छाता (छत्र)

छाता (छत्र)
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-- डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
मौसम जाड़े का है और मैं यहाँ छाते की बात ले बैठा हूँ, यानी बेवक्त की शहनाई। सच तो है कि कभी-कभार जाड़े में भी बारिश हो जाया करती है,लिहाजा छाते की तलब हमेशा बनी रहती है। लुब्बेलुबाब यह कि छाते की जरूरत बारहमासी है।
छाते को लेकर एक बहुत पुराना वाक़या जेहन में कुलाँचे मार रहा है और जी चाहता है, आपसे साझा करूँ।
उन दिनों की बात है, जब अक्सर मैं आरा-पटना सिटी शटल ट्रेन से दानापुर (खगौल)-पटना आना-जाना करता था। पता नहीं, वह ट्रेन अब भी चालू है या नहीं। पटना-सचिवालय के कर्मी ज्यादातर उसी ट्रेन से आवाजाही करते थे। भीषण गरमी का मौसम था--जून का महीना। कहना नहीं, छाता केवल बरसात में ही नहीं, बल्कि वैशाख-ज्येष्ठ की चिलचिलाती धूप में भी उतना ही उपादेय होता है। क्या गरमी, क्या बरसात--दोनो ही मौसमों में छाता समान रूप से परित्राता है। छत्र का दूसरा पर्याय 'आतपत्र 'इसीलिए गृहीत है। आतपत्र =जो आतप (धूप)से त्राण करे।
हाँ, तो वाकया यह है। दो सज्जन, जो सचिवालय के एक ही महकमे में मुलाजिम थे, दोनो छाता लिए हुए पटना प्लैटफॉर्म पर मिले। दोनो मेरे सुपरिचित थे। दोनो में कुछ बात लेकर तेज-तर्रार बहस चल रही थी। बहस की शिद्दत इतनी बढ़ी कि एक ने दूसरे के सिर पर छाते से जोरदार प्रहार कर दिया, इतना जोरदार कि सर फूट गया और लहू की धार चल पड़ी। इतने में रेलवे के पुलिसवाले आ धमके और दोनो को हिरासत में ले लिया-'खजूर से गिरे और बबूल पर अँटके 'की कहावत चरितार्थ हो गई। एक को पुलिस ने अस्पताल में दाखिल कराया और दूसरे को जेल की हवा खाने के लिए सीखचों के अंदर करा दिया।
उसी रोज मुझे यह एक नया इल्म हासिल हुआ कि छाता न केवल बारिश और कड़ी धूप से निजात दिलाने का ही साधन है, बल्कि बतौर हथियार भी बखूबी काम आता है। जय हो छाते की!
जेल में बंद वह शख्स रोज देखता है कि जेलर उसके जब्त छाते को तान कर कड़ी धूप में बाहर निकलता है ।उसका छाता था भी बड़ा मजबूत और देखने में भी अच्छा-खासा, इसलिए जेलर को बड़ा पसंद था। वह उस छाते को बड़े गुरूर से तान कर बाहर निकलता था। यह देखकर उस कैदी भाई का कलेजा ऐंठ जाता था और बेचारा ताब-पेच खा कर रह जाता था। सीखचों को जोर से पकड़े दाँत पीस कर रह जाता और मन ही मन बोलता, 'स्साला दोजख में जाय '। उस शख्स को यह ख़याल कभी न आता कि वह अपने किए का खामियाजा भुगत रहा है। आदमी दूसरे को देखता है, अपने को नहीं देखता।
और, उधर अस्पताल में पड़ा हुआ शख्स बदहवासी में चिल्ला उठता, 'मेरा छाता कहाँ है'? डाक्टर लोग मुस्कुराते हुए सोचते, 'स्साला इस बदहाली में भी छाता खोज रहा है '।हाय रे, छाता!
