"अडिग दीपक"
आंधियों की बस्तियों में एक दीप जल रहा है,
खा रहा झोंके अहर्निश, जूझता पल-पल रहा है।
न तमिस्रा से डरा है वह, न लहरों से घबराया,
अपने छोटे से आलोक में भी वह दीप मुस्काया।
बूँद-बूँद स्नेह बचाकर, हर झोंके को हरता है,
थरथराता है लौ में, पर हार कहाँ वह करता है।
चारों ओर तिमिर छाया, नभ भी रूठा सा लगता,
किन्तु वहीं, कोने में कोई दीपाकल्प बन जगता।
धरा काँपती है जब-जब तूफ़ानों की आहट से,
दीपक कहता, “चलो आगे—अडिग चरण राहों से।”
न हाथों में शस्त्र कोई, न पीठ पर ढाल धरी है,
केवल साहस, केवल श्रम की लौ उसमें भरी है।
न किसी ने उसे पूजा, न फूलों का हार मिला,
लेकिन फिर भी न रुका, न उसका प्रकाश हिला।
झोपड़ी की बाती लेकर, और घी आँसुओं का,
दीप बना वह धैर्य का, पथदर्शक उन धुनियों का।
हर घर, हर मन, हर पथ वह खुद को बाँट रहा है,
अंधकार से निडर होकर उजियारा छाँट रहा है।
बोलो! क्या हार मान ले उस अंधड़ की क्रूरता से?
जिसकी लौ जली निरंतर आत्मा की पूर्णता से?
एक नन्हा दीपक बनकर जीवन जो शिक्षा देता,
साहस, सत्य, धैर्य का दीप सतत जलता रहता।
कौन कहेगा—छोटा हूँ मैं? कौन कहे—निर्बल हूँ?
जब तक दीपक सा जला हूँ, मैं अजर-अचल हूँ!
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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