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"प्राण और पाथेय"

"प्राण और पाथेय"

जीवन कितना हल्का होता है—
मानव की मुस्कान सा,
किसी शिशु की नर्म अँगुलियाँ
जैसे थामें हो उषा का रेशमी आँचल।


जब भर लिया किसी को
माँ की गोदी में—
या बाँहों में प्रियतम को,
तो लगता है—
धरती भी हँसती है,
नभ गाता है
और क्षण,
चिरंतन हो जाते हैं!


उल्लास की उस लहर में
हवा भी पायल पहन लेती है,
पत्ते गाते हैं,
और जीवन नृत्य करता है—
शब्दहीन,
स्वप्नमय।


किन्तु मृत्यु?


मृत्यु भारी होती है—
जैसे संचित पीड़ा युगों की,
जब थामती हो कंधा
किसी नीरव हुए प्रिय का,
तो असहाय हो उठता है हृदय।


हर पग,
मानो सौ युगों की पीड़ा ढोता है,
चिता पर
जब अंतिम बार रखा जाता है शरीर—
वो देह,
जो कल तक
संगिनी थी प्रीति की,
अब
शून्य है—
पर शून्य भी कितना भार लिए होता है!


उस ख़ामोश देह में
गूँजती हैं अनगिन भावनाएँ—
अनकही बातों की गाथाएँ,
स्पर्श जो छूट गए,
नेत्र जो अब भी कुछ कहना चाहते हैं।


ओ मृत्यु!
तेरी निःशब्दता में
कैसी अनंत ध्वनि है!
जीवन की हल्कापन
तेरे विपरीत—
संदेश है कोई गूढ़,
कि हल्का वही है
जिसमें प्रेम है, स्पर्श है, सजीवता है।


मृत्यु—
तेरा बोझ
केवल शरीर का नहीं,
एक संसार का होता है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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