अपनी -अपनी अभिलाषा है

अपनी -अपनी अभिलाषा है

डॉ रामकृष्ण मिश्र
अपनी -अपनी अभिलाषा है
अपना -अपना जीवन।।
सुबह- सुबह की तंद्रा में
सद्यस्क कौन हो पाता?
बिखरे-बिखरे भावों को
समरूप कौन दे पाता?
जबकि तिरोहित होने वाला
अभिशापित हो यौवन।।
दुर्वासा का कोप शाप बन
उथल पुथल कर सकता।
इन्द्रासन भी हिल सकता है
स्वर्ग लोक डर सकता।।
किन्तु साधना नैष्ठिक हो
जब त्याग स्वच्छ हो पावन।।
मंत्र अमूर्त अग्नि की ज्वाला
प्रकट अगर करता है।
आहुति दाता की आहुति से
देवलोक जलता है।।
राग मल्हार छेड कर साधक ला सकता है सावन।।
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