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धरा का दुर्भाग्य

धरा का दुर्भाग्य

सृष्टि हो रही आज जिस धरा पे ,
कैसे कहूॅं उस धरा का सौभाग्य ।
हो रही नृशंस हत्याएं जहां पर ,
आज उसी धरा का हुआ दुर्भाग्य ।।
सृष्टि तो हुई है प्रेम बरसाने हेतु ,
आज बरस रहे सर्वत्र हैं अंगारे ।
आज पूरा विश्व चिंतित पड़ा है ,
मिट्टी में मिलते देख बंधुत्व सारे।।
मानव ही मानव का दुश्मन बना ,
जन जन कहते हम भक्त हैं सारे ।
बन पड़े सब मानवता के दुश्मन ,
भोले भाले लोग जा रहे हैं मारे ।।
आतंक नक्सल और माओवादी ,
आज पैदा हो गया नया हमास ।
भोले भाले निरपराध को मारकर ,
खूनों से निज बुझा रहे हैं प्यास ।।
उनसे बड़े आज बने हैं वे हत्यारे ,
जो करते आज आर्थिक सहयोग ।
छिन गई है आज विश्व की शांति ,
माॅं धरा की आज यही है दुर्योग ।।
ज्ञानेश बप्पा सबको ज्ञान बुद्धि दे,
माॅं सरस्वती तू विद्या दे दे अपार ।
लूट मार हत्या बंद हो आपस की ,
विश्वबंधुत्व कायम करे ये संसार।।
सारे देव देवी से विनम्र हैं प्रार्थना ,
दूर करो धरा का यह बुरा दुर्योग ।
शांति सद्व्यवहार पुनः कायम कर,
धरा पर बना दे पुनः ऐसा संयोग।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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