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बाहर से कुछ भीतर से कुछ बा

बाहर से कुछ भीतर से कुछ बा

बाहर से कुछ भीतर से कुछ बा ,
जेकरा बा पूॅंछ ओकरे पूछ बा ।
नईखे ओकर दुनिया में गुजारा ,
जे अपना आप में छूॅंछे छूॅंछ बा ।।
जीवन में जतना लाग जाए दाग ,
खाली कपड़ा एगो बेदाग चाहीं ।
कतहीं केहू कबहुॅं कहे कुछुओ ,
पहिले कहे खातिर आग चाहीं ।।
सब कुछ धो के चिकन भईल ,
दाढ़ी संग छिलवले मूॅंछ बा ।
ओकर पूछ अब कतहीं नईखे ,
जे अपना आप में छूॅंछे छूॅंछ बा ।।
नेता अभिनेता अफसर के देखीं ,
मिलत बाटे सगरो ई स्थान ।
आचरण के चाहे उ भ्रष्ट होखे ,
तबहुॅं मिले ओकरे सम्मान ।।
उहे त बाटे अब सगरो पूछात ,
जहाॅं अंगूर दाना गुच्छे गुच्छ बा ।
ओकर पूछ अब कतहीं नईखे ,
जे अपना आप में छूॅंछे छूॅंछ बा ।।
ओकरो बा ई अरमान आपन ,
हमरो मिले यथोचित सम्मान ।
मानव मानव समान हो जाई ,
निकल जाए जो मन से गुमान ।।
गुणवान भईल पंक्ति से अलग ,
पंक्ति में आगे उहे जे खुद तुच्छ बा ।
ओकर पूछ अब कतहीं नईखे ,
जे अपना आप में छूॅंछे छूॅंछ बा ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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