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"बिहार की त्रासदी: शराब, बालू और शिक्षा माफिया के शिकंजे में जकड़ा जन-जीवन"

"बिहार की त्रासदी: शराब, बालू और शिक्षा माफिया के शिकंजे में जकड़ा जन-जीवन"

लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्र

बिहार, जिसकी ऐतिहासिक धरोहर नालंदा और विक्रमशिला जैसे शिक्षा मंदिरों में बसती है, आज जमीनी हकीकत में जिन समस्याओं से जूझ रहा है, वे किसी राज्य की प्रशासनिक विफलता और राजनीतिक पाखंड का सबसे भयावह उदाहरण बन चुकी हैं। शराबबंदी के बावजूद फैले शराब माफिया, बालू के दोहन पर लगे प्रतिबंधों को धता बताकर चलता बालू माफिया, और शिक्षा के नाम पर लूट मचाते शिक्षा माफिया ने राज्य की आत्मा को घुन की तरह खोखला कर दिया है।

सरकार ‘सुशासन’ और ‘विकास’ की बातें करती है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई उन खोखले नारों का पर्दाफाश करती है जो सिर्फ़ विज्ञापनों और भाषणों में ही जीवित हैं। आइए, इन तीन माफियाओं के परत-दर-परत विश्लेषण से बिहार की इस त्रासदी को समझें।

1. शराब माफिया: शराबबंदी की आड़ में अराजकता का साम्राज्य

1.1. शराबबंदी – एक नेक इरादा, लेकिन आधा अधूरा अमल

शराबबंदी को लागू करते समय सरकार ने यह तर्क दिया कि इससे महिलाओं को राहत मिलेगी, पारिवारिक हिंसा घटेगी और समाज में नैतिकता बढ़ेगी। पर यह इरादा व्यवहारिक दृष्टिकोण से कोसों दूर था। ज़मीनी सच्चाई यह है कि शराबबंदी ने शराब के खुले कारोबार को बंद कर दिया, परंतु अवैध शराब तस्करी और माफियागिरी को अप्रत्याशित रूप से बढ़ावा मिला।

1.2. पुलिस-प्रशासन की मिलीभगत

शराब माफिया गांवों, कस्बों, यहां तक कि स्कूलों और अस्पतालों के बगल तक में शराब पहुंचा रहे हैं। यह सब प्रशासन की नाक के नीचे हो रहा है। अनेक मामलों में पुलिस खुद इस धंधे में हिस्सेदार बन चुकी है। ज़िला से लेकर थानों तक अवैध वसूली की लंबी श्रृंखला चल रही है।

1.3. आम आदमी की गिरफ्त, माफिया का संरक्षण

जब कोई गरीब व्यक्ति चंद बोतल के साथ पकड़ा जाता है, तो उसे जेल भेज दिया जाता है। लेकिन असली माफिया, जो हजारों लीटर शराब की तस्करी कर रहा है, उसे राजनैतिक संरक्षण मिल रहा है। परिणामस्वरूप, बिहार की जेलें गरीबों से भर गई हैं, और माफिया सत्ता से जुड़ कर और भी ताकतवर हो रहा है।

2. बालू माफिया: प्रकृति की लूट और कानून की धज्जियां

2.1. बालू पर नियंत्रण – अवसर का अपराधीकरण

बालू के दोहन को लेकर सरकार ने खनन नीति लागू की। उद्देश्य था – पारदर्शिता, पर्यावरण की रक्षा, और राजस्व वृद्धि। परंतु यह नीति, लागू होते ही माफिया संस्कृति की शरण में चली गई। स्थानीय ठेकेदारों और अपराधियों ने सत्ता संरक्षण में बालू घाटों पर कब्जा कर लिया।

2.2. बालू माफिया और जनजीवन पर असर

गांवों में निर्माण रुक गया। ईंट-भट्टों में बालू की आपूर्ति बंद हो गई या तीन गुने दाम पर होने लगी। गरीब मजदूर, जो नदी से बालू निकालकर अपने परिवार को पालता था, बेरोजगार हो गया। वहीं माफिया खुलेआम जेसीबी मशीनों से नदी का सीना चीर कर बालू निकाल रहे हैं, जबकि पर्यावरण नियमों की धज्जियां उड़ रही हैं।

2.3. पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमले

जो लोग इन माफियाओं के खिलाफ बोलते हैं, उन्हें धमकाया जाता है या उनकी हत्या कर दी जाती है। बिहार में कई पत्रकारों को जान गंवानी पड़ी, सिर्फ इसलिए कि उन्होंने बालू माफिया की पोल खोलने की हिम्मत की।

3. शिक्षा माफिया: ज्ञान का मंदिर बना व्यापार का अड्डा

3.1. सरकारी स्कूलों की बदहाली

बिहार के सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर चिंताजनक है। लाखों की संख्या में स्कूल बिना शिक्षक, बिना शौचालय, बिना प्रयोगशाला और बिना पुस्तकालय के चल रहे हैं। मिड डे मील और पोशाक योजनाओं में भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर है।

