दान झपट थ्योरी

दान झपट थ्योरी

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी "
“ सुना है कि विगत शताब्दी में पश्चिम में ‘थ्योरियों’ की बाढ़ आ गयी थी—सांयन्स से लेकर समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र तक।। पश्चिमी आब-वो-हवा में पले-बढ़े पूर्वी राजनयिकों ने सोचा कि हमें भी कुछ नया करना चाहिए। उस, नया करने की ख्वाहिश ने ही स्वतन्त्र भारत को एक ज़ायकेदार थ्योरी दी जिसका नाम है—दान झपट थ्योरी ।

चूँकि ये बहुत मजेदार है—शाकाहारियों के लिए बिलकुल पनीर पकौड़े जैसी और गैर शाकाहारियों के लिए चिकन विरयानी जैसी या कहें उससे भी ज्यादा, अतः इस पर कुछ विचार करने के विचार से आज तुम्हारे पास आया हूँ बबुआ ! ”— अपना छड़ी-छाता एक ओर कोने में रखते हुए कुंढ़न काका ने कहा और वरामदे में विछी ताड़ की चटाई पर चित लेट गए।

मैं कुछ कहने ही वाला था कि वे फिर उचरने लगे — “ ये थ्योरी किसने दी, कब दी...इत्यादि के ऐतिहासिक बदबूदार गड़ही में नाक डुबों कर डूबने का ज़हमत भला क्यों मोलना ! और जानने-समझने की इतनी बेताबी ही हो जिसे, उसे खुद भी कुछ खोजना-ढूढ़ना चाहिए। पिज्जा-बर्गर की तरह सारा फास्टफुड मैं ही मुहैया करा दूँ? ”

कुँढ़नकाका ने मेरी जिज्ञासा पर इन्टरलॉक लगा दिया। इतिहास के बावत कुछ पूछ नहीं सकता। खैर कोई बात नहीं। मैं तो सिर्फ इतना ही जानता हूँ कि लूट-खसोट-तुष्टी-पुष्टिकरण वाली नयी व्यवस्था के तहद बहुत कुछ गुल खिले और खिलाए गए। उन्हीं में से एक यह भी है। कुछ गुल तत्काल खिल चुके —स्वतन्त्रता के साथ ही और कुछ धीरे-धीरे खिले—अगले साठ-सत्तर वर्षों में, बस इतनी सी तो बात है।

काका की नयी वाली दानझपटथ्योरी का नाम सुनकर मैं उलझ गया दान की परिभाषा में ही। दान की महत्ता, उपयोगिता, औचित्य आदि से अधिक विचारणीय लगा दान की परिभाषा। और तब श्रीकृष्ण की पाँच हजार साल पहले वाली बात याद आ गयी, जो आइने की तरह साफ है, निष्पक्ष है, निर्विवाद है। किसी वोटभूखू नेता के बहकावे वाला सिद्धान्त नहीं है और न भीड़ जुटाने वाले बहुरूपिए कलियुगिता सन्तों की वाणी ही है। प्रत्युत त्रिगुणातीत, तुरीयातीत मर्मभेदक श्रीकृष्ण के अनमोल वचन हैं, दान-निर्देशिका है।

त्रिगुणात्मिका सृष्टि में दान को भी त्रिविध रूप से परिभाषित किया गया है श्रद्धात्रयविभागयोग नामक गीता के अध्याय १७, श्लोक- २०, २१, २२ में। दान को सात्त्विक, राजस, तामस तीन भागों में विश्लेषित करते हुए, श्रीकृष्ण कहते हैं —

