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अकाल के बाद की सुबह

अकाल के बाद की सुबह

(नागार्जुन को श्रद्धांजलि)

कई दिनों की खामोशी ने
भीतर तक खा डाला था —
भीतों पर रेंगती छिपकलियाँ
जैसे घड़ी-घड़ी डर दर्ज कर रही थीं।


कानी कुतिया की आँखे
अब भी बुझी थीं,
पर शरीर के नीचे
थोड़ी गर्माहट बाकी थी —
मानो उम्मीद ने पाँव समेट
पल भर को सुस्ताना सीखा हो।

छप्पर की दरारों से
आती धूप ने चुपके से
घर के अंधेरे में एक उँगली रख दी,
और उसी क्षण
कौए ने पाँखें फड़फड़ाईं —
जैसे शोकसभा से कोई निकल आया हो
नई खबर लेकर।

कई दिनों बाद
जब धुआँ उठा —
तो वह सिर्फ चूल्हे का न था,
वह था आकाश में
फिर से जीवन की एक लकीर खींचना।

आँगन ने आह नहीं की,
वह मुस्कुराया —
भूख की दहलीज़ पर
जब पहली रोटी फूली
तो हँसी नहीं,
एक ठंडी साँस निकली —
"जीएंगे, अब भी जीएंगे।"

नागार्जुन की तरह
"कमळ" भी देख रहा है
उस अंतिम कोने की ओर —
जहाँ किसी भी भुखमरी के बाद
आदमी फिर से आदमी हो उठता है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ 
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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