हाँ, तो छाता। संस्कृत में 'छत्र 'है, हिन्दी की दृष्टि से 'तत्सम 'कहेंगे। तत्सम 'छत्र 'का तद्भव हुआ 'छाता '।इस 'छत्र 'शब्द ने अपने तद्भव-अपभ्रंश रूपों से हिन्दी में बड़े ही गुल खिलाए हैं। इस 'छत्र ' शब्द के तद्भव रूपों से हिन्दी में अर्थ की बहुशः भंगिमाएँ प्रचलित होकर हिन्दी के शब्द-भांडार को समृद्ध करने में कारगर हुईं।
छत्र >छत्त >छाता,
छत्र >छ त र ई>छतरी ,
छत्र >छत्त >छत ।
स्पष्ट है, छाता, छतरी और छत--भाषावैज्ञानिक दृष्टि से ' छत्र ' के ही अनेकधा विकसित रूप हैं।
छाता के साथ उसका स्त्रीलिंग रूप 'छतरी 'भी जरूरी ही था। स्त्री के बिना पुरुष कैसे जिए, लेहाजा छत्र और छतरी की जुगलजोड़ी। छतरी थोड़ी नाज़नीन और रंगीन होती है और महिलाओं के हाथों में खूब फबती है।
घर की छत भी छत्रधर्मा ही है --'आच्छादन करनेवाली '।आदमी की मूलभूत आवश्यकता है--'सिर पर छत हो '।
'छत्र 'शब्द 'छद् ' आच्छादन, अपवारण के अर्थ में (उणादि)ष्ट्रन् प्रत्यय के योग से बना है। छत्र का त्र त्राणार्थक है। आच्छादनपूर्वक जो त्राण करे, वह छत्र।
वनौषधिवर्ग में भी एक पदार्थ है, जो छत्राकार होने के कारण 'छत्रक ' कहलाता है, शिष्ट वाचक है 'शिलीन्ध्र '।इसे ही अंग्रेजी में mushroom कहते हैं। इसका सब्जी के रूप में भी घरों में व्यवहार होता है। इसके लिए एक अपशब्द 'कुकुरमुत्ता 'भी प्रचलित है।
वचन-विकृति चूँकि हास्य व व्यंग्य का कौशल-विशेष है, इसलिए उचित ही हिन्दी के महाकवि 'निराला 'ने अपनी व्यंग्य-कविताओं के संग्रह का नाम 'कुकुरमुत्ता 'रखा है, जिसमें कुकुरमुत्ता सर्वहारा वर्ग का प्रतीक है और गुलाब कैपलिस्ट का। एक नवाब ने अपने बाग में तरह-तरह के खुशबूदार और खूबसूरत फूल के पौधे लगवाए हैं। गुलाब का तो कुछ कहना ही नहीं। उसी के पास थोड़ी गंदी जगह में कुकुरमुत्ता लगा है। वह गुलाब की शेखी और शोखी पर बोल उठता है--
"अबे, सुन बे, गुलाब,
भूल मत गर पाई खुशबू, रंगोआब,
खून चूसा खाद का तू ने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपिटलिस्ट
*** *** ***
रोज पड़ता रहा पानी ,
तू हरामी खानदानी ।"
कुकुरमुत्ता यानी छत्रक (शिलींध्र, mushroom) बिलकुल सफेद छाते-सा दिखता है।
'धनुर्भंग-यज्ञ 'के प्रसंग में बाबा तुलसीदास ने जैसा चित्रण किया है, शिव-धनुष 'अजगव 'इतना भारी था कि-
"भूप सहस दस एक ही बारा।
लगे उठावन टरइ न टारा ।।"--
ऐसे भारी धनुष के बारे में रामानुज (लक्ष्मण) की रोषपूर्ण उद्घोषणा होती है कि यदि प्रभु (श्रीराम)की अनुज्ञा हो, तो इसे मैं छत्रक-दण्ड की नाईं तोड़ डालूँ --
"तोरौं छत्रक-दण्ड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद न सपथ कर न धरौं धनु हाथ। ।"
(मानस,बाल •दोहा-253 )
लक्ष्मण जी के लिए यह सर्वथा शक्य तो था ही--अनन्तशेषावतार जो ठहरे!
'छात्र 'शब्द भी छत्र से ही व्युत्पन्न है,सूत्र है "छत्रादिभ्यो णः "।'छात्र ' शब्द के मूल में यह भावना थी कि वह आचार्य के जीवन पर छत्र के समान छाया रहता था--"छत्रं शीलमस्य "।यह एक आध्यात्मिक भाव था, जिसके कारण शिष्य गुरु के प्रति विशेष जागरूक रह कर अपना कर्तव्य पालन का बल प्राप्त करता था। प्राचीन भारत में गुरु-शिष्य संबन्ध का आदर्श परम उदात्त था। आज तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहाँ तो मैं ने अंगुलिनिर्देश-मात्र किया है।
छत्र गौरव और मङ्गल का भी बोधक है। 'छत्रपति शिवा जी '-जैसे प्रयोगों में 'छत्र' शब्द गौरवख्यापक ही है। राजाओं और बड़े बड़े महापुरुषों के सिंहासन और आसन के ऊपर छत्र वितत रहता है। पुराकाल में महान् गुरुओं के ऊपर छत्र-वितान किए शिष्य पीछे-पीछे चला करते थे।
श्रीरामपूर्वतापिनी उपनिषद् में वर्णित है कि भरत, शत्रुघ्न, हनुमान और विभीषणादि अपनी-अपनी नियत श्रीराम-सेवा में तत्पर हैं। पश्चिम में लक्ष्मण जी श्रीराम के आसन के पीछे सचामर छत्र-वितान किए खड़े हैं--
"पश्चिमे लक्ष्मणं तस्य धृतच्छत्रं सचामरम्। "
अस्तु, वर्षा-आतप से त्राण के अतिरिक्त छत्र-प्रयोग का गौरवमङ्गलात्मक आयाम भी है। दान-धर्म में उपानह्-छत्र की देयता अनिवार्य है।
और तो और, भगवान् सूर्य नारायण भी प्रतिमाओं में छत्र-उपानह्-युक्त अंकित होते हैं।
छत्र का महत्त्व, अतएव,न केवल व्यावहारिक दृष्टि से,अपितु धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भी अतुलनीय है।
अब कितना कहा जाए--"बाढ़े कथा पार नहिं लहऊँ। " इत्यलम्। अब मैं लेखनी को विराम दूँ! "जय माँ। "
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