हनुमान जी से शनिदेव को मिला था दण्ड - जब देवताओं के बीच टकराया था घमण्ड और भक्ति
दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम सेसनातन धर्म में हनुमान जी को परम भक्त, शक्ति और विनम्रता का प्रतीक माना जाता है। वहीं शनिदेव को न्याय और कर्मफल के दाता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। दोनों ही अत्यंत पूजनीय देव हैं, परंतु एक बार ऐसा प्रसंग घटित हुआ जिसमें शनिदेव को अपनी घमंड की कीमत चुकानी पड़ी और हनुमान जी के हाथों उन्हें दण्ड मिला। इसके पीछे एक गहरा भाव छुपा है—विनम्रता, भक्ति और धर्म की सर्वोच्चता।
यह कथा उस समय की है जब भगवान श्रीराम की सेना रामसेतु बना रही थी। हनुमान जी भी इस अभियान में सक्रिय थे, लेकिन एक संध्या वे समुद्र के किनारे प्रभु श्रीराम के ध्यान में लीन थे। मंद-मंद समुद्री हवा बह रही थी, वातावरण अत्यंत शांत था। तभी शनिदेव का आगमन हुआ। शनिदेव समुद्र तट पर टहलते हुए अपने पराक्रम और प्रभाव पर गर्व कर रहे थे।
शनिदेव के मन में आया कि सृष्टि में कोई ऐसा नहीं है जो उनके प्रभाव को सह सके। वे सोचने लगे कि उनकी शक्ति का परीक्षण किसी योद्धा से युद्ध करके करना चाहिए। तभी उनकी दृष्टि ध्यानमग्न हनुमान पर पड़ी। शनिदेव ने उन्हें युद्ध के लिए ललकारने का निर्णय लिया।
शनिदेव सीधा हनुमान जी के पास पहुंचे और कहा कि "मैं महाशक्तिशाली शनिदेव हूं वानर, मैं तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ।" हनुमान जी उस समय प्रभु श्रीराम जी का ध्यान कर रहे थे। उन्होंने शांत और विनम्र स्वर में पूछा कि "महाराज, आप कौन हैं और यहां किस उद्देश्य से आए हैं?"
शनिदेव ने अपने तेज और भय की कथा सुनाकर हनुमान जी को युद्ध के लिए ललकारा। लेकिन हनुमान जी ने बार-बार आग्रह किया कि वे थके हुए हैं, और श्रीराम जी के स्मरण में मग्न हैं, कृपया उन्हें व्यग्र न करें। लेकिन शनिदेव अपने अहंकार में चूर थे और बार-बार युद्ध की जिद्द करते रहे।
हनुमान जी के मना करने पर भी शनिदेव नहीं माने। उन्होंने हनुमान जी का हाथ पकड़ लिया और जबरन युद्ध के लिए खींचने लगे। हनुमान जी ने हाथ झटक कर छुड़ाया, लेकिन शनिदेव ने फिर पकड़ लिया। यह अत्याचार देखकर हनुमान जी को एक युक्ति सूझी।
हनुमान जी ने अपनी पूँछ को बढ़ाया और शनिदेव को उसमें लपेटना शुरू किया। शनिदेव को जैसे-जैसे बंधन कसता गया, उनकी शक्ति व्यर्थ होती गयी। वे छटपटाने लगे। तभी हनुमान जी को रामसेतु की परिक्रमा करनी थी, और वे शनिदेव को पूंछ में लपेटे हुए दौड़ने लगे।
हनुमान जी दौड़ते हुए जान-बूझकर अपनी पूँछ को सेतु के पत्थरों से टकराने लगे। शनिदेव हर टक्कर में पीड़ा से चिल्लाने लगे। उनका शरीर लहूलुहान हो गया। परंतु हनुमान जी रुकने को तैयार नहीं थे। शनिदेव की सारी शक्ति और अभिमान टूट चुका था।
दर्द और पीड़ा से व्याकुल शनिदेव ने हाथ जोड़कर प्रार्थना किया कि "हे करुणामय भक्तराज! मुझ पर दया कीजिए। मैं अपनी गलती का दण्ड पा चुका हूँ। अब मुझे बंधनमुक्त कर दीजिए।" हनुमान जी शांत स्वर में कहा कि "यदि तुम मेरे भक्तों की राशि पर कभी प्रभाव नहीं डालोगे, तभी तुम्हें मुक्त करूंगा।" शनिदेव ने वचन दिया कि वे हनुमान भक्तों की राशि पर कभी नहीं आएंगे।
मुक्त होते ही शनिदेव ने अपनी जख्मी देह पर लगाने के लिए तेल माँगा। हनुमान जी ने तेल दिया, जिससे शनिदेव की पीड़ा शांत हुई। तभी से यह मान्यता है कि जो भक्त शनिदेव को तेल चढ़ाता है, उस पर उनकी कृपा बनी रहती है और कष्ट कम होता है।
यह कथा हमें कई महत्वपूर्ण बातें सिखाती है, वह है, घमण्ड चाहे कितना भी बड़ा हो, धर्म और भक्ति के सामने टिक नहीं सकता है। विनम्रता को कमजोरी न समझना चाहिए, यह सबसे बड़ी ताकत होता है। सच्चा भक्त जब धर्म की रक्षा के लिए उठता है, तो देवताओं को भी झुकना पड़ता है।
हनुमान जी का यह रूप हमें यह सिखाता है कि भक्ति केवल सजदे और जाप तक सीमित नहीं होता है, बल्कि धर्म की रक्षा के लिए खड़े होने का नाम भी है। शनिदेव का आत्मबोध भी दर्शाता है कि जब कोई अपने अहंकार में चूर होकर धर्मभक्त को पीड़ा देता है, तो उसे दण्ड भोगना ही पड़ता है।
आज भी हर शनिवार को लोग हनुमान मंदिर में जाकर पूजा करते हैं और शनिदेव को तेल चढ़ाते हैं, ताकि उनकी कृपा बनी रहे। इस कथा ने सनातन परंपरा में दो महान शक्तियों, हनुमान जी और शनिदेव के बीच एक पवित्र संतुलन स्थापित किया है।
यह कथा केवल एक पौराणिक प्रसंग नहीं है, बल्कि मानव जीवन का भी गूढ़ सत्य है। जब भक्ति, धर्म और विनम्रता एकजुट हो जाए, तो सबसे शक्तिशाली अहंकारी भी परास्त हो जाता है। यही कारण है कि हनुमान जी को संकटमोचन कहा गया है, जो न केवल संकटों को हरते हैं, बल्कि अहंकार और अधर्म का दमन भी करते हैं।
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