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ।।

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।

दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ।।

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।

असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ।।

अर्थात् दान देना कर्तव्य है—ऐसे भाव से जो दान समुचित देश, काल, पात्र के उपलब्ध होने पर निष्कामभाव से दिया जाता है, उसे सात्त्विक दान कहा गया है। ये सात्त्विक दान वस्तुतः दान होते हुए भी दान नहीं है, प्रत्युत त्याग है। एक गुना दान का सहस्रगुना पुण्य मिले—इस भाव (विचार) से जो दान दिया जाता है, वो सात्त्विक दान भला कैसे हो सकता है? दान के प्रति मोह बना रह गया, फलाकांक्षा बनी रह गयी । दान के बदले यदि कुछ पाने की कामना बनी रह गयी, तो वह राजसी दान ही कहलायेगा, न कि सात्त्विक । इसी भाव को अगले श्लोक में स्पष्ट करते हुए श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि जो दान क्लेशपूर्वक, प्रत्युपकार के लिए, किसी फल-प्राप्ति-कामना से किया जाय वह राजसी दान है। आगे तामसी दान को परिभाषित करते हैं—जो दान बिना सत्कार के अवज्ञापूर्वक, अयोग्य देश-काल-पात्र को दिया जाए वह तामसी दान है।

हालाँकि विद्वानों का ये भी मत है कि कलियुग में तो दान ही एकमात्र धर्म है। अतः जैसे भी हो दान दिया जाना चाहिए। इससे त्याग की प्रवृत्ति बनेगी और कल्याण होगा।

किन्तु क्या ये शत-प्रतिशत सही है? इस निर्णय पर पहुँचने से पहले जरा इस आर्ष वचन को भी सुन-समझ लें— कुपात्रदानाच्च भवेद्दरिद्रो दारिद्र्य दोषेण करोति पापम् । पापप्रभावान्नरकं प्रयाति पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी ।। दानचन्द्रिका के इन वचनों का भाव ये है कि कुपात्र को दिये गए दान का परिणाम ये होता है कि बारम्बार दरिद्र होकर पाप कर्मों में प्रवृत्त होना पड़ता है।

उक्त चार संकेत-सूत्रों से बहुत कुछ स्पष्ट हो जा रहा है। दान की उक्त कसौटी पर कितने दान और कितने दानी खरे उतरेंगे—किसी भी देश-काल में जरा विचार करें।

आजकल तो दानपट्टिका पर नाम खुदवाने और सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित करने के ध्येय से ही ज्यादातर दान दिए जाते हैं। इतना दान किए, इतनी सेवा किए, इतना त्याग किए—की बड़ी लम्बी सूची होती है दानियों के पास । इतना ही नहीं, अब तो फोटो-वीडियो में भी दान सुरक्षित रखे जाते हैं, ताकि शेखी बघारने में सुविधा हो। मजे की बात है कि धारा 80 G के तहत टैक्स चोरी के लिए दान एक ढाल की तरह प्रयोग होता है। व्यापारी वर्ग में “धर्मादा” निकालने का चलन है। दिन-रात व्यापार के नाम पर सफेद झूठ बोलते, ठगी करते, कालाबाजारी करते, खाद्य से लेकर औषधि तक मिलावट करते व्यापारी धर्मखाता खूब चलाते हैं— ये सोचकर कि इससे पाप कटेगा ।

लोकतान्त्रिक चुनावों में दानियों की बाढ़ आ जाती है। महाभ्रष्ट नेता चन्दे की रकम से चुनाव जीतता है और फिर उसके आगामी भ्रष्टाचार का मोहरा बनता है समूचा राष्ट्र । उद्योगपति अपनी औकातभर चुनावी चन्दा इसीलिए देता है, ताकि आगे उसे लूटने का अवसर मिले । यानी कि जितना बड़ा दानी उतना बड़ा लुटेरा। मजे की बात ये है कि न तो इस दान को ही प्रमाणित कर सकते हैं और न इस लूट को ही।

त्योहार-उत्सव बहुल देश भारत में पूजा-पंडालों का वजट आजकल लाखों-करोड़ों में होता है। तरह-तरह के आडम्बरी यज्ञानुष्ठान होते हैं। आयोजक मुक्तहस्त दान बटोरते हैं ।

