'तारक'

'तारक' 

मार्कण्डेय शारदेय 
शिवपुराण' देखीं त चैत्र शुक्ल नवमी के मध्य रात्रि में भगवती पार्वती हिमालय-मेना किहाँ उनुकर पुत्री के रूप में प्रगट भइल रही।ऊ रात आजुए ह।एकरे वर्णन हमरा उपन्यास 'तारक' में देखल जाउ।
तारक (भोजपुरी उपन्यास)
(30)
हिमालय पर्वते ना, पर्वतराजो ह।पर्वतराज एसे कि एकरा साथे, एकरे अंग कतने पर्वत बाड़ें।एह पर्वत में दिव्यता, रमणीयता, शान्ति, सम्पन्नता आ सरसतो के वास बा।एकर एक-से-एक शिखर आसमान छुवे खातिर हाथ उठलले बुझालें त एक-से-एक शिखर बरफ से मढ़ल।कहूँ पठार त कहूँ घाटी।कहूँ ऊँच-नीच स्थल त कहूँ चोख-चोख पत्थर-चट्टान।कहूँ नदी-निर्झर के कल-कल, छल-छल ध्वनि त कहूँ ऊपर से नीचे उतरत हहरात जलधार के घोर रव।कहूँ उत्स त कहूँ हिमनद।कहूँ विरल वनस्पति त कहूँ घना जंगले-जंगल।कहूँ नंग-धड़ंग टीला-डीह त कहूँ नाना विध वनस्पतियन से सजल-धजल प्रकृति-नायिका नियन आकर्षण।कहूँ बाघ, चीता, शेर से भरल भयावन गहन वन त कहूँ हाथी, भालू, हरिन, गेंडा, बानर के अनुकूल विपिन।कहूँ एक-से-एक पक्षियन के वास त कहूँ साँप-बिच्छी-जइसन के।कहूँ ऊँच-ऊँच बड़-बड़ पेड़, झमठाह झाड़ी त कहूँ बड़-बड़ खोह।कहूँ रत्नन के खान त कहूँ धातुवन के।
एहिजा एकान्त शान्त प्रान्त में कतने साधु-महात्मा तपश्चर्या में रहसु त कतने कवनो गुफा में समाधि लगाके।देवता, यक्ष, गन्धर्व लोग जहाँ-तहाँ सुखद आ मनोरन स्थानन में विहार करसु। शिवोजी के तपःस्थल इहे रहल।दक्षपुत्री सती के वियोग में आइलि विरक्ति से एहिजे आत्मचिन्तन में रहसु।चूँकि ऊ सभकर प्रणम्य हवें, एसे लोग प्रणाम करे आवसु।बाकिर; दीर्घकालीन समाधिस्थ होखला से दूरे से दर्शन कके देवता आदि लवटि जासु।नन्दी, वीरभद्र आदि प्रधान गण सदा सेवा में तत्पर रहसु।
स्थावर हिमालय के अलावे एगो जंगमो हिमालय रहलें।मतलब कि देवांश मनुष्यरूप में।स्थावरन के राजा स्थावर हिमालय त स्थावर-जंगम; दूनो के राजा मानव हिमालय रहन।दूनो के पर्याय एके, बाकिर सबसे भव्य आ अनेक छोट-बड़ अचलन के साथे रहला से अचल हिमालय पर्वतराज त रहबे कइलन, पूरा हिमालय- पर्वतमाला प शासन रहला से चलायमान हिमालय रहन।
खैर; जंगम पर्वतराज के विवाह पितृगण आ स्वधा के मानस ज्येष्ठ पुत्री मेना से भइल रहे।एह दूनो के कतने बेटा रहन, तबो विख्यात पुत्र मैनाक रहन।मेना-हिमालय के अन्तिम सन्तान बेटी रही।चइत सुदी नमी के ई पेटपोछनी बेटी भइली, जे आद्या शक्ति जगदम्बा के अवतार आ दाक्षायणी के पुनर्जन्म कहाली।ऊ नीलमणि नियन रही त काली भा कालिका, पर्वतपुत्री रही त पार्वती भा गिरिजा कहाये लगली।
ई बेटी अइसही ना भइल रहली।दूनो बेकत मेना-हिमालय आदिशक्ति से बड़ निहोरा आ तपस्या कके मँगले रहे लोग।एसे इनिकर जनम भइल त माई-बाबू के खुशी के अँटकर ना रहे।खूब उत्सव मनावल गइल।खूब दान दियाइल आ नेग-नेछावरो खूबे भइल।***
(31)
