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सिरफोड़ुआ मुहूर्त पर गहन शोध

सिरफोड़ुआ मुहूर्त पर गहन शोध

कमलेश पुण्यार्क 'गुरूजी'
सीता-शापित फल्गु की फैली रेत पर आज सुबह-सुबह कुछ अज़ीब नज़ारा देखने को मिला। दूर से सन्तुष्टि और स्पष्टी नहीं हो पा रही थी, इस कारण समीप जाना पड़ा।
पास पहुँच कर देखा तो उत्सुकता और बलवती हो गई, क्योंकि उत्सुकता जगाने वाले साक्षात् स्वनाम धन्य श्री श्री सोढ़नदासजी थे। आशा है आप इनके नाम, धाम और काम से अवगत अवश्य होंगे और यदि अवगत नहीं है तो होना चाहिए।
छोटी-बड़ी बाँस की सैकड़ों छड़ियों को किसी खास क्रम से फल्गु की रेत पर गाड़े हुए थे सोढ़नदासजी और वहीं एक ओर फटही दरी पर विभिन्न प्रकाशनों के पंचांग भी पसारे हुए थे। कुछ कागज और दो तीन अलग-अलग रंगों की कलमें भी पड़ी हुई थी। हाथ में एक छोटी छड़ी लिए हुए, कभी इस ओर तो कभी उस ओर चहलकदमी किए जा रहे थे—बड़ी बेसब्री के साथ, मानों कुछ भेदभरी बात या वस्तु की गहन खोज में हों।
मुझपर नजर पड़ते ही चवन्नियाँ मुस्कान विखेरते हुए बोले— “ आओ बबुआ ! बड़े अच्छे मौके से आए। मैं सोच ही रहा था कि कोई होता तो मदद करता । तुम एक काम करो—मैं जो बोलूँगा, उसे तुम उस कागज पर लिखते जाना और हाँ, जरुरत के मुताबिक अलग-अलग बातों के लिए अलग-अलग रंगों का इस्तेमाल करना न भूलना। ”
मेरी उत्सुकता का अभी शमन नहीं हो पाया था। अतः पूछना पड़ा—काका ! ये आप कर क्या रहे हैं—पहले पता तो चले। आपके सहयोग के लिए तो बन्दा सदा हाज़िर रहता ही है।
“ तुम नवयुवकों की ये ब्रेसब्री और टोकाटाकी मुझे जरा भी पसन्द नहीं । तुम्हें जान लेना चाहिए कि टोकटाक से किसी शुभ कार्य में भी टोक लग जाता है। खैर, जब तुमने मेरी गाड़ी का चेन पूल कर ही दिया है, तो कुछ जान-समझ लो इसके बावत। ” — छड़ी हिलाते हुए सोढ़नूकाका तेज-तरार कबड्डीबाज की तरह फेंटा समेटते हुए एक ओर बढ़कर, बड़े से वृत्त का आभास दे रहे लाठियों की ओर इशारा किए—
“ इधर देखो ये नौ बड़ी-बड़ी लाठियाँ हैं और इसके आगे वो कुछ अलग किस्म की बारह लाठियाँ है और उससे आगे थोड़ी अलग किस्म की सताइस छड़ियाँ हैं। ये नौ, बारह और सताईस का ही उठापटक है लोक प्रचलित जतरा-पतरा, जिसे पढ़ुओं की भाषा में पञ्चाङ्ग कहते हैं। नौ ग्रह, बारह राशियों और सताईस नक्षत्रों की गतिविधियों का ही जोड़-तोड़-परिणाम है ये पंचांग। दिन, तिथि, नक्षत्र, योग और करण—इन पाँच बुनियादी सूचनाओं के अतिरिक्त अन्य बहुत सी उपयोगी बातें समाहित होती हैं इसमें। ये कोई साधारण पतरा-पतरी नहीं है, बल्कि हम सनातनियों के पल-पल का दिशा निर्देशक है। पथ-प्रदर्शक है। लौकिक-पारलौकिक जीवनचर्या के हर काम को करने के लिए हम इसका सहारा लेते हैं। व्रत, त्योहार, विविध संस्कार, यज्ञानुष्ठान से लेकर मारण और चौरण जैसे हेय और निकृष्ट कार्यों के लिए भी मुहूर्त-विचार की परम्परा रही है हम सनातनियों की। किन्तु खेद की बात है कि आलसी, अल्पज्ञ, अनाड़ी, लापरवाह पेशेवरों के हाथों में पड़कर ये सब चौपट होता जा रहा है। पञ्चाङ्ग निर्माण कितना सूक्ष्म, संवेदनशील और जिम्मेवारी पूर्ण कार्य है, इस पर अद्यतन निर्माताओं का ध्यान ही नहीं जा रहा है। या कहो वे इसके प्रति बिलकुल लापरवाह हैं। उनका ध्यान सिर्फ इसी बात पर अटका हुआ रहता है कि कम्पिटीशनमार्केट में वे अब्बल कैसे रहें...कैसे अपने प्रतिद्वन्द्वी को पछाड़ें...कैसे किस तिगड़म से सबसे पहले, समय से पहले उनका पतरा बाजार में उतरे…। उनका ‘आउटर लुक’ तो आकर्षक हो, भले ही ‘इन्टरनली’ कितनी भी डंडीमारी क्यों न हुई हो...।
