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बाबा रसायन

बाबा रसायन

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
वटेसरभाई की इस गद्य-पिटारी में मैं कहीं नहीं हूँ। मैं सिर्फ शब्द-संवाद-संवाहक भर हूँ उनका। उन्होंने जैसा कहा-समझाया शब्दशः आपतक सरकाए दे रहा हूँ। अतः आपके शिकवे-शिकायत-टिप्पणियों या प्रशस्तियों का भी मैं रत्ती भर हकदार नहीं हूँ।
वटेसरभाई ने समझाया कि साहित्य में नौ रस होते हैं, जिनमें श्रृंगाररस को रसराज माना गया है। जबकि आधुनिक साहित्यकार प्राचीन नौ को ही तोड़-मरोड़कर ग्यारह बतलाने लगे हैं। दूसरी ओर, आयुर्वेद वालों का छः रस साहित्यवालों के नौ या ग्यारह रसों से विलकुल भिन्न है।
वस्तुतः साहित्य हृदय और मस्तिष्क की चीज है। वहाँ भाव और विचारों की वरीयता है, तो आयुर्वेद का रस सिर्फ जीभ और स्वाद पर अटका हुआ है। आयुर्वेद में रस पारद को कहते हैं। इस सम्बन्ध में रसशास्त्रियों ने कहा है कि ‘रसनात्सर्वधातुनां रस इत्यभिधीयते।’—सभी धातुओं को आत्मसात करले जो वही रस है। जिस औषधि में पारा का मिश्रण हो उसे रसायन की संज्ञा दी जाती है।
आपको पूरी तौर पर यकीन दिलाना चाहता हूँ कि समाज में जिस रस की प्रधानता और लोकप्रियता है, वह है निन्दा रस। इसके सामने साहित्य और आयुर्वेद वाले सभी रस एकदम फीके हैं। रसों का राजा—श्रृंगाररस भी घुटने टेकता है निन्दारस के सामने। किसी की निन्दा करने और सुनने में जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसकी तुलना में स्वर्ग और मोक्ष भी तुच्छ हैं।
किन्तु, भले ही सुनने वालों को जरा अटपटा लगे, परन्तु हमारे वटेसरभाई को अटपटेपन-चटपटेपन से कोई लेना-देना नहीं है और न पुरानी मान्यताओं से कुछ वास्ता।
मान्यताएं तो हररोज बनती-बिगड़ती रहती हैं। और इस लोकतन्त्र के जमाने में मान्यताओं को तथ्य और प्रमाण से कोई सरोकार भी तो नहीं है न। जिसकी जो मान्यता, जिसका जो यकीन, जिसका जो विश्वास, जिसकी जो श्रद्धा, जिसकी जिसमें भक्ति। भला किसमें हिम्मत है लोकतन्त्र की इस ताकत से उलझने का ! लोकतन्त्र की एक आवाज से बड़े-बड़े सिद्धान्त मर्मज्ञों की हवा निकल जाती है— आप ही ज्यादा काबिल हैं... ज्ञान पिलाने चले हैं... रखिए अपना ज्ञान अपने पास... हमारे गुरु महाराज ऐसा कहते हैं...हमारे बाबाजी ऐसा कहते हैं...।
हमारे वटेसरभाई ने इसपर गहन शोध किया है, भले ही उन्हें अभी तक किसी विश्वविद्यालय से विद्यावारिधि या कि पी.एच.डी., डी.लिट. आदि उपाधि नहीं मिली है और न मिलने की उम्मीद ही है। उनका कहना और मानना है कि बाबारस कोई मामूली रस ही नहीं, बल्कि रसों का अयन—रसायन है। पारदरसायन में जैसे सभी धातु विलीन हो जाते हैं, वैसे ही बाबारसायन का सेवन कर, पुरुष-नारी सभी एकाकार हो जाते हैं। अतः सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ रस इसे ही माना जाना चाहिए, क्योंकि अन्य सभी रस एक पक्षीय हैं, जबकि बाबारस जन्मजात उभय पक्षीय होता है। कैंची के दोनों फलकों की तरह यहाँ दोनों की उपस्थिति और सक्रियता अनिवार्य है। इसमें मंचासीन वक्ता बाबा को जितना रस मिलता है, लगभग उतना ही या कहें उससे कहीं अधिक रस दर्शकदीर्घा में बैठे मन्त्रमुग्ध, मदहोश, बेहोश स्रोता और अनुयायियों को मिलता है। स्त्रियाँ चुँकि अधिक भावुक मिजाज होती हैं, इस कारण उन्हें अधिक रसानुभूति होती है। उन्हें अगली पंक्तियों में स्थान मिलने के कई रहस्य हैं, जिन्हें खुलेतौर पर उद्घाटित करना उचित नहीं। समझदार लोग स्वयं ही समझ लेंगे। बाबारसायन की सामान्य अनुभूति महासत्संग समागम में ही हो सकती है। और यदि विशेष अनुभूति की इच्छा हो तो बाबा के निजी कक्ष में कुछ रातें बितानी पड़ती हैं। हालाँकि बाबा के निजी कक्ष में रात और दिन की समय-सीमा निर्धारित नहीं होती। वे जब चाहें रात को दिन में और दिन को रात में बदल डालने की कला में पारंगत होते हैं।