चइत के महीना।माने; मधुमास।माने; वसन्तकाल।माने; कुसुमाकर के साम्राज्य।माने; समशीतोष्ण वातावरण।माने; वृक्ष-लता में नवयौवन के संचार।जगे-जगे पेड़-गाँछ फल-फूलन से लदाइल।कहूँ सेमर के लाल-लाल फूल त कहूँ परास के।कहूँ महुआ के मादक फूलन के गन्ध त कहूँ अगराइल झोंपाइल गूलर।कहूँ नंग-धड़ंग पीपर प खैरा रंग के कोमल-कोमल निकलत पात त कहूँ खैरा से हरियरात पात।कहूँ छोट-बड़ फरन से लदाइल आम त कहूँ पीयर-पीयर फूलन से सजल अमलतास।ई सभ अइसन बुझात रहन जे पार्वती के जनम के खुशी में सिंगार-पटार कके पर्वतराज के उपहार देबे खातिर तइयार बाड़ें।छोट-छोट पउधो आ झाड़ो सज-धज के सुघर लागत रहन।
पशु-पक्षियनो में फुरती बढ़ल रहल।लागे जे पार्वती के जनम के खुशी में सभे उतान बा।नाना रूप-रंग के पक्षी उड़त-फड़फड़ात रहन।कहूँ लाल-लाल ठोर आ हरियर-हरियर पाँखिवाला अपना घोसला में बइठल भा चुग्गा लेके पहुँचल छोट-छोट अपना बचवन के मन्त्र रटावसु त कतहूँ उड़त-गावत अउर पंछी मोद मनावसु। अइसन समय में जन्मोत्सव से लागत रहे जे मधुमासो नाचत-गावत, खुशी मनावत बा।
पंचम स्वर में कूँकत करिया कोइलि काली के जनम के बधाई त देते रहलि, शायद इहो बतावत रहल जे हमहूँ करिया तूहूँ करिया हमनी का त एक नियन।एने फूलन के रस पीके शराबियन अस तलमलात चलत भँवरा अपने में मगन अइसे चलसु, जइसे कवनो समारोह में पिक्कड़न के पियक्कड़ी के नजारा। मधुमास के कारण भा पार्वती के जनम के कारण जड़-चेतन के बाहर-भीतर शृंगारे शृंगार लउके।
खैर; चइत के अधिकांश समय बीत गइल रहे।पाँच-छव दिने बचल रहे।गरमी चढ़न्ती प रहल।दिन दोरस होत रहे।सूरज के उगत त पर्वत-शिखर मनमोहक लागसु, बाकिर आधे पहर बाद गरमी बढ़े लागत रहे।पहाड़ के अंग-अंग गरमाये लागे।तबो दिन बाउर ना, सोहावने लागे।काहें कि रात के अबहियों हलुका-हलुका ठंढा बुझाये।हँ; चाँदनी रात के का कहे के! टहटह अँजोरिया अइसन फइले जेसे बुझाउ जे चन्द्रमा अपना कोमल-शीतल किरिन से पार्वती के छुवे खातिर, गोदी में लेबे खातिर पर्वत के गतर-गतर में चाँदनी उतारताड़े।
रात-के-रात निशानाथ आ दिन-के-दिन दिवानाथ; दूनो आ-आके गिरिजा के देखि जासु लोग।बुला ना देखला से नैन तरासल रहसु। महल में रहला से झाँकि जासु लोग।
इहे दूनो काहें; स्वर्गवंचित देवतो लोग के इहे काम रहे।काहें कि ब्रह्मा बाबा त देवता लोगन से बताइये देले रहन जे दक्षकन्या सती के पुनर्जन्म पार्वती के रूप में भइल बा आ उहे शिवपुत्र के माता होइहें।ई सुनते ऊ लोग एहिजे डेरा जमाके रहे।असरा में हिमालये के आस-पास रहसु लोग।
जइसे किसान असरा लगवले फसल के पाके के आ ओसे घर भरे के सपना सहेजले रहेला, ओसही देवता लोगो छिपिये छिपिके एक-एक दिन गिरिराज-पुत्री के जौ-जौ बढ़त देह देखत रहे। अकुताइलो रहे लोग जे जलदी सेयान होखसु आ जलदी बिआह होखे।जल्दिये पुत्रो होखे।ओह लोग में जलदी समाइल रहे।काहें कि उनुकर स्वार्थ उद्बेगले रहे।ई जानतो कि मौसमे प फर लागेला, बाकिर राजहीनता बरछी लेखा बेधत रहे।ऊ सोचसु जे कवनो अइसन चमत्कार हो जाइत कि झट से सेयान हो जइती आ त्रिशूलधारी शम्भु खट से आके बिआह करितें आ फट से बेटा हो जाइत। बेटो जनमते अतना बड़-बरियार कि सेना-सहित तारकासुर के पलक झपकते मार डालित।वास्तव में स्वार्थ प्रतीक्षा ना कइल चाहे।ई ओकर स्वभाव ह।
(32)
