मन्नत की चाबियों का पेड़
किसी पुराने मंदिर के पीछे
एक विशालकाय वृक्ष खड़ा है
जिसके गोल तने पर
हवा के संग झूलती हैं
सैकड़ों चाबियाँ —
जंग लगी, चमकती,
टूटी हुई या नई सी।
हर चाबी,
किसी अनकहे ख़्वाब की आवाज़ है,
जो वक्त की जेब में
सिक्कों की तरह खनकती रही।
किसी ने वहाँ
अपनी माँ की साँसें टांगी हैं,
किसी ने नौकरी की उम्मीद,
तो किसी ने बाँझ आँखों में पलता
एक नाम, जो कभी पुकारा नहीं गया।
पेड़ चुप है,
पर उसकी छाल में
हज़ारों दुआएँ उग आई हैं।
हर पत्ता
किसी की थमती सांस से फड़फड़ाता है।
और जब हवा
धीरे से इन चाबियों को छूती है,
तो लगता है
जैसे कोई दरवाज़ा
कहीं… बहुत भीतर…
थोड़ा-थोड़ा खुलने लगा है।
नहीं,
हर ताला नहीं खुलता एक साथ—
पर हर चाबी
हमें यकीन सिखाती है।
कि मन्नतें
सिर्फ माँगने की चीज़ नहीं,
वे रोपनी पड़ती हैं
विश्वास की मिट्टी में,
सींचनी होती हैं
सब्र के पानी से।
और जब वक़्त की धूप
ठीक कोण पर पड़ती है,
तो एक चाबी
टिप-टिप करती है
आसमान की ओर।
हमें बस
देखना होता है उस दिशा में
जहाँ आशा
पेड़ की तरह अडिग खड़ी रहती है,
और चाबियाँ
घंटियों की तरह
भविष्य की आहट देती हैं।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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