलकर कलुषित ही रह जाएगा। हम मानव भी तो व्रत-उपवास, योगाभ्यास आदि क्रियाओँ के माध्यम से अपने में व्याप्त असत्य को मारने का ही तो उद्योग करते हैं! भगवान के कृत्य को लीला इसीलिए कहते हैं कि मानव-सुलभ उनका कार्य हमारे लिए विस्मयकारी हो जाता है।जब वह सर्वसमर्थ हैं, तब परेशानी क्यों उठाते हैं? कारण है कि हमें प्रेरित करना है कि विघ्नों के बार-बार आने पर भी अविचलित मन से अत्याचारों, दुराचारों का प्रतिकार करते रहना है।विपरीत परिस्थितियों से हताश-निराश नहीं होना, बल्कि दृढ़ता को बनाए रखना है।
रम्भ ने तीन जन्मों तक शिव को पुत्र रूप में माँगा था और भगवान ने अपने वरदान से किसी जन्म में निराश नहीं किया।इसीलिए भगवती ने उन्हें पुनः पुनः शिवत्व के लिए असुरत्व से दूर किया ।दरअसल असुरधर्म और देवधर्म में भिन्नता होती है।दोनों एक-दूसरे को उन्नत नहीं देख सकते ।देवों के देव महादेव तथा देवियों की देवी महादेवी होने से उन्हें देवसमर्थक होना ही है।हाँ, देवत्व किसी को निराश नहीं कर सकता, इसलिए याचक चाहे कोई हो, मुराद पूरी करेगा ही।फिर भी देवनिर्मित सृष्टि रूपी शासन में भी अनुशासन भंग न हो, दैवी संपदा का ह्रास न हो , कोई अराजक तत्व संसार में सदा तबाही न मचाता रहे, इसके लिए प्रत्येक वरदान में अभिशाप और प्रत्येक अभिशाप में वरदान को समाविष्ट किए रहते हैं।असुरराज महिष की इच्छापूर्ति के लिए प्रथम सृष्टिकाल में उग्रचण्डा (अठारह भुजाओंवाली), द्वितीय सृष्टिकाल में भद्रकाली (सोलह भुजाओंवाली) एवं तृतीय सृष्टिकाल में दुर्गा (दस भुजाओंवाली) के द्वारा उसका वध हुआ।
वध यों भी हो सकता था, पर बड़ों के आचरण में सीख-ही-सीख भरी रहती है।जीवन स्वयं युद्धमय है। क्षण-क्षण आन्तरिक व बाह्य युद्ध चलता रहता है।बिना युद्ध के कभी सूच्यग्र भी प्राप्ति सम्भव नहीं।इसीलिए व्यवहारविद् बनाने के लिए हमारे कविहृदय ऋषियों ने हमारे लिए अनेकशः ईश्वरीय आख्यानों की प्रस्तुतियाँ की हैं।केवल मानव चरित व चरित्र हमें उतना बल नहीं दे पाते, जितना कि देवों के अवतार कर सकते हैं।

(लेखक की कृति ‘सांस्कृतिक तत्त्वबोध’ से)

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