“डे” का दिखावा बनाम संबंधों की सच्चाई: एक सांस्कृतिक विडंबना
✍️ डॉ. राकेश दत्त मिश्रहम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहाँ रिश्तों की आत्मा खोती जा रही है और प्रतीकों की चकाचौंध में भावनाएं दम तोड़ रही हैं। आज जब दुनिया Father's Day, Mother's Day, Siblings Day, Friendship Day, Valentine's Day जैसे “डे कल्चर” में रंगी जा रही है, तब यह प्रश्न मौजूं है कि क्या इन प्रतीकात्मक आयोजनों से हम वास्तव में अपने रिश्तों को निभा रहे हैं? या यह केवल पाश्चात्य प्रभाव की वह धुंध है, जिसमें हमारी भारतीय पारिवारिक व्यवस्था धुंधला रही है?
हमारे समाज में जहाँ माता-पिता, भाई-बहन, गुरु और मित्र को जीवनभर श्रद्धा, सेवा, प्रेम और समर्पण के साथ देखा जाता था, वहीं आज लोग सोशल मीडिया पर पोस्ट डालकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेते हैं। यही है आज की विडंबना – जब हमारे अपने माता-पिता जीवित हैं, पास हैं, तब हम उन्हें 'दिन विशेष' पर याद करने का ढोंग करते हैं, लेकिन जीवन की रोजमर्रा की दौड़ में उन्हें भूल जाते हैं।
1. रिश्तों की पवित्रता बनाम 'डे' का प्रदर्शन
भारतीय परंपरा में माता-पिता की पूजा की जाती रही है। वेदों में कहा गया है—
“मातृ देवो भव। पितृ देवो भव।”
यहाँ ‘माँ’ और ‘पिता’ देवताओं के समकक्ष माने गए हैं। हमारी संस्कृति में तो हर दिन मातृ-पितृ दिवस है, हर दिन बंधुत्व-दिवस है। हम उनके चरणों में बैठकर आशीर्वाद लेते हैं, उनकी सेवा को धर्म समझते हैं, उनका सान्निध्य ही पर्व मानते हैं।
इसके विपरीत, “डे कल्चर” हमें सिखाता है कि एक दिन उन्हें फूल दो, ग्रीटिंग कार्ड दो, सोशल मीडिया पर फोटो पोस्ट करो और अगले दिन फिर वही उपेक्षा, वही अकेलापन। यह एक तरह से हमारी आत्मा से, रिश्तों की गहराई से, दूरी का द्योतक बन चुका है।
2. पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण
यह सवाल बेहद जरूरी है कि हम क्यों अंग्रेजों के इस 'डे-संस्कृति' को सिर पर बिठा बैठे हैं? अंग्रेजों ने हमारे देश पर सिर्फ राजनीतिक ही नहीं, सांस्कृतिक गुलामी भी थोपी।आज हम वही कर रहे हैं जो उन्होंने हमें सिखाया—रिश्तों को भावनाओं से नहीं, अवसरों से जोड़ना।
Mother’s Day पर हम माँ को एक गुलाब देकर संतुष्ट हो जाते हैं, लेकिन वह माँ जिसने हमें जन्म दिया, रातों की नींदें खोई, उसका रोज़ पैर दबाने की याद नहीं रहती।
Father’s Day पर पिता के साथ एक रील बना ली जाती है, लेकिन उनकी जिम्मेदारियों का बोझ, उनके अकेलेपन का दर्द, उनके सन्नाटे कोई नहीं सुनता।
3. सांस्कृतिक विस्मृति और आत्मवंचना
भारत की संस्कृति में कभी रिश्ते ‘समयबद्ध’ नहीं थे। माँ-बाप के चरणों में बैठने के लिए कोई दिन तय नहीं होता था। भाई-बहन के स्नेह के लिए रक्षा बंधन जैसा पर्व पर्याप्त था—वो भी एक गहरा भाव, एक रक्षात्मक व्रत।
लेकिन आज हम इतने यांत्रिक हो गए हैं कि हमें रिश्तों को निभाने के लिए विदेशी ‘कैलेंडर रिमाइंडर’ की जरूरत पड़ रही है।
यह आत्मवंचना नहीं तो और क्या है? जब रिश्ते हमारे जीवन के साँस-साँस में रचे-बसे थे, अब वे ‘इंस्टाग्राम स्टोरी’ और ‘फेसबुक पोस्ट’ तक सिमट कर रह गए हैं।
4. मीडिया और बाजारवाद का गठजोड़
इन “डे” का सबसे बड़ा लाभ किसे होता है? बाज़ार को।
Greeting Cards, Chocolates, Gifts, Dining Offers—सभी पर भारी डिस्काउंट।
कारण साफ है—भावनाओं का बाज़ारीकरण।
माँ-बाप के प्रेम को एक कार्ड में समेट देना, भाई-बहन के रिश्ते को इंस्टाग्राम रील में कैद कर देना, यह हमारे मूल्यों की हत्या नहीं तो और क्या है?
आज मीडिया और मार्केट मिलकर हमें सिखा रहे हैं कि 'प्रेम भी दिखाना पड़ता है', 'भावनाएं भी बिकती हैं' और 'रिश्ते भी ट्रेंडिंग हो सकते हैं'। यही है आज का सबसे बड़ा छल।
5. आत्ममंथन की आवश्यकता
इस परिस्थिति में एक गहन आत्ममंथन की आवश्यकता है—
क्या हम सच में अपने रिश्तों को निभा रहे हैं?