किन्तु इन सब कार्यों से धर्मार्जन कितना होता है, ये कहना जरा कठिन है, भले ही मनोरंजन के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी थोड़ी गति मिलती है।

परन्तु इसके दूसरे पक्ष को भी नकारा नहीं जा सकता । धार्मिकता की अन्धी दौड़ में कलश और मूर्ति-विसर्जन के नाम पर नदी, तालाबों को प्रदूषित करते हैं। कर्कश डी.जे. के बिना तो इक्कीसवीं सदी के देवता-देवी प्रसन्न ही नहीं होते। और पर्दे के पीछे चलता है – जूए-शराब का दौर भी। “ रावणदहन की बीमारी ” से हर वर्ष हमारा पर्यावरण कितना बीमार होता है—शायद ही इस पर कोई विचार करता हो। ये सारे खर्चे चन्दे उगाही से ही तो होते हैं। हम इसे भी दान ही समझ लेते हैं।

ध्यान देने की बात है कि धर्मशास्त्रों ने दान को बहुत महिमामण्डित किया है, तो बहुत ही सावधानी भी निर्दिष्ट हैं। आपका दान धोखेवाज भी हो सकता है। अतः आप ये कह कर नहीं बच सकते कि हमने तो शुद्धभाव से दान दिया है...हमने तो गरीब को भोजन-वस्त्र के लिए दान दिया है। यदि आपके दान के पैसे से कोई जुआ खेलता है, गांजा-शराब पीता है, अस्त्र-शस्त्र खरीदता है, तो उससे होने वाले पाप के लिए निश्चित ही आप भी परोक्ष उत्तरदायी हैं। पता भी नहीं चलेगा कभी और अज्ञात दुष्परिणाम भुगतते रहेंगे । आपने पूजा-पंडाल के लिए दान दिया । उस पंडाल में बजने वाले डी.जे. की कर्कश ध्वनि से किसी हृदयरोगी के प्राणपखेरु उड़ गए यदि तो आप निश्चित ही उस हत्या के जिम्मेवार हो गए, अनजाने में ही। इस तरह के अनेक उदाहरण मिल जायेंगे—यदि आप जानने-समझने की कोशिश करें।

मेरा आवास शहर के एक प्रसिद्ध मन्दिर के समीप है। जब भी बाहर निकलता हूँ गेट के पास एक अपाहिज सा युवक लेटा-विलखता मिलता है। कई बार उसे भोजन-वस्त्र दिया। देते वक्त मेरी आँखें उसके चेहरे पर उठने वाली प्रतिक्रियाओं पर होती, जिनमें न प्राप्ति जनित किलक होती और न कृतज्ञता—तो क्या वह निर्विकार है—स्वयं से सवाल करता मैं आगे निकल जाता।

आदतन, मैं पैसे शायद ही कभी देता हूँ किसी भिक्षुक को, किन्तु मैंने अनुभव किया कि जब कभी भी भोज्य सामग्री के वजाय नगद पैसे उसकी हथेली पर रखा, उसका चेहरा और आँखें किलक भी प्रकट की और कृतज्ञता भी।

संयोग से एक दिन बाहर से घर लौटते समय वह भिक्षुक दिख गया। उसे देखकर मैं जरा ठिठका, फिर मैं सामने की दुकान पर गया विस्कुट का एक पैकेट लेने। दुकानदार मेरी मनसा समझते हुए वोला— “ खाने-पीने की चीजों से इसे खास लगाव नहीं है, उसे पैसे चाहिए सुलेशन सूंघने के लिए...पाँच रूपये के सुलेशन में चौबीस घंटे की मस्ती...। पहले दारू पीता था, फिर चरस-हेरोइन की लत लगी। जमीन-मकान हाथ से निकल गया। अब नया वाला सस्ता-सुविधा नशा सुलेशन पकड़ा गया है...। ”

मैं अचम्भित हुआ— भोजन-वस्त्र की प्राप्ति-अप्राप्ति की निरर्थकता का पोल खुल गया और अपने सात्त्विक दान पर भी सवाल उठने लगा। अनेक सवालों की भीड़ में धक्का-मुक्की खाते किसी तरह घर आया।

