धनखड़ का त्यागपत्र और देश की राजनीति
डॉ राकेश कुमार आर्य
कारण चाहे जो भी रहा , परंतु उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपने पद से अचानक त्यागपत्र देकर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया है। उनके इस त्यागपत्र के पीछे कोई दूसरी राजनीति रही है या वह स्वयं कोई ऐसी राजनीति कर रहे थे जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा ? या फिर वह राजनीति की कौन सी बिसात का शिकार बने हैं ? उन्होंने कुचक्रों से भरी हुई राजनीति की कुचालों को झेलने से इनकार किया या वह स्वयं राजनीति में कुछ नए कुचक्र रच रहे थे? यह ऐसे प्रश्न हैं जो इस समय प्रत्येक भारतीय के मन मस्तिष्क में कौंध रहे हैं।
संविधान में व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों ही राजनीति से निरपेक्ष रहेंगे। ये दोनों ऐसे संवैधानिक पद हैं, जिन पर बैठे हुए व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की ही बात को सुनेगा और दोनों को ही अपनी बात को रखने का अवसर प्रदान करेगा। परंतु व्यवहार में सामान्यतया ऐसा होता है कि जिस सत्ता पक्ष के द्वारा राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव किया जाता है, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को उनका ही माना जाता है। ऐसी परिस्थितियों में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चाहे कितनी ही निष्पक्ष भूमिका का निर्वाह क्यों न करें, विपक्ष उन्हें सत्ता पक्ष की ओर झुका हुआ देखता है। सत्ता पक्ष की अपेक्षा होती है कि सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों पर कम से कम ये दोनों किसी भी प्रकार का प्रश्नचिह्न न लगाएं । साथ ही साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी यह अपेक्षा की जाती है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति अपनी सरकार के किसी कार्य में बाधक नहीं बनेंगे। इस प्रकार राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर बैठे व्यक्तियों की बहुत ही संतुलित, मर्यादित और अनुशासित भूमिका हो जाती है। उन्हें हर संभव यह प्रयास करना पड़ता है कि वह किसी की ओर झुके हुए दिखाई न दें।
जगदीप धनखड़ हर किसी से भिड़ जाने की अपनी प्रवृत्ति के लिए जाने जाते रहे हैं। वे देश के ऐसे पहले उपराष्ट्रपति रहे हैं, जिन्होंने इस पद पर रहते हुए देश की न्यायपालिका को भी टोकने का कार्य किया। वहां पर बैठे लोगों पर अंगुली उठाने में उन्होंने किसी प्रकार का संकोच नहीं किया। ऐसा करके उन्होंने न्यायपालिका को यह संदेश दिया कि संविधान से ऊपर कोई भी नहीं हो सकता और न ही किसी भी संस्थान को बेलगाम होने की अनुमति दी जा सकती है। कोई भी संस्थान ऐसा आचरण नहीं कर सकता कि वह सबसे ऊपर है और उस पर किसी भी प्रकार की दृष्टि रखना लोकतंत्र में पाप है। यदि भ्रष्टाचार करने वाले लोग न्यायपालिका में भी बैठे हैं तो उन पर भी अंगुली उठाई जा सकती है। क्योंकि न्यायपालिका लोकतंत्र में एक ऐसा स्तंभ होती है , जिसकी ओर सभी लोग न्याय की अपेक्षा से देखते हैं । यदि किसी कारणवश न्यायपालिका ऐसा करने में असफल हो रही है तो संविधान की सीमाओं में रहकर उसे भी 'सही रास्ते' पर लाने के लिए कहा जा सकता है। अपने इसी स्वभाव के कारण उपराष्ट्रपति श्री धनखड़ जस्टिस वर्मा पर महाभियोग चलाने की कार्यवाही का श्रेय लेने के लिए आतुर रहे। सरकार भी जस्टिस वर्मा के विरुद्ध कुछ करना चाहती थी। परंतु इससे पहले कि सरकार कुछ करे विपक्ष ने राज्यसभा के सभापति अर्थात देश के राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ से इस बारे में नोटिस स्वीकार करवाकर महाभियोग की कार्यवाही का श्रेय लूट लिया। इसके बाद सरकार इस बात को लेकर असहज थी। जो काम उसे करना चाहिए था, उसे उसके ही उपराष्ट्रपति ने विपक्ष के माध्यम से संपन्न हो जाने दिया। इतना ही नहीं, जब जस्टिस वर्मा पर महाभियोग चलाने के लिए विपक्ष के नेता उपराष्ट्रपति श्री धनखड़ से मिले तो उसका छायाचित्र भी किसी को सांझा नहीं किया गया यानी विपक्ष के नेता देश के उपराष्ट्रपति से मिलें और उसकी जानकारी किसी को भी ना हो, यह बात चुभने वाली है। यदि दाल में कुछ काला नहीं था तो उपराष्ट्रपति महोदय का ऐसा करने की आवश्यकता क्या पड़ी थी ? सब कुछ पारदर्शी रहना चाहिए था। स्वाभाविक है कि इस पर सरकार की ओर से उपराष्ट्रपति को कथित उपेक्षा झेलनी पड़ी हो। सरकार की इस प्रकार की उपेक्षा पूर्ण सोच ने उपराष्ट्रपति को कथित रूप से 'अस्वस्थ' कर दिया और जब उपराष्ट्रपति ने अपने पद से त्यागपत्र दिया तो उससे सरकार 'अस्वस्थ' अर्थात असहज हो गई। इस त्यागपत्र के अगले दिन जाकर प्रधानमंत्री श्री मोदी ने सरकार की असहजता की चुप्पी को भंग करते हुए एक्स पर लिखा- 'श्री जगदीप धनखड़ जी को भारत के उपराष्ट्रपति सहित कई भूमिकाओं में देश की सेवा करने का अवसर मिला है। मैं उनके उत्तम स्वास्थ्य की कामना करता हूं।'
