मुमताज की व्यथा

मुमताज की व्यथा

बनाकर कब्र मेरी जहाँपनाह ने
मोहब्बत का हसीं तोहफा दिया
जीते जी मैं महारानी थी
मरने पर भिखारी बना दिया।
कब्र पर मेरी आने वाले
सज़दे में फूल नहीं लाते हैं
डालकर चंद सिक्के वहाँ
मेरी बेबसी का मजाक उड़ाते हैं।
बनाकर नायाब ताजमहल जहाँपनाह ने
अपनी मोहब्बत को जमाने में दिखलाया
पर कलम करके हाथ हुनरबंदों के
मुझे कातिल बना डाला।
सुलाकर ताज में मुझको, मेरे मालिक ने
नींद से भी बेदखल कर डाला
अच्छा सिला दिया मेरी मोहब्बत का
कफ़न मेरा खून से रंग डाला।
न जाने कितनी आहें है
मेरे जिस्म से लिपटी हुयी
गुनाहों का बोझ सीने पर
पावों से मैं कुचली गयी।
न जाने कब ख़त्म होगी
सज़ा मेरे गुनाहों की
होउंगी कैद से रुखसत
नींद मुझको भी आएगी।

डॉ अ कीर्तिवर्धन
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