किन्तु अशान्त, चिन्तित, खिन्न चित्त। मन्दिर के गेट पर बैठे हुए भिखारी को दिए गए निष्कलुष दान-राशि से लेकर बड़े-बड़े मन्दिरों की भरी-भरी दानपेटियों तक मेरे विचारों का घोड़ा दौड़ लगा गया। कुँढ़नकाका का दानझपट फार्मूला बिना गेसपेपर के ही समझ आने लगा। और इस निश्चय पर आ टिका कि मन्दिरों में दान देना महापाप है।

गम्भीरता से विचार करें तो पायेंगे कि स्वतन्त्र भारत में मन्दिरों की स्थिति परतन्त्रता से भी बदतर है। लगभग सभी बड़े मन्दिर धार्मिकन्यासवोर्ड के अधीन हैं और न्यासवोर्ड सरकार के अधीन ।

सरकार के कारनामों से हम-आप सभी अवगत हैं। नेता बनने के लिए यूँ ही इतनी बेताबी नहीं होती है । सारे बगुले नदी किनारे मछली के लिए टकध्यान लगाये होते हैं। भोली जनता की गाढ़ी कमाई से चुकाये गए अनाप-सनाप टैक्स से सांसद-पार्षद, पदाधिकारी ऐश करते हैं। इनमें इक्के-दुक्के ही वास्तव में जनसेवक हैं, बाकी के तो लुच्चे-लफंगे, पैरासाइट प्राणी ।

धर्मभीरु, धर्मप्राण भारत में मन्दिरों की संख्या अनगिनत है। बड़े (सूचीबद्ध) मन्दिर भी हजारों में हैं। इन मन्दिरों में अरबों-खरबों की राशि दान में आती है। उदाहरण के तौर पर कह सकता हूँ कि यदि देश की पूरी अर्थव्यवस्था को मन्दिरों के भरोसे छोड़ दिया जाय, तो बड़े सुखचैन से देशवासियों का जीवन वसर हो सकता है। ज़ाहिर है कि हमारे मन्दिरों में अकूत सम्पदा है। आज भी भारत सोने की चिड़िया है, किन्तु खेद की बात है कि हुक्मरानों के मुट्टी में कैद होकर फड़फड़ा रही है।

ये सच है कि कुछ मन्दिरों के आय का सदुपयोग विद्यालय, अस्पताल, अनाथालय आदि चलाने के लिए किए जाते हैं। किन्तु ये भी उतना ही सत्य है कि मन्दिर की दानराशि का प्रयोग चर्चो और मस्जिदों के विकास के लिए ज्यादा होता है। तीर्थयात्रा के लिए सब्सीडी की व्यवस्था भले न हो, पर हाज़ियों को तो खुली छूट है और सबसे दुःखद बात ये है कि मन्दिरों को छोड़कर, शेष धार्मिक स्थलों (चर्चों, मजारों, मस्जिदों आदि) पर “दानझपटथ्योरी” लागू ही नहीं होती।

हमारा देश धर्मनिर्पेक्षता सिद्धान्त का पालक-पोषक है न । और हम बखूबी जानते हैं कि धर्मनिर्पेक्षता की परिभाषा क्या है। सुनियोजित ढंग से वर्ग विशिष्ट को पोषित करते रहना ही धर्मनिर्पेक्षता है।

एक देश में दो संविधान वैध हो सकते हैं, तो एक शरीर में दो जुबान क्यों नहीं हो सकती ! एक जुबान कमरे में बैठ कर बोलने के काम आता है और दूसरा मंच पर चढ़कर भाषण देने या मीडिया के सामने बातें करने के लिए इस्तेमाल होता है।

अब जरा एक और मंच का नजारा भी देख लें — बाबाओं के मंच का। कबीरवाणी तो पढ़े ही होंगे—जाति न पूछो साधु की...। चूल्हे की राख लपेटे जटाजूट-जीवर-चीमटाधारी से भला आप वर्ण-जाति की चर्चा ही कैसे करेंगे ? पाप लगेगा न ?