“… दरअसल पञ्चाङ्ग प्रकाशन को खानदानी पेशा समझ लिए हैं। खानदानी लोगों की ये गैरखानदानी करतूतें ही आए दिन सिरफोड़ुआ मुहूर्तों का सृजन करके, श्रद्धालु सनातनियों की आस्था से खिलवाड़ कर रहा है और गैर सनातनियों या कहो अब्राह्मिकों को चुटकी लेने का खुला निमन्त्रण दे रहा है। क्या पैत्रिक भौतिक सम्पदा की तरह विद्या और ज्ञान भी पीढ़ी-दरपीढ़ी विभाजित और स्थानान्तरित होने वाली कोई भौतिक वस्तु है! या कोई सार्वभौम सिद्धान्त है कि विद्वान पिता की सन्तानें भी विद्वान ही हों ? विद्या और ज्ञान वशीयत के दायरे में नहीं आता बचवा ! ”
हालाँकि सोढ़नुकाका को किसी तरह की टोकाटाकी जरा भी पसन्द नहीं है, फिर भी अक्षत-फूल हाथ में लेकर, श्रीसत्यनारायणकथा की तरह मौन होकर, उनकी लम्बी बातें सुनने का धैर्य रखना भी तो सबके वश की बात नहीं है। मेरा मन भी कुलबुला रहा था कुछ उचरने को। अतः हिम्मत करके फिर टोका— काकाजी ! बिलकुल सही कहा आपने। आए दिन किसी भी व्रत-त्योहार को लेकर सनातनियों की मगज़पच्ची शुरु हो जाती है। सोशलमीडिया प्लेटफॉर्मों पर अपनी सस्ती साख के प्यासे बहुरूपियों बाबाओँ की उन्मुक्त-मर्यादाहीन धुआँधार टीका-टिप्पणी और भी उलझनें बढ़ा देती है। कुछ दशकों पहले तक ग्राम पुरोहितों और आचार्यों की राय-मत से ही यजमानों की सन्तुष्टि हो जाया करती थी। वे कितने योग्य हैं, कितने अयोग्य—इस पर विचार का भी सवाल नहीं उठता था। किन्तु अब मीडियाई मंचासीन बरसाती मेढ़कों की टर-पों से आस्थावानों की आस्था भी डगमगाने लगी है। क्यों कि सब के सब अपने आप को महान सिद्ध करने में लगे हैं। पंडिताई के दंगल में भोले यजमान पटखनियाँ खा रहे हैं। पंडिताई का गढ़ काशी, मिथिला, उज्जैन... यहाँ तक कि कलकत्ता, मुम्बई, चेन्नई सब अपने-अपनी राग अलापने में लगे हैं। पंचांगों और यन्त्रियों की बाढ़ है बाजार में। मजे की बात ये है कि सबके गणित दो और दो चार ही नहीं बतलाते। किसी के छः, किसी के पाँच, किसी के नौ और सात भी सिद्ध करते हैं।
इस बार मेरी बात पर सोढ़नुकाका गुस्साये नहीं, बल्कि सिर और छड़ी हिलाते हुए मुस्कुरा कर बोले— “ यही तो विचारने वाली बात है बबुआ ! मेरे एक परिचित के यहाँ हर कमरे में घड़ियाँ लगी हुई थी। मजे की बात ये कि सबके समय भिन्न-भिन्न थे। मेरी जिज्ञासा पर उसने सहजभाव से कहा— सभी घड़ियों में अगर एक ही समय दिखे तो अनेक घड़ियाँ रखने से क्या फायदा ?
“....दरअसल घड़ी का प्रयोजन और उपयोग ही ज्ञात नहीं उस भलेमानस को । कुछ ऐसी ही स्थिति विद्वान दादाजी की चमकीली जीर्ण पगड़ी ढोए जा रहे अयोग्य पौत्रों की है। अभी वर्तमान सम्वत् का पंचांग उठाया एक दिन दिनमान ज्ञात करने के लिए और सूर्योदय-सूर्यास्त पर आकर अटक गया। मजे की बात ये कि लागातार पन्द्रह-बीस दिनों तक सूर्योदय-सूर्यास्त तो समान दिखे, किन्तु दिनमान में घट-बढ़ मिला। मेरा सिर चकरा गया। दिनमान का सामान्य सा गणित जब इतना विकृत हो सकता है, तो फिर तिथिमान, नक्षत्रमान, योगमान, करणमान, लग्नमान, मुहूर्तमान आदि कैसे सही घटित होंगे... ? किसी की जन्मकुण्डली में इष्टकाल ही यदि गलत हो, ग्रह-स्पष्टी ही गलत हो...तो आगे राम भरोसे ही न ...।“...पञ्चाङ्ग बनाना बच्चों का खेल नहीं है बचवा ! बहुत ही श्रम-साध्य और समय-साध्य कार्य है। ज्योतिषशास्त्र का गहन ज्ञान बपौती नहीं है किसी की और न कॉन्वेटी स्कूलों का मार्कशीट—जहाँ बोरियों से मार्किंग उढेले जाते हैं। आरामतलबी, आलसी, लापरवाह, कर्तव्यहीन, धनलोलुप पंचांग निर्माताओं को किसने ये अधिकार दे रखा है, जो हमारी आस्था से खिलवाड़ कर रहे हैं? वस्तुतः इन्हें सनातन का ध्वजवाहक नहीं, प्रत्युत पथ-भ्रष्टक कहना चाहिए। स्वयं विलासिता में डूबे हुए हैं और आम जनमानस को दिग्भ्रमित किए हुए हैं। न तो ये बरसाती बेंग तराजू के पलड़े पर एकत्र होंगे कभी क्षण भर भी और न इनके द्वारा निर्देशित सिरफोड़ुआ मुहूर्तों से मुक्ति मिलेगी सनातनियों को। इसी सोच के साथ आज यहाँ फल्गु की रेत में गहन शोध में जुटा हूँ, ताकि सनातनियों की आस्था नीलाम न होने पाए। श्रीराम सबको सद्बुद्धि दें। ”
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