3.2. कोचिंग और प्राइवेट स्कूल माफिया का उभार

बिहार के प्रमुख शहरों में कोचिंग संस्थानों का बोलबाला है। ये संस्थान छात्रों और अभिभावकों की मजबूरी का दोहन कर रहे हैं। एक-एक छात्र से लाखों रुपये की फीस वसूली जाती है। इस पूरी व्यवस्था पर न कोई सरकारी नियंत्रण है, न ही कोई जवाबदेही।

3.3. डिग्री की दुकानदारी

अनेक प्राइवेट कॉलेज और विश्वविद्यालय डिग्री बेचने के अड्डे बन चुके हैं। बिना पढ़ाई के, केवल पैसे देकर डिग्री पाना अब कोई असंभव कार्य नहीं रह गया है। इसका परिणाम यह है कि नौकरी पाने वाले युवाओं में ज्ञान का अभाव है और बेरोजगारी आसमान छू रही है।

4. विकास की झूठी तस्वीर: पोस्टर में चमक, ज़मीनी हालात में सड़ांध

4.1. घोषणाओं का मायाजाल

हर वर्ष सरकार करोड़ों के प्रोजेक्ट्स की घोषणाएं करती है – एक्सप्रेसवे, मेडिकल कॉलेज, स्मार्ट सिटी, डिजिटल बिहार आदि। लेकिन इन घोषणाओं का एक बड़ा हिस्सा फाइलों तक सीमित रह जाता है। जो काम होते भी हैं, उनमें गुणवत्ता का घोर अभाव है।

4.2. आंकड़ों का खेल

सरकारी आंकड़ों में बिहार की GDP ग्रोथ और मानव विकास सूचकांक में सुधार दिखाया जाता है, पर ज़मीनी हकीकत में गांव के स्कूल, अस्पताल, सड़क और बिजली की हालत बदतर है। ‘डिजिटल बिहार’ कहने वाले जिले आज भी 2G नेटवर्क और बिजली कटौती से जूझते हैं।

5. युवाओं और सामाजिक चेतना के लिए अपील

5.1. युवाओं को माफिया तंत्र से बाहर लाना

शराब, बालू और शिक्षा माफिया का तंत्र युवाओं को अपराध की ओर धकेल रहा है। यह जरूरी है कि युवाओं को रोजगार, तकनीकी प्रशिक्षण और सामाजिक मार्गदर्शन दिया जाए ताकि वे इस अंधे कुएं से बाहर निकल सकें।

5.2. नागरिकों का जनांदोलन

अब वक्त आ गया है कि बिहार के आम नागरिक, शिक्षक, पत्रकार, किसान, महिला संगठन – सब एकजुट होकर माफिया तंत्र के खिलाफ आवाज़ उठाएं। सरकारें तब तक नहीं जागेंगी, जब तक जनता सड़कों पर उतरकर सवाल नहीं पूछेगी।

5.3. मीडिया की भूमिका

स्वतंत्र, निष्पक्ष और निडर पत्रकारिता आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। मीडिया को न केवल माफिया का पर्दाफाश करना चाहिए, बल्कि सरकार से लगातार सवाल भी पूछना चाहिए।


बिहार का इतिहास गौरवशाली रहा है, परंतु वर्तमान की यह त्रासदी उसे अपमान की ओर ले जा रही है। शराब माफिया ने समाज की रीढ़ तोड़ी, बालू माफिया ने पर्यावरण और मजदूर की रोटी छीनी, और शिक्षा माफिया ने भविष्य को अंधकार में धकेल दिया। इस त्रिकोणीय माफिया तंत्र के विरुद्ध एकजुट होकर खड़ा होना समय की सबसे बड़ी पुकार है।

सरकार को चाहिये कि वह ‘विकास’ की खोखली बयानबाज़ी छोड़कर जमीनी सच स्वीकार करे और वास्तविक सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाए। यदि यह नहीं हुआ, तो बिहार एक सामाजिक और नैतिक पतन का ऐसा उदाहरण बन जाएगा, जहां केवल अपराध और छल की राजनीति बचेगी।

लेखक परिचय:
डॉ. राकेश दत्त मिश्र – भारतीय जन क्रांति दल के राष्ट्रीय महा सचिव, दिव्य रश्मि के सम्पादक,समाजशास्त्री, राजनीतिक विश्लेषक एवं सामाजिक चेतना के सक्रिय हस्ताक्षर। आप वर्षों से बिहार की सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर लेखन कर रहे हैं। समाज में न्याय, जागरूकता और आत्मसम्मान को पुनर्स्थापित करना आपकी लेखनी का उद्देश्य है।
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