बेटे के संस्कार

बेटे के संस्कार

दोस्तों आज का विषय हमारी जिंदगी का बहुत ही अहम विषय है। जो हमारे जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि है, परिवार में बच्चों का होना और उनके साथ खेलना खिलाना और उन्हें पढ़ाना लिखना और एक लायक इंसान बनाना माँ बाप की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। संसार का चक्र इसी तरह से चलता रहता है। यह क्रम सब की जिंदगी में आता है और जीवन में गुजरता है। परंतु परिवर्तन के इस दौर में बहुत कुछ बदलना है। जो पहले बच्चों का पालन पोषण माँ बाप करते थे, वो आज कल आया कर रही है और दादा दादी को इन सबसे दूर कर रहे है। जिसके कारण आज कल के बच्चों में अपनापन और संस्कारो का बहुत अभाव है। इसके परिणाम घर परिवार समाज और देश को क्या मिल रहे है, इसे बताने और कहने की जरूरत नहीं है। अपनी बात को समझना के लिए मुझे एक छोटी सी घटना का जिक्र आप सभी के साथ साँझा करना पड़ेगा। हमारे एक मिलने वाले श्री सुगन चंद जी और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती आशा देवी और उनका एक बेटा था परिवार में सब कुछ अच्छा चल रहा था। परंतु खानदानी हिस्सा बाट की एक घटना ने इन दोनों का सुख चैन सब छीन लिया और जिसके चलते सुगन जी का समय पूर्व निधन हो गया। माँ बेटे दोनों इस मायावी संसार में अकेले रह गये और पूरा परिवार बिखर गया। जीवन यापन और बेटे को पालन पोषण के लिए आशा जी को घरेलू कामकाज जैसे कपड़ों की सिलाई, पापड़ आचार और लोगों के घरों में खाना आदि बनाकर जीवन यापन शुरू किया और बेटे को भी शिक्षा आदि दिलाने का संकल्प किया और अपनी जिंदगी को पीछे मुड़कर न देखकर आगे देखना शुरू कर दिया। बेटा भी घर के हालात को देखते हुये पढ़ाई पर ही ध्यान दिया जिसके चलते सदा ही मेरिट लिस्ट में आता रहा और जिसके कारण उसकी फीस माफ और स्कलाशिप आदि मिलती गई। वो दिन भी आ गया जब डाक्टर की पढ़ा ई करने विदेश गया और फिर सफल ह्रदय रोग विशेषज्ञ बनकर भारत के मुंबई में अपनी प्रेक्टिस शुरू की और धीरे धीरे अपना नाम कमाया और फिर स्वयं का एक बहुत बड़ा हास्पिटल बनकर इज्जत नाम शोहरत और पैसे कमाने लगा। चूंकि उसने बचपन मे परिवार वालो की बेईमानी धोख़ा और अपनी गरीबी परेशानी आदि देखी थी। जिसके कारण जिंदगी का लक्ष्य कुछ बनाना और दौलत कमाने का धेय बन गया। सफलता के घोड़े पर वो इस तरह दौड़ा की उसने अपनी माँ की खोज खबर बिल्कुल नही ली। माँ अकेली गाँव में अपना काम करते हुए जिये जा रही थी और बेटे की सफलता में ही बहुत खुश रहती थी। समय गुजरता गया बेटे का बहुत नाम हो गया। माँ भी अब बृध्द हो गई और बीमार सी रहने लगी, गाँव वाले कहते अम्मा जी तुम्हारा बेटा तो बहुत बड़ा डाक्टर है और मुंबई में उसका बहुत नाम है।
