"शहरों की रौशनी"

"शहरों की रौशनी"

देखो बड़ी ही अजीब सी हैं,
दोस्तों ये शहरों की रौशनी।

तेज़ उजालों के बावजूद चेहरे,
अपनों के पहचानना मुश्किल हैं।

चमकते दियों से जगमगाते हैं रस्ते,
खो जाते हैं अंधेरे में सपने सारे।

हजारों चेहरों का मेला है यहाँ,
पर हर चेहरे पर एक अकेलापन है।

शोरगुल में खो जाती हैं आवाज़ें,
दिलों में दब जाते हैं गम के राज़।

रौशनी तो भले ही है चारों तरफ,
पर अंधेरा है मन के अंदर गहरा।

खोजते हैं हम सुकून का ठिकाना,
पर किस्मत में है बस धोखा ही खाना।

शहरों की रौशनी में खो गए हैं हम सब,
भूल गए हैं खुशियों का वो ठिकाना।

काश! थोड़ी खुशबू आ जाए सच्चाई की,
पहचान सकें असलियत एक दूसरे की।

. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 
 पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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