सामाजिक बंधनों को प्रगाढ़ बनाती है - यह परंपरा है- ‘नोतरा’
दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम सेजहाँ एक ओर आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था में ऋण लेने के लिए दस्तावेज़ों का अंबार, कर्ज़ की गारंटी, और ऊँचे ब्याज दरों का बोझ होता है, वहीं दक्षिणी राजस्थान और उसके आसपास के आदिवासी अंचलों में आज भी एक ऐसी सामाजिक परंपरा जीवित है, जो न सिर्फ आर्थिक जरूरतों को पूरी करती है, बल्कि सामाजिक बंधनों को और प्रगाढ़ बनाती है। यह परंपरा है- ‘नोतरा’।
‘नोतरा’ एक ऐसी परंपरा है, जो न तो किसी बैंक का हिस्सा है, न ही इसमें दस्तावेजों की जरूरत होती है। इसमें कोई कानूनी अनुबंध नहीं होता है, लेकिन पूरा लेन-देन, भरोसे और समाज की सामूहिक भागीदारी, पर आधारित होता है।
‘नोतरा’ शब्द का सीधा संबंध निमंत्रण से है। यह किसी व्यक्ति को सामाजिक आयोजन के लिए आमंत्रित करने के साथ-साथ उससे परस्पर सहायता की अपेक्षा भी दर्शाता है। यह परंपरा आदिवासी संस्कृति की आत्मा को दर्शाती है, जिसमें एक व्यक्ति की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पूरा समाज खड़ा हो जाता है।
यह परंपरा मुख्यतः राजस्थान के बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, मध्यप्रदेश के झाबुआ और गुजरात के सीमावर्ती इलाकों में प्रचलित है। जनजातीय समुदायों जैसे भील, मीणा, गरासिया, आदि में यह विशेष रूप से जीवंत है।
नोतरा का मुख्य उद्देश्य आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों को समाज की सहायता से सशक्त करना है। इसमें जरूरतों पर सहयोग दिया जाता है, जैसे- शादी-ब्याह, बीमारी इलाज, मकान निर्माण एव अन्य मांगलिक आयोजन। लेकिन मृत्युभोज के लिए नोतरा नहीं किया जाता है, क्योंकि यह सहयोगात्मक खुशी के आयोजनों के लिए सीमित रहता है।
गांव का मुखिया या परिवार जिसके यहाँ आयोजन होना होता है, पहले गांव के पंचों से संपर्क करता है। पंच यह सुनिश्चित करता हैं कि उसी दिन गांव में किसी अन्य परिवार का नोतरा न हो। इससे सहयोग की पूर्णता बनी रहती है। शादी व मांगलिक आयोजनों में पीले चावल या निमंत्रण पत्र द्वारा बुलावा दिया जाता है और अन्य आर्थिक जरूरतों के लिए कुमकुम मिश्रित चावल दिया जाता हैं। नोतरे आयोजन वाले दिन गांव का हर परिवार आयोजन स्थल पर आता है। आयोजनकर्ता को तिलक लगाकर सम्मान देता है और हर परिवार अपनी सामर्थ्य के अनुसार नकद राशि या वस्तु देता है। इस धनराशि का हिसाब गांव का कोई वरिष्ठ और शिक्षित व्यक्ति रखता है। आयोजन के बाद यह सारी राशि आयोजनकर्ता को सौंप दी जाती है।
इस परंपरा में योगदान राशि का कोई न्यूनतम या अधिकतम मानक नहीं होता है। हर व्यक्ति अपनी क्षमता और पिछली बार मिले सहयोग के अनुसार मदद करता है। उदाहरण के तौर पर, यदि किसी परिवार को पहले किसी ने ₹500 दिए थे, तो अगली बार वह ₹600 या ₹700 देकर उस सहायता का ऋण चुकाता है और संबंध को और प्रगाढ़ बनाता है। इस प्रकार नोतरे की राशि हर बार बढ़ती जाती है और समाज में एक आर्थिक सुरक्षा चक्र बना रहता है। नोतरा में कोई दस्तावेज की आवश्यकता नहीं होती है और न ही व्याज दर होता है। यानि विश्वास और सामाजिक बंधन, सामाजिक और नैतिकता, गरीब से गरीब व्यक्ति भी नोतरा में शामिल होता है ।
जो परिवार बैंक से ऋण लेने में असमर्थ हैं, उनके लिए नोतरा जीवनदायिनी प्रणाली बन जाता है। गांव के हर आयोजन में सभी परिवारों की भागीदारी होता है, सामाजिक ताने-बाने मजबूत होता है। हर सहयोग का लेखा-जोखा सार्वजनिक रूप से होता है। समाज का कोई व्यक्ति उसका हिसाब रखता है जिससे विश्वास बना रहता है। आवश्यकता के समय अकेला महसूस न होना, किसी भी मनुष्य को मानसिक रूप से बल देता है।
ग्रामीणों का मानना है कि "नोतरा प्रथा से कोई भी आयोजन बोझ नहीं बनता। पूरा समाज मिलकर उसे अपना आयोजन मानता है।" "शादी में पूरा गांव साथ रहता है। कोई कागज नहीं, कोई चिंता नहीं, सिर्फ अपनापन।" "गांव में किसने कितना दिया, किसे कब मिला, सबका हिसाब होता है। लेकिन कागज से ज्यादा दिल का हिसाब चलता है।"
नोतरा केवल आर्थिक सहयोग का नाम नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक परंपरा है। इसमें बोली-बानी, पारंपरिक पोशाक, लोकगीत, और आपसी आदान-प्रदान का सम्मिलन होता है। यह परंपरा आदिवासी समाज को बाहरी दुनिया के बदलावों से सुरक्षित रखता है। आत्मनिर्भरता और पारस्परिक भरोसा इसकी नींव है।
जहाँ आजकल गांवों में भी लोन ऐप्स, ईएमआई और सूदखोरों की घुसपैठ हो रही है, वहां नोतरा जैसी परंपराएँ एक सकारात्मक विकल्प बनकर सामने आती हैं। यह केवल आदिवासियों के लिए ही नहीं, बल्कि अन्य समाजों के लिए भी एक सस्टेनेबल फाइनेंस मॉडल बन सकता है। सरकार अगर चाहे तो इस परंपरा को पहचान देकर ‘सामुदायिक वित्तीय सहयोग योजना’ के रूप में प्रमोट कर सकती है।
नोतरा परंपरा यह दिखाती है कि बिना किसी बैंक, कर्जदाता या ब्याज के भी, समाज एक-दूसरे की सहायता कर सकता है। यह आदिवासी समाज की आत्मनिर्भरता, विश्वास और सहयोग का प्रतीक है। जहाँ विश्वभर में माइक्रोफाइनेंस और सहकारिता की नई-नई मॉडल बनाई जा रही हैं, वहीं भारत के गांवों में सदियों पुरानी नोतरा जैसी परंपराएं पहले से ही आर्थिक समावेशन और सामाजिक सशक्तिकरण का आदर्श मॉडल प्रस्तुत कर रही हैं।
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