क्या हम माता-पिता को वही सम्मान दे रहे हैं जो भारतीय संस्कृति में दिया जाता रहा है?
क्या हम भाई-बहनों को सिर्फ ‘सिबलिंग डे’ पर याद करते हैं?
क्या हमारी संवेदना सिर्फ ‘ट्रेंड’ और ‘हैशटैग’ के अधीन हो गई है?
यदि उत्तर नकारात्मक है, तो हमें समझना चाहिए कि हम एक सांस्कृतिक आत्मविस्मृति के दौर में जी रहे हैं।
6. समाधान और संकल्प
हमें यह तय करना होगा कि—
हम अपने हर दिन को मातृ-पितृ दिवस बनाएँ।
हम रिश्तों को समय और सम्मान दें, न कि प्रतीकों और प्रदर्शन से तौलें।
हम अपने बच्चों को भारतीय मूल्य सिखाएँ, जिससे वे आने वाले समय में “डे संस्कृति” नहीं, “जीवन संस्कृति” में विश्वास रखें।
हम अपने त्योहारों की गहराई समझें—रक्षा बंधन, गुरुपूर्णिमा, दीपावली, होली—हर पर्व संबंधों को गहराता है। इसमें किसी ‘इंटरनेशनल डे’ की जरूरत नहीं होती।
7. ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टांत
रामायण में श्रीराम—पिता की आज्ञा पर वनवास स्वीकार करते हैं, यह 'फादर्स डे' की नहीं, आजीवन समर्पण की मिसाल है।
श्रवण कुमार—जिन्होंने अंधे माता-पिता को कांवड़ में तीर्थ यात्रा कराई, क्या उन्हें 'पैरेंट्स डे' की ज़रूरत थी?
महाभारत में कर्ण और द्रौपदी—रिश्तों के सम्मान और चुनौती की उच्चतम कसौटी पर खरे उतरते हैं।
8. पश्चिमी समाज का पारिवारिक संकट
यूरोप और अमेरिका में परिवार टूट रहे हैं, वृद्धाश्रमों में माता-पिता अकेले हैं, और भावनाएँ कृत्रिम हो गई हैं। उन्हीं की नकल करके हम किस दिशा में जा रहे हैं?
9. भारतीय त्योहार बनाम 'डे कल्चर'
रक्षा बंधन—एक भाई-बहन के संबंध का श्रेष्ठ पर्व है।
गुरुपूर्णिमा—गुरु को अर्पित एक संपूर्ण दिन।
मातृ नवमी, पितृ पक्ष, जन्माष्टमी—इन सभी त्योहारों का मूल रिश्तों में रचा-बसा है।
10. बच्चों को कैसे दें भारतीय संस्कार?
घर में मात-पिता की पूजा कराएं।
दैनिक पैर छूने की आदत डालें।
घर के बुजुर्गों के अनुभव साझा करें।
टीवी-फोन की जगह पारिवारिक संवाद बढ़ाएं।
11. समाधान और नव संकल्प
हम अपने हर दिन को "मातृ-पितृ दिवस" बनाएं।
रिश्तों को "समय और सम्मान" दें, प्रतीकों और पोस्ट से नहीं।
बच्चों को अपने महापुरुषों की कहानियाँ सुनाएं।
विदेशी ‘डे’ के पीछे भागने के बजाय भारतीय संस्कृति का आदर करें।
रिश्ते ट्रेंड से नहीं, त्याग, तपस्या और समर्पण से बनते हैं। 'डे' संस्कृति हमारे संबंधों की जड़ों को काट रही है। यह समय है कि हम जागें, सोचें और लौटें—अपनी आत्मा की ओर, अपनी संस्कृति की ओर, अपनी संवेदना की ओर।
हमारी संस्कृति कहती है—
"रोज चरण छुओ, रोज सम्मान दो, रोज सेवा करो—यही असली ‘डे’ है।"
संस्कृति की जय। रिश्तों की विजय।
संस्कृति को आत्मा बनाएं, प्रदर्शन नहीं
एक समाज तभी जीवित रहता है जब उसके रिश्ते जीवंत होते हैं। और रिश्ते तभी जीवंत रहते हैं जब वे भावनाओं पर टिके होते हैं, न कि केवल विशेष दिनों पर आधारित होते हैं।
हमें यह समझना होगा कि "डे" मनाने से किसी का महत्व नहीं बढ़ता, बल्कि रोजमर्रा की सेवा, संवाद, सम्मान और साथ रहने की भावना ही असली मूल्य है।
अंग्रेजों की मानसिकता से निकलकर हमें अपनी भारतीय सांस्कृतिक चेतना की ओर लौटना होगा—जहाँ जीवन ही उत्सव है, और रिश्ते ही परम धर्म।
आज इस लेख के माध्यम से हम सभी संकल्प लें कि हम केवल एक दिन नहीं, हर दिन अपने माता-पिता, भाई-बहनों, गुरुजनों, जीवनसाथी और मित्रों के प्रति कृतज्ञता, सेवा और प्रेम प्रकट करेंगे।
यही होगी हमारी संस्कृति की सच्ची रक्षा।🙏 भारत माता की जय।
🙏 संस्कृति की जय।
🙏 संबंधों की जय।
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