लोकतंत्र के लिए यह स्थिति वास्तव में लज्जाजनक है कि देश के शीर्ष पद पर अर्थात उपराष्ट्रपति के पद पर बैठे एक व्यक्ति के साथ सरकार की इस प्रकार की 'अनबन' हो। सुलझी हुई सोच का कोई भी व्यक्ति अनबन की स्थिति तक पहुंच ही नहीं सकता। सियासत की घृणास्पद चाल में फंसकर लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचलना न तो सत्ता पक्ष के लिए अच्छा लगता है, न शीर्ष पद पर बैठे किसी व्यक्ति के लिए अच्छा लगता है। राजनीति की उठापटक का शिकार शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति को नहीं बनना चाहिए। क्योंकि वह संविधान, लोकतंत्र, लोकतांत्रिक मूल्यों, संवैधानिक व्यवस्थाओं और राजनीति की शुचिता का रक्षक है।
दूसरी बात ये है कि 21 जुलाई को सदन की कार्यवाही के बीच में ही लगभग 4:30 बजे बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की एक बैठक आहूत की गई थी। जिसमें सत्ता पक्ष के प्रतिनिधि के रूप में सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री एल मुरूगन उपस्थित रहे। मुरुगन ने सभापति जगदीप धनखड़ से बैठक को अगले दिन तक स्थगित करने का आग्रह किया था। इस बैठक में संसदीय कार्य मंत्री किरण रिजिजू और राज्यसभा में नेता सदन जेपी नड्डा को भी उपस्थित रहना था। परंतु वह दोनों ही अनुपस्थित रहे। इसे लेकर उपराष्ट्रपति ने अपनी चिंता व्यक्त की थी। इसे उपराष्ट्रपति ने अपना अपमान समझा था।
बैठक में उपस्थित रहे कांग्रेस के सांसद सुखदेव भगत ने इस बैठक में जेपी नड्डा और किरेन रिजिजू की अनुपस्थिति को अच्छा न मानते हुए उस पर कई प्रकार के प्रश्नचिह्न लगाए।
भाजपा के इन दोनों मंत्रियों को भी इस प्रकार उपराष्ट्रपति की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी । अच्छी बात यह होती कि पर्दे के पीछे सरकार अपने उपराष्ट्रपति के साथ समन्वय स्थापित करती और जो बातें पर्दे पर आ गई हैं, वह कदापि नहीं आएं , इस प्रकार की सोच का उपयोग करती।
उपराष्ट्रपति के त्यागपत्र को लेकर एक अन्य चर्चा भी चल रही है। जिसे कांग्रेस ने ही हवा दी है। कांग्रेस के सांसद सुखदेव भगत ने उपरोक्त बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की बैठक में जेपी नड्डा और किरेन रिजिजू की अनुपस्थिति के कुछ समय पश्चात उपराष्ट्रपति के त्यागपत्र को इस बात से जोड़ने का प्रयास किया कि बिहार विधानसभा चुनाव के दृष्टिगत यह त्यागपत्र जानबूझकर सोची समझी रणनीति के अंतर्गत दिया गया है। कांग्रेस का मानना है कि बिहार विधानसभा चुनाव को हर स्थिति में जीतने के लिए बीजेपी ने वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ गोपनीय समझौता कर लिया है। जिसके अंतर्गत उन्हें उपराष्ट्रपति बनाया जा सकता है, जबकि बिहार को भारतीय जनता पार्टी अपने लिए लेना चाहिए।
एक बात यह भी है कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को यदि अपने पद से त्यागपत्र देना ही था और उनका स्वास्थ्य वास्तव में ही साथ नहीं दे रहा था तो वह संसद के वर्षा कालीन सत्र के पहले ही अपने पद से त्यागपत्र देने की घोषणा कर सकते थे। परंतु उन्होंने ऐसा न करके पहले दिन की कार्यवाही को सही ढंग से चलाया। जब वह राज्यसभा की कार्यवाही चला रहे थे तो ऐसा नहीं लग रहा था कि वह अस्वस्थ हैं। अचानक सायं काल को ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने राष्ट्रपति को जाकर अपना त्यागपत्र थमा दिया ? त्यागपत्र देने से पहले उन्होंने राष्ट्रपति से समय लेना भी उचित नहीं माना। यदि वह ऐसा ही करना चाहते थे तो वर्षाकालीन सत्र के पहले दिन सदन में भी अपने त्यागपत्र देने की घोषणा कर सकते थे और सदन को बता सकते थे कि वह आज देश की राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को अपने पद से त्यागपत्र सौंप देंगे ? कुल मिला कर उपराष्ट्रपति के त्यागपत्र ने कई प्रकार के प्रश्नों को जन्म दे दिया है। इन सभी प्रश्नों का उत्तर व्यवस्था को देना ही पड़ेगा।
(लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)
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