पार्वती जइसे अउर बच्चा-बच्ची बढ़ेलें, ओसही बढ़त रही।केहू के अकुतइले नन्हीमुटी गाँछि फेड़ ना नू हो जाई! शैशवकाल के लीला होखे लागलि।सभे देखि-देखिके निहाल होखे लागल।कबो माई के गोदी त कबो बाप के गोदी।ऊ अनगँइया आ अनचिन्ह केहू के ना मानसु।जे चाहे, ओकरा गोदी में बइठि के अगरासु।जे घुमावे, ओकरा गोदी जाये खातिर दूनो हाथो उठाके ले चलेके इशारा करसु।
मेना रानी एक छन छोड़ल ना चाहसु।कवनो दाई-नोकर लेके खेलावत बाहर जाउ त उनुकर करेजा धक्-धक् करे लागे।ऊ सोचसु जे कहूँ गिरा ना देउ।देबो करसु बड़ा समुझा के।बहरी गइला के बाद तनकियो देर होखे त सका जासु।धिया रोवे लागसु त बुझाउ जे कवन बड़ पहाड़े टूट परल।
अब दाँतो झाँके लागल।अब गोदियो काटे लागलि।पेटकुनिये चलत-चलत मकँइया चले लगली।दिन बीतत गइल त तीना होखे लगली।तीना से डेगाडेगी आ डेगाडेगी से दउरकिया।फिर; सुपली-मउनी खेलल त पुतरा-पुतरी।
गिरिराज के महल त पहाड़े प रहल।हर जगे पर्वतीय प्रदेश समतल ना रहे से लोगन के आवासो नियरा ना रहल।तबो कुछ-कुछ दूर प बहुते लोग रहत रहे।हँ; राजा हवन त राजभवन रहबे नू करी! दुर्ग रहबे नू करी! सेना, सेनापति, हथिसार, घुड़सार, रथ, कर्मचारी, वित्तपाल, मन्त्री, महामन्त्री, पुरोहित, दण्डाधिकारी, सभाभवन राजभवन; सभ कुछ रहबे नू करी! खैर; सभ रहे उनुका पास।बड़ राजा रहन।सभ पर्वत आ पर्वतीय सम्पदा प एकमात्र उनुके अधिकार रहे।न्याय-व्यवस्था पुष्ट रहे।अन्याय ना करसु आ ना केहू के करे देसु।दुष्टन के दुष्टता दूर करे खातिर यमराज हो जासु त शिष्टन के शिष्टता प धर्मराज।
दुर्ग के भीतरे मन्त्री, महामन्त्री, कोषपति, सेनापति, गजपाल, अश्वपाल-जइसन राजकीय प्रधान लोगन के आवास रहल।खाली आवासे ना रहल, राजा अपना परिवार के सदस्ये नियन मानत रहन आ हर सुख-दुख में साथे रहसु।जइसे परिवार में केहू पिता त केहू चाचा, केहू भाई त केहू भतीजा रहेला आ सभ सम्बन्ध नियन सम्बद्ध रहेला, ओसही।पर्वतराज आ राजकीय सहयोगियन में प्रगाढ़ता रहलि।राजकर्मी रहन त उनुकर घर-परिवारो रहे, मेहरारू- बच्चो रहन।अउर लोग त भले स्वामी-सेवक के भेद पालो, बाकिर बाल-बच्चन के पासे भेदबुद्धि ना रहेला।ऊ त सभके समाने मानेलें।ऊ का जानसु जे केकर का पद बा! कवन लइका-लइकी नोकर के ह आ कवन मालिक के! केकरा घर में खरची बिया आ केकरा किहाँ नइखे! एहिजा त बस; मतलब होला खेलला से आ खइला से।एकरा बादे केहू भा कुछुओ होला।पार्वतियो के सखी होखे लगली।संख्यो बढ़े लागलि।अब जइसे-जइसे घर से एह घर से ओह घर जासु, सखियो मिलत जासु।खेले के सुतार होत जाउ।जइसे-जइसे उमिर चढ़ल जाउ, तइसे तइसे खेले-घूमे में दिन कटल जाउ।ऊ केकरा केने का खइली, आ केकरा केने का पियली; एकर कवनो हिसाब ना।बचवन के आँखी भूख होला।कवनो सखी किहाँ जासु आ खाइल देखसु तो ओही में खाये लागसु।होत-होत जइसे मउसम बदलेला, तइसे उमिरियो बदलत गइल।सुन्दरतो बढ़त गइल।कौमार प पौगंड्य सवार भइल, पौगंड्य प अब कैशोर। माने; अब किशोरकाल समाइल त ऊ किशोरी हो गइली।जइसे प्रत्येक ऋतु के आपन रंग-ढंग होला, ओसही देह के अवस्थो में विशेषता समात गइलि।रहन-सहन खान-पान आ लोगन के साथे बातचीत के तौर-तरीको बदलत गइल।***
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