अब तो आप उसके पास चली जाओं पर अम्मा जी कहती नहीं, बेटे से करीब 10 सालों से न कोई बातचीत हुई और न ही उसका मेरे पास पता है। मैं इसी गाँव में अब मरना चाहती हूँ। उसे परेशान करने को में नही जाना चाहती, वो बस सुखी रहे और खूब नाम कामाएं। परंतु एक दिन सभी गाँव वालों ने मुझे आखिरकार मुंबई भेज दिया और चूंकि बेटे का काफी नाम होने से उसके घर आराम से पहुँच गई। जैसे ही घर की घंटी बजाई बेटे ने दरवाजा खोला और सामने माँ को देखा तो अचम्भा सा रह गया। माँ को बहुत आदर देकर अंदर ले गया घर देखकर माँ बहुत दंग रह गई की इतना बड़ा घर और नौकर चाकर आदि है। एक महिला समाने आई तो बेटे ने बताया की माँ ये आपकी बहू है हम दोनों साथ ही पढ़ते थे और फिर शादी भी कर ली, माँ इतना समय ही नही मिला की आपको बता सकते, माँ ने हंसकर इस बात को भी टाल दिया और बहू को आशीर्वाद दिया खुश रहो। दोनों पैसे से डाक्टर थे जिस कारण बेटा बहू इतने व्यस्त रहते थे कि उनके पास समय ही नहीं होता की घर में समय दे सके। अपनी माँ का इलाज आदि किया और माँ बिल्कुल स्वस्थ हो गई। समय अच्छे से गुजर रहे थे की एक दिन बेटा अचानक से कहने लगा की माँ अब तुम बिल्कुल ठीक हो गई हो, तो गाँव वापिस चली जाओं, हम लोगों के पास बिल्कुल भी समय नहीं है की हम लोग तुम्हारे साथ बैठ सके। ये शब्द सुनकर माँ एक दम से दंग रह गई की जिस बेटे के लिए हमने क्या क्या नहीं किया वो हमें जाने को बोल रहा है। जबकि माँ इतने सालों से अकेली रह रही थी तो सोचती थी की अब बेटा बहू के साथ शेष जीवन व्यतीत करेंगे। परंतु ये तो कुछ अलग ही हो गया। माँ ने बेटे से खुश होकर बोला ठीक है मेरे जाने का इंतजाम करा दो।
जब माँ घर से जाने लगी तो बेटे ने जेब से एक पर्ची माँ को थमा दी, जो की उसकी दवाईयों और हास्पिटल में भर्ती आदि के खर्च का बिल था, देकर माँ की आँखे फटी की फटी रह गई कभी वो बिल देखती तो कभी अपने बेटे को। बेटे ने बोला की माँ ये बिल तो आपको देना पड़ेगा, क्योंकि इस संसार में कोई किसी का नही होता तो बिल तो देना ही पड़ेगा। माँ ने बोला बेटे जाने से पहले तुम्हारा बिल देकर ही जाऊंगी चाहे मुझे इसके लिए घरों मे काम या मजदूरी क्यों न करने पड़े। बेटे जब मैं तुम जैसे नपुंसक न मर्द को पाल पोषण कर लायक बना सकती हूँ तो तेरा बिल तो बेटे बहुत छोटा है। कहने का मतलब ये है की बचपन की उस घटना को वो कहा से कहा ले गया, जिसमें सगी माँ को भी स्थान नहीं है, स्थान है तो सिर्फ पैसों को ही है। जबकि माँ ने तो कितने कष्टो को झेलकर उसे लायक बनाया परंतु उसके दिमाग में पैसा ही रहा। इस तरह की औलाद को आप और हम क्या कहोगें। घटनाओं का सभी के जीवन में असर होता है पर इतना नही होना चाहिए की सबको ही भूल जाओं। माँ तो अपने बेटे की हर सफलता पर खुश और सदा ही आशीर्वाद अपने बच्चों को देती है चाहे वो सही हो या गलत। ये घटना बहुत ही सच्ची और हकीकत है। इसलिए अपने बच्चो को नसीयत के साथ ही साथ आप संस्कार और स्नेह प्यार का भी पाठ जरूर पढ़ाए नफरत से सिर्फ एकाकीपन ही आपको जीवन में मिलेगा।
जय जिनेंद्र 

संजय जैन "बीना" मुंबई
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