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क्या सरकार को सुयोग्य कर्मचारी नहीं चाहिए? – सरकारी संस्थानों की बदहाली पर उठते सवाल

क्या सरकार को सुयोग्य कर्मचारी नहीं चाहिए? – सरकारी संस्थानों की बदहाली पर उठते सवाल

रिपोर्टर: लक्ष्मण पाण्डेय
देशभर में सरकारी अस्पतालों, विद्यालयों और सार्वजनिक संस्थानों की हालत दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। कहीं मशीनें खराब पड़ी हैं, तो कहीं डॉक्टर गायब। स्कूलों में शिक्षकों की कमी है और जिनकी नियुक्ति है, उनका ज्ञान और पढ़ाने की गुणवत्ता सवालों के घेरे में है।

इस पर एक बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि क्या सरकार वास्तव में योग्य लोगों को सरकारी सेवाओं में देखना चाहती है?

सरकारी पदों पर नियुक्त अधिकांश कर्मियों की कार्यकुशलता और उनके पद की आवश्यकता के बीच बड़ा अंतर देखा जा रहा है। यही कारण है कि सरकारी अस्पतालों की दशा जर्जर है और सरकारी स्कूलों में शिक्षण स्तर गिरता जा रहा है। चौंकाने वाली बात यह है कि बड़े सरकारी अधिकारी भी अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में नहीं भेजते और न ही अपना इलाज सरकारी अस्पतालों में करवाना पसंद करते हैं।

सरकारी व्यवस्था में फंसी 'अयोग्यता की राजनीति'
विशेषज्ञों का मानना है कि सरकारें जानबूझकर ऐसे लोगों की नियुक्ति करती हैं जो या तो काम करना नहीं जानते या फिर जानबूझकर कार्य से कतराते हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि योग्य और विवेकशील व्यक्ति अगर किसी पद पर आ गया तो वह शासन के मनमाफिक काम नहीं करेगा। वह कानून के अनुरूप निर्णय लेगा और भ्रष्टाचार या लापरवाही के सामने खड़ा होगा।

इसलिए एक अघोषित नीति सी बन गई है कि विभागों में ऐसे लोगों की नियुक्ति की जाए जो "धर्रे पर" चलें, सवाल न करें, और ऊपर से मिले निर्देशों को ही अंतिम मानें – चाहे वह गलत ही क्यों न हों।

प्रशासनिक चक्रव्यूह में 'योग्यता' हाशिए पर
रेलवे और सेना जैसे कुछ विभागों को छोड़ दें तो बाकी अधिकांश सरकारी संस्थान अपने मूल उद्देश्यों से भटक चुके हैं। इन विभागों में या तो कर्मचारी अपने दायित्व को लेकर गंभीर नहीं हैं या फिर उन्हें कार्य करने का समुचित ज्ञान ही नहीं है। एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “जो कर्मचारी मेहनत करता है, उसे व्यवस्था चूस लेती है और जो चापलूसी करता है, वो तरक्की करता है।”

जनता के पैसे से चल रही 'प्रदर्शनहीन व्यवस्था'
सरकारों के पास संसाधन हैं, बजट है, योजनाएं हैं – पर उन्हें लागू करने वाले लोगों में न नीयत है और न ही योग्यता। परिणामस्वरूप लाखों-करोड़ों की योजनाएं कागज़ पर ही दम तोड़ देती हैं। वही जनता जो कर देती है, वह बदले में गुणवत्तापूर्ण सेवा की अपेक्षा करती है, परन्तु उसे मिलती है उपेक्षा और अव्यवस्था।

सरकारी संस्थानों की दुर्दशा का समाधान क्या है?
नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता
केवल डिग्री नहीं, बल्कि व्यावहारिक ज्ञान और नैतिक मूल्यों को भी मापदंड बनाया जाना चाहिए।
योग्यता आधारित पदोन्नति
वरिष्ठता की बजाय कार्यकुशलता पर आधारित पदोन्नति से कर्मियों को प्रेरणा मिलेगी।
जनता की निगरानी प्रणाली
शिकायत निवारण तंत्र को मज़बूत बनाया जाए और जवाबदेही तय की जाए।

सरकारी तंत्र की कमजोरी केवल व्यवस्था की विफलता नहीं, बल्कि उस सोच की विफलता है जो "योग्यता से डरती है।" जब तक सरकारें ऐसी सोच से ऊपर नहीं उठेंगी, तब तक सरकारी संस्थानों में बदलाव की उम्मीद केवल एक सपना ही रहेगा।

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