संसकार की दुर्गति होती

संसकार की दुर्गति होती

डॉ रामकृष्ण मिश्र 
गिरी आस्थाएँ।
नये उजाले में उगती
‌ हरियाती बिपदाएँ।।
मनुज आचरण में पशुता का
नंगापन ओढे़।
मदालस्य के दुर्मुख स्वर में
अपने भर जोड़े।।
चप्पे- चप्पे चलती चालें
अनगढ़ दुविधाएँ।।


बँटवारे के कठिन दौर में
बँटता रहा समाज।
भाई ही भाई पर कैसे
बनता रहता बाज।।
बनती मिटती तिमिर मापती
अनियत सीमाएँ।।


पत्थर पर बैठी मनुष्यता
आँसू बहा रही।
और दुष्टता गंगा तट पर
दूधो नहा रही।।
चिथड़े में चिपकी सहमी- सी
सुमुखी आशाएँ।।
*********"************************12रामकृष्ण
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