असल बात ये है कि हम सभी अपनी विविध कामनाओं से अन्धे हैं। वेटा चाहिए, धन चाहिए, शत्रु की पराजय चाहिए, योग्यता हो न हो मन माफिक नौकरी चाहिए, काले-कलूटे वेटे के लिए भी सुराहीदार गर्दन वाली मिल्कीवाइट बहू चाहिए, टीनेजरों को लवर चाहिए...। चाहिए...चाहिए की इस भीड़ में बुद्धि-विवेक कुन्द हो चुका है। और ऐसे में बहुरुपियों की तरह बाना बनाये बाबाओं की बाढ़ आ गयी है । भाऊक भक्तों के कलेजे से लहू निकाल लेने की कला उन्हें अच्छी तरह आती है। अगली कतार में बैठी महिलाओं से दान के नाम पर जेवर उतरवा लेने की कहानी अभी बहुत पुरानी नहीं हुयी है। नामीगिरामी बाबाओं के विविध कारनामें भी जग-ज़ाहिर हैं।

मन्दिरों-मजारों का एक पक्ष और भी है—आए दिन सड़क किनारे सरकारी जमीन पर सिन्दूर लगाकर दो-चार ईंटे रख दी जाती हैं। लाल, भगवा, हरा अपने मनमाफिक आवरण डाल दिया जाता है और वहाँ झोपड़ी डालकर एक गंजेड़ी-भंगेड़ी,शराबी बैठ जाता है। आसपास के लफंगों को लेकर, अड्डेबाजी शुरु हो जाती है। दुःसाहस पूर्वक सड़क पर बेरियर लगाकर चन्दे की उगाही भी दवंगयी से होने लगती है। और फिर कालनेमी की मायाजाल का विस्तार होने लगता है। अन्धभक्तों की भीड़ जुटने लगती है। भभूत और ताबीज बांटते-बांटते प्रसिद्धि हो जाती है उस स्थान की।

अतः आप इस भ्रम में न रहें कि घोर कलिकाल में धार्मिकता की बाढ़ आ गयी है। धर्म तो कहीं किसी कन्दरे में पड़ा सिसक रहा होगा। चारो ओर फैले “कालनेमियों” की जाल से भाउक भक्तों का उबरना बड़ा मुश्किल हो रहा है।

दूसरों को मन्दिर जाते देख कर, सत्संग में जाते देखकर, दान करते देख कर, आप भी भाउक न हो जाएँ । देखा-देखी की अन्धी दौड़ में रेस का घोड़ा न बने।

किसी भूखे को भोजन दे दें, जरुरत हो तो वस्त्र दे दें । किसी गरीब की झोपड़ी पर छप्पर का इन्ज़ाम कर दें । किसी निर्धन की कन्या का विवाह करा दें। किसी लाचार रोगी का इलाज करा दें । और इन सबसे समय बचे तो बन्द कमरे में आँखें मूंद कर प्रभु का ध्यान करें । वह आपके भीतर ही कहीं छिपकर बैठा है । मन्दिर के ईंट-पत्थरों की कैद से उबकर बहुत दूर चला गया है ।

मेरे विचार जान कर काका बहुत प्रसन्न हुए और सिर हिलाते हुए बोले— “ ठीक कह रहे हो, जो भी करो बिलकुल व्यक्तिगत तौर पर करो। किसी संस्थागत बैनर और कैमरे की बाट न जोहो। एकदम से गांठ बाँध लो बबुआ ! — ये बैनर और फोटो चित्रगुप्त के दरवार में रत्तीभर भी काम आनेवाले नहीं हैं । और इन महामन्दिरों का दान—ये तो सीधे रौरवनरक का द्वार ही खोल देगा । ”
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