लमर के लमहर भईला से
लमर के लमहर भईला से ,जल्दी बियाह ना हो जाई ।
दसो गो बेटी जनमला से ,
बेटी अधिकाह ना हो जाई ।।
जबतक कुछ ना बिगाड़ीं ,
मुॅंह करिया सियाह ना होई ।
तबतक कुछ भेंटा ना पाई ,
जबतक कभी चाह ना होई ।।
दोसरा के बढ़ल देख के ,
कहियो नजर हिकाह ना होई ।
जबतक घमंड में डूबब ना ,
कोई से कबहुॅं डाह ना होई ।।
जबतक एक एक दिन बीती ना ,
कबहुॅं पूरा कोई माह ना होई ।
जबतक कोई पीड़ित होई ना ,
मन में कबहुॅंओ आह ना होई ।।
जबतक मन नियंत्रित रही ,
खराब कहियो निगाह ना होई ।
जबतक विचार भल ना रही ,
पेड़ अईसन छाॅंह ना होई ।।
जबतक कहीं आग ना लागी ,
तबतक आग के धाह ना होई ।
जबतक आपन चाह ना बदली ,
तबतक कवनों राह ना होई ।।
सुख ना बदली दुःख में तबतक ,
जबतक कोई के हाह ना होई ।
अंत ना होई जीवन के तबतक ,
कबहुॅं संस्कार दाह ना होई ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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