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ये मन.....

ये मन.....

ये मन यहाँ वहाँ विचरता रहता है
कभी केदारनाथ जाने को ललकता है
मन में खुशियों की लहरें हिलोरें लेने लगती हैं
अगले ही क्षण पैरों के दर्द की याद आते ही कुछ थम सा जाता है
ये मन यहाँ वहाँ विचरता रहता है
गोवा में प्रकृति की सुंदरता का अनुपम दृश्य देखना चाहता है
हिलोरें मारता समुद्र और पेड़ पौधों की हरियाली अच्छी लगने लगती है
अगले ही क्षण भीषण गर्मी की याद आते ही कुछ थम जा जाता है
ये मन यहाँ वहाँ विचरता रहता है
कभी नयी पुरानी किताबें पढ़ने का मन करना है
कहानी के पात्रों की सजीवता में खो भी जाता है
अगले ही क्षण सबकुछ भूलकर रसोईघर में कुकर और कढ़ाई से नाता जुड़ जाता है.
-सविता शुक्ला
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