वैशाख : माधवमास

वैशाख : माधवमास

डॉ• मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•( पूर्व यू•प्रोफेसर)
नित्य शाम को घूमने निकलता हूँ और सुपरिचित पान की दूकान पर जाता हूँ--ताम्बूल-चर्वण की लत एक जमाने से पड़ी हुई जो ठहरी!पटना विश्वविद्यालय के छात्र-जीवन से ही इस व्यसन का शिकार हूँ ।यहाँ अरगोड़ा कॉलोनी (राँची)के निवास से चल कर अशोक नगर 4 नंबर गेट के सामने पान की दूकान पर पहुँचता हूँ।यह पान की दूकान वाला बