जीवन : जहाँ अंत ही आरंभ है
जीवन एक निरंतर प्रवाहमान यात्रा है, जहाँ विसर्जन और सृजन एक-दूसरे के पूरक हैं। प्रत्येक अंत में एक नई शुरुआत की आहट छिपी होती है, और हर सृजन के मूल में कोई न कोई विसर्जन निहित होता है। यह द्वंद्व नहीं, बल्कि जीवन का स्वाभाविक संतुलन है।
हमारी पीड़ा तब गहराने लगती है जब हम जीवन को केवल हानि, विछोह और समाप्ति की दृष्टि से देखने लगते हैं। हम सूर्यास्त के क्षण में अंत का अनुभव तो करते हैं, पर सूर्योदय की पहली किरण में छिपे नवजीवन की आशा को अनदेखा कर देते हैं।
पतझड़ के बाद वसंत, और रात्रि के बाद प्रभात की भाँति, हर अंधकार में उजाले का बीज छिपा होता है। यदि हम जीवन को समग्र दृष्टि से देखें, तो समझ पाएँगे कि हर विसर्जन एक नवीन सृजन का निमंत्रण है।
यह दृष्टिकोण हमें न केवल दुखों से उबारता है, बल्कि हमें आशा, स्वीकार और संतुलन का मार्ग दिखाता है। जीवन तब ही पूर्ण प्रतीत होता है जब हम उसे एकरेखीय नहीं, चक्रीय रूप में समझते हैं — जहाँ हर अंत, एक आरंभ की भूमिका है।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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