ब्रह्मस्वरूपिणी वेदमाता सीता: रहस्य और मूल प्रकृति

लेखक: अवधेश झा
भारतीय संस्कृति में नारी मात्र एक सामाजिक भूमिका नहीं, अपितु एक दार्शनिक तत्त्व है। जनकनंदिनी सीता, केवल एक स्त्री के रूप में नहीं, बल्कि ब्रह्मस्वरूपिणी, वेदमाता, और मूल प्रकृति के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वे केवल राम की अर्धांगिनी नहीं, अपितु ब्रह्म की पूर्ण शक्ति हैं।
ब्रह्मस्वरूपता सीता का स्वरूप देखने पर यह स्पष्ट होता है कि वे केवल एक स्त्री पात्र नहीं, वरन् साक्षात् ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं। जैसे राम स्वयं "सच्चिदानंद" ब्रह्म के रूप में अवतरित हैं, वैसे ही सीता पराशक्ति, चेतन प्रकृति और माया की त्रैविध सत्ता का समन्वय हैं। वाल्मीकि रामायण हो या तुलसीकृत रामचरितमानस – दोनों में सीता का आचरण, वाणी, और धैर्य ब्रह्मविद्या से परिपूर्ण प्रतीत होता है। राम उनके बिना अधूरे हैं – यह ब्रह्म सत्य है।
इस संबंध में संवाद क्रम में जस्टिस राजेंद्र प्रसाद, पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय, पटना ने कहा; "आदि शक्ति, ब्रह्म स्वरूपिणी सीता भी जगतजननी हैं; ब्रह्म स्वरूप देवी को, देवी उपनिषद् में स्पष्ट कहता है:
मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसा-क्षिणी॥
वे (देवी) समस्त मंत्रों में 'मातृका' अर्थात् मूलाक्षर में प्रतिष्ठित हैं और शब्दों में ज्ञान रूप से स्थित हैं। ज्ञान में 'चिन्मयातीता' रूप में और शून्यों में 'शून्यसाक्षिणी' के रूप में रहती हैं। जिनके अतिरिक्त और कुछ भी श्रेष्ठतम नहीं है।
योगमायी सीता का जीवन बहिर्दृष्टि से देखने पर करुणा और पीड़ा का प्रतीक लगता है, किंतु आंतरिक दृष्टि से वह योगमाया का अद्भुत लीला है। रावण के लिए वे माया सीता हैं – एक छाया रूप। हनुमान और राम के लिए वे पराशक्ति हैं – पूर्ण चेतना। धरती में अंत में विलीन हो जाना, यह दिखाता है कि शक्ति अपनी मूल प्रकृति में ही लौटती है। इस संदर्भ में दर्शन भी यही कहता है:
"यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते..." – जिससे (ब्रह्म) सब उत्पन्न होते हैं, अंततः उसी(ब्रह्म) में विलीन हो जाते हैं।"
वेदमाता सीता का जन्म धरती से हुआ – हल चलाने पर भूमि से उत्पन्न होना यह संकेत करता है कि वे ब्रह्म अवतरिणी वेदों की माता अपौरुषेय, सत्य और नित्य हैं। माता सीता न्याय और धर्म की साक्षात मूर्ति हैं। सत्य के पक्ष में अडिग रहती हैं। सहनशीलता और आत्मबल का आदर्श प्रस्तुत करती हैं। वेद माता का यह स्वरूप इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वेद केवल यज्ञ और ऋचाओं तक सीमित नहीं, वे एक जीवन मूल्य हैं – जिसे सीता ने जीवन में धारण किया है।
आत्मस्वरूप में स्थित और स्त्री चेतना का प्रतीक माता सीता का जीवन भारतीय नारी चेतना का परम आदर्श है – परंतु यह केवल सामाजिक नहीं, आध्यात्मिक भी है। वे त्याग की देवी हैं, पर यह त्याग विवशता नहीं, आत्मबल का परिणाम है। वे सहयोगिनी हैं, परंतु आवश्यकता पड़ने पर न्याय की रक्षक भी बनती हैं (जैसे: अग्निपरीक्षा, वनगमन)। वे संयम में स्थित वह आत्मा हैं, जो अपराजेय है।
सांस्कृतिक और दार्शनिक दृष्टि से माता सीता का स्वरूप भारतीय संस्कृति में श्रुति (वेद), प्रकृति और शक्ति का समन्वय है। वे नारी रूप में ब्रह्म की पूर्णता हैं।
उनका जीवन सिखाता है कि वास्तविक शक्ति भीतर की चेतना में है, न कि बाह्य प्रदर्शन में। वेद, धर्म और आत्मज्ञान यदि साकार रूप में देखना हो – तो वह सीता हैं।सीता केवल राम की आदर्श पतिव्रता पत्नी ही नहीं, बल्कि ब्रह्मस्वरूप श्रीराम की ब्रह्म माया अर्थात आंतरिक शक्ति हैं। वे नारी की दिव्यता, शक्ति की मौन ऊर्जा, और वेद की आत्मा हैं। वे हमें यह सिखाती हैं कि धैर्य, त्याग, विवेक और आत्मज्ञान ही सच्चे जीवन मूल्य हैं। उनकी स्मृति केवल अतीत नहीं, आज के युग में भी स्त्री-चेतना और आध्यात्मिक विचारधारा के लिए पथप्रदर्शक है।
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