हालाँकि कुछ अल्पबुद्धि पुरानपंथियों ने आम लोगों को समझा रखा है कि कलयुग के पाँच हजार से अधिक वर्ष गुजर चुके। इसीलिए चहुँदिश कदाचार-अनाचार का बोलबाला है। सतयुग-त्रेता-द्वापर वाला धर्म कराह रहा है। घोर कलयुग का डंका बज रहा है चारों ओर ।
किन्तु हमारे वटेसरभाई को इन बातों पर रत्ती भर भी यकीन नहीं। क्योंकि उनके गहन शोधों से प्रमाणित हो चुका है कि धर्म अपना स्वरूप बदल कर अवतरित हो चुका है। फलतः पुरानपंथियों को पहचानने में थोड़ी कठिनाई हो रही है।
वटेसरभाई सदा कहा करते हैं — “ अरे भाई ! आँखें खोल कर देखते क्यों नहीं। पहले के युगों में इतने सत्संग होते थे क्या? पहले के युगों में इतने ऋषि-महर्षि, साधु-सन्त, स्वामी-संन्यासी होते थे क्या? इतने पंडाल लगते थे क्या ? पंडालों में डी.जे. और विडियो कैमरा होता था क्या? इतना पर्यटन होता था क्या ? इतनी मौज-मस्ती रहती थी क्या? मुट्ठीभर लोग तपस्वी सा जीवन विताते हुए तीर्थाटन करते थे। मौज-मस्ती का सवाल ही कहाँ था ! सारे पोथी-पुराण पलट जाओ। घुमा-फिराकर एक ही बात मिलेगी। जब सुनों तो एक ही बात— नैमिषारण्य में चौरासी हजार ऋषि इकट्ठे हुए और सूतजी प्रवचन करने लगे। न उनके पास अधिक पंडालों की व्यवस्था थी और न अधिक स्रोता थे और न अधिक वक्ता ही।
और आज देखो—पहले जितने लोग तीर्थाटन पर जाते थे, उतने तो आज खाई में बस पलटने और सुरंग में दम घुटने से मर जाते हैं। सत्संग में जितने की बैठकी होती थी पहले, उतने तो आज बाबा के चरण चूमने में दब-चपकर मोक्ष लाभ कर लेते हैं। पहले सन्तों का दर्शनलाभ लेने के लिए हिमालय की दुर्गम यात्राएं करनी पड़ती थी। कन्दराओं के मुहानों पर सिर झुकाए वर्षों चिरौरी करनी पड़ती थी। तब कहीं सिद्धों का दर्शन होता था। और आज देखो— ‘ सरकार आपके द्वार ’ के तर्ज पर ‘ बाबा आपके द्वार ’ हाजिर हैं। पूरे ब्रह्माण्ड में जितने ऋषि, महर्षि, साधु, संत, स्वामी, संन्यासी हुआ करते थे उन दिनों, उससे कहीं ज्यादा तो हमारे प्यारे बिहार और उत्तरप्रदेश में ही हैं। ऐसे में सतयुग-द्वापर को अच्छा कहोगे या कि कलियुग को मजेदार ? इन्द्र के दरबार में गिनी-चुनी अप्सराएं थी। और आज देखो—अनगिनत अप्सराएँ तो अकेले बम्बई शहर में मिल जायेगीं।
जानकार पुरानपंथी लोग बतलाते हैं राजर्षि विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि कहलाने के लिए महर्षि वशिष्ठ से कितना पंगा लेना पड़ा था। और तब भी सफलता नहीं मिली थी। हजारों वर्षों की कठोर तपस्या के बाद मन्त्रद्रष्टा (स्वरूपवान मन्त्रों का प्रत्यक्ष दर्शन) होने पर ही ऋषि की उपाधि मिलती थी। जबकि आज कितनी आसान हो गई हैं ये सब उपाधियाँ । स्वामी, ऋषि, महर्षि जो उपाधि मनमाफिक हो, जिस किसी को भी, सहज ही, स्वयं ही ले सकता है— बाजार में बिकती रामनामी चादर की तरह। चादर खरीदने के लिए चन्द रूपल्लों की जरुरत होती है, किन्तु स्वामी कहलाने के लिए तो चूल्हे की राख या खड़िया मिट्टी का पोचारा ही काफी है। चतुर वाजार-विशेषज्ञों ने तरह-तरह के डिजाईनदार धोती, कुर्ते, चादर, माला, अंगूठी सबकुछ मुहैया कराने को तत्पर हैं सदा।
हाँ, एक और खास बात — लगोंट खोंसकर, पतली किनारी वाली साधारण धोती यदि पहनते हैं तो समझो बाबा छोटे औकात वाला है और पिछौटा रहित चौड़ीपाड़ धोती के ऊपर रजाई मार्का कुर्ता हो तो पक्के तौर पर मानलो कि बाबा अद्भुत ज्ञानी है। दाढ़ी अगर लम्बी है, नयन-नक्श थोड़े कुरूप हैं तो समझो बाबा-बाजार में खोटे सिक्के सा लुढ़कता फिरेगा। बहुत होगा तो उम्रदराज भक्तिनें चरण छूयेंगी। सुडौल नितम्बिनियाँ तो नाक-मुँह सिकोड़कर दूर से ही एकहथिया सलाम दागती निकल जायेंगी। युवक धुटने छूकर या दूर से ही हाथ जोड़कर सन्तुष्ट हो जायेंगे। सफेद दाढ़ी तो बिलकुल नाकामयाबी की सूचना देने वाला है। अतः खिजाब का इस्तेमाल और व्यूटीशियन का सहयोग अति आवश्यक है। मुगलकट दाढ़ी या क्लीनशेव का सबसे ज्यादा डीमान्ड है बाबा-बाजार में। कटि-नितम्ब-दर्शिका कुमारियाँ तो मर मिटेंगी। विवाहिताओं की छाती पर भी सांप लोटेंगे। आए दिन ऐसे लुभावन बाबाओं को फिल्मी सेलेव्रेटियों की तरह मैरेज-ऑफर मिला करते हैं। लेकिन ‘लीव-इन-रिलेशनशिप’ को कानूनी और सामाजिक मान्यता मिल जाने के कारण बाबाओं की अभिरूचि बिलकुल नहीं है, इस कारण ज्यादातर मैरेज-ऑफर रिजेक्ट ही हो जा रहे हैं ।
हमारी शस्यश्यामला भारतभूमि वनभक्षकों और कृषिकलाबाजों की कृपा से भले ही बंजर होती जा रही हो, किन्तु देशवासियों का दिमाग बड़ा ही ऊर्बर है। यही कारण हैं कि हर क्षेत्र में, हर शहर में बाबाओं का ‘बम्पर क्रॉपिंग’ है। बाबा बनने से लाभ ही लाभ है। कोमल हाथों का मृदु स्पर्श तो आम बात है। दृढ़ आलिंगन में भी कोई आपत्ति नहीं। मैंने कई बाबाओं को देखा है चरण छूती सुन्दरियों को सीधे बाहुभरण करके, माथा या कपोल चुम्बन करते हुए। सुन्दरियाँ भी स्वयं को धन्य समझती हैं, यदि बाबा का आलिंगन मिल गया। और हाँ एक और बात—व्यूटीशियन एक्पेंशेज भले ही बढ़ जाय, किन्तु हजामत-मुण्डन वाला खर्चा पूरा का पूरा बच जाता है, क्योंकि बाबाओं पर सनातनी अशौच का नियम लागू ही नहीं होता। यहाँ तक कि उनके वाप भी मर जाए तो भी हजामत बनाना जरुरी नहीं। इसी स्पेशल ग्रेश के तहत बाबाओं के बाल प्रायः लम्बे-लम्बे हुआ करते हैं। समाज में रहते हुए भी सामाजिक शास्त्रीय कृत्यों का कोई असर नहीं होता उनपर।
गौरतलब है कि नेता और बाबा बनने के लिए हायर कम्पीटीशन का झंझट भी नहीं है। किसी डिग्री-डिप्लोमा की जरुरत भी नहीं । और हाँ, बाबा और नेता में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध होता है। नेता बाबा को संरक्षित करते हैं, बाबा नेताओं को वरदहस्त प्रदान करते हैं। एक और मामले में बाबा श्रेष्ठ है नेता से—नेताओं को वोट देते समय जनता जात-पात का विचार करती है, किन्तु जिस तरह वेश्या की जात नहीं पूछी जाती, उसी तरह बाबा की भी जात पूछने का रिवाज नहीं है। वेश्या का रूप देखा जाता है और बाबा का स्वरूप। सच में, बाबारसायन का सेवन जिसने किया वो धन्य हो गया।
अतः वटेसरभाई का कहना है कि कुछ और बनने की काबिलियत यदि न हो तो बाबा बन जाओ। और यदि बाबा बनने की हिम्मत भी न हो तो कम से कम बाबा के अनुयायी तो बन ही सकते हो, क्योंकि अनुयायी बनने के लिए सिर्फ अन्धश्रद्धा और मूर्खता की जरुरत है। और ये दोनों तो तुममें है ही। इसे तो तुमसे कभी भगवान भी नहीं छीन सकता,इन्सान की क्या विसात ! अब जरा आप ही सोंचे—बाबारसायन सर्वश्रेष्ठ है या नहीं?
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