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बिक रहे...

बिक रहे...

रिश्ते नाते बिक रहे
देखो अब पैसों में।
बात नही बची अब
व्यवहार और शिष्टाचार की।
सब कुछ निर्भर करता है
बस अब तो पैसे पर।
इसलिए बिखर रहे रिश्तेदार
अब सब पैसों के अनुसार।।


समय चक्र की चाल भी
कैसे बदल रही।
भेष बदलकर अपने भी
अब रंग बदल रहे।
रिश्ता हो चाहे खून का
पर रिश्ता अलग बता रहे।
और कलयुग का एहसास
हम सबको करा रहे।।


कलयुग सतयुग का भी
अलग होता है महत्व।
सतयुग में सब कुछ
चलता था धर्मानुसार।
पर कलयुग में सब कुछ
चलता रावण राज्य जैसा।
इसलिए आज कल में
देखो कितना अंतर है।।


कलयुग में देखो तो
कोई नही है अपना।
सब के सब अवसरवादी है
इस कलयुग में।
ज्ञान बहुत पर बाटते
करते नही खुद अमल।
कहनी करनी का बस
खेल खेलते रहते।।


जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबई
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