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धर्म के मूल्यों का अपमान: बिहार धार्मिक न्यास परिषद् की विडंबना

धर्म के मूल्यों का अपमान: बिहार धार्मिक न्यास परिषद् की विडंबना

✍️ डॉ. राकेश दत्त मिश्र, राष्ट्रीय महासचिव, भारतीय जन क्रांति दल डेमो

भारत, विशेष रूप से बिहार, प्राचीन धार्मिक परंपराओं, तीर्थस्थलों, और पुरोहित परंपरा का केंद्र रहा है। यहाँ धर्म केवल एक विश्वास नहीं, अपितु जीवन पद्धति है। ऐसे में बिहार जैसे सांस्कृतिक-धार्मिक राज्य में धार्मिक न्यास परिषद की स्थापना यह सुनिश्चित करने के लिए की गई थी कि धार्मिक स्थलों, तीर्थों, मंदिरों, पुजारियों और जनता के बीच एक सशक्त, पारदर्शी और श्रद्धापूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था रहे। परंतु विडंबना यह है कि आज इस संस्था की बागडोर एक ऐसे व्यक्ति को सौंप दी गई है, जिसे न धर्म का शास्त्रीय ज्ञान है, न साधना का अनुभव, और न ही समाज में कोई धार्मिक सेवा का इतिहास। यह न केवल एक त्रासदी है, बल्कि धर्म और श्रद्धा का खुलेआम अपमान भी है।

धर्म क्या है और कौन उसका प्रतिनिधि हो सकता है?

धर्म का अर्थ केवल पूजा-पाठ या कर्मकांड तक सीमित नहीं है। धर्म वह है जो धारण करने योग्य है — सत्य, करुणा, सेवा, त्याग और समाज कल्याण का मार्ग। ऐसे में धार्मिक न्यास परिषद जैसे संस्थानों के नेतृत्व के लिए जरूरी है कि व्यक्ति स्वयं धार्मिक मूल्यों में रचा-बसा हो, वेद-शास्त्रों का अनुयायी हो, समाज सेवा का लंबा अनुभव रखता हो और तीर्थ-पुरोहित समाज की पीड़ा और परंपरा को समझता हो।

जब किसी धर्मनिरपेक्ष, प्रशासनिक या राजनीतिक व्यक्ति को केवल राजनीतिक लाभ या सिफारिश के आधार पर इस परिषद का अध्यक्ष बना दिया जाए, तो इसका सीधा अर्थ होता है — धार्मिक आस्थाओं की हत्या।

बिहार में वर्तमान नियुक्ति: चिंताजनक संकेत

बिहार में धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष के रूप में जिस व्यक्ति को नियुक्त किया गया है, उसका न तो कोई धार्मिक प्रशिक्षण है, न कोई तीर्थ संबंधी अनुभव, न वह किसी धार्मिक आंदोलन का हिस्सा रहा है, और न ही पंडा-पुरोहित समाज या मंदिर व्यवस्था के प्रति उसकी कोई स्पष्ट संवेदनशीलता रही है। ऐसे व्यक्ति से अपेक्षा करना कि वह धार्मिक न्यास परिषद को सुचारू रूप से चला पाएगा, अपने आप में एक कोरी कल्पना और राजनीतिक दुस्साहस है।

धार्मिक न्यास परिषद का कार्य केवल फंड का प्रबंधन या मंदिरों की संपत्ति की निगरानी नहीं है — इसका कार्य है धर्म की रक्षा, पुरोहितों का कल्याण, मंदिरों का जीर्णोद्धार, भक्तों की सुविधा, धार्मिक शिक्षा का प्रसार और तीर्थ स्थलों की गरिमा की रक्षा। यह कार्य किसी "प्रशासनिक मैनेजर" का नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक सेवक का होना चाहिए।

तीर्थ-पुरोहित समाज की उपेक्षा

बिहार के विभिन्न तीर्थस्थलों — गया, पावापुरी, राजगीर, देवघर, मंदार, विशुनपुर, कक्कड़घाट, बक्सर आदि — में हजारों वर्षों से पंडा-ब्राह्मण समाज श्रद्धालुओं की धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता आ रहा है। ये समाज, पीढ़ियों से धर्म की लौ जलाए हुए हैं। परंतु दुखद है कि इनकी भागीदारी को दरकिनार कर, उन्हें अपमानित कर, ऐसे व्यक्ति को शीर्ष पर बैठा दिया गया है जो इनके धर्माचरण को समझ ही नहीं सकता।

क्या यही सामाजिक न्याय है? क्या यही लोक सेवा का आदर्श है?

राजनीतिक हस्तक्षेप बनाम धार्मिक स्वायत्तता

राजनीति का धर्म में हस्तक्षेप जितना विनाशकारी हो सकता है, इसका उदाहरण यही हालिया नियुक्ति है। धर्म की स्वायत्तता, उसकी गरिमा, उसकी परंपरा तब नष्ट हो जाती है जब नेता धर्मगुरु बनने की कोशिश करते हैं और धर्माचार्यों को उपेक्षित कर दिया जाता है।

यह विडंबना नहीं, धर्म का परिहास है।

धार्मिक न्यास परिषद के लिए आवश्यक योग्यताएँ

धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष पद हेतु निम्नलिखित योग्यताओं को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए:


व्यक्ति का स्वयं धार्मिक जीवन रहा हो — उपासना, त्याग और सेवा की परंपरा में।


वेद, पुराण, स्मृति, उपनिषद आदि ग्रंथों का अध्ययन और श्रद्धा।


मंदिर व्यवस्था, पुजारियों की आवश्यकता, और तीर्थों की परंपरा की समझ।


तीर्थ-पुरोहित समाज से आत्मीय जुड़ाव।


जनता और श्रद्धालुओं के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण।

यदि इस कसौटी पर वर्तमान नियुक्ति को परखा जाए, तो स्पष्ट है कि यह नियुक्ति अयोग्यता की श्रेणी में आती है।

समाज को एकजुट होकर आवाज़ उठानी होगी

आज जरूरत है कि धर्माचार्य, संत समाज, पुरोहित वर्ग, बुद्धिजीवी और जागरूक नागरिक इस अपमानजनक स्थिति के खिलाफ आवाज़ उठाएँ। यह केवल एक संस्था का सवाल नहीं है, बल्कि हमारी आस्था, हमारी परंपरा और हमारे आत्मसम्मान का प्रश्न है।

धर्म को राजनीति का औजार नहीं बनने देना चाहिए। धार्मिक संस्थानों में केवल योग्य, तपस्वी, ईमानदार, और आस्थावान व्यक्ति ही नियुक्त किए जाएँ — यही न्याय है, यही संविधान की आत्मा है।


धार्मिक न्यास परिषद जैसे प्रतिष्ठित पदों पर यदि धर्म-विमुख और राजनीतिक लाभार्थी व्यक्तियों को बैठाया जाएगा, तो धर्म का ह्रास और समाज का विनाश निश्चित है।

धर्म के नाम पर अपमान अब और नहीं सहा जाएगा। धर्म का सम्मान उसकी आत्मा से जुड़ी ईमानदार व्यवस्था में है — न कि किसी कुर्सीधारी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा में।
✍️ डॉ. राकेश दत्त मिश्र
राष्ट्रीय महासचिव,
भारतीय जन क्रांति दल डेमो

(लेखक सामाजिक चिंतक एवं धर्म-संवेदनशील राजनीतिक कार्यकर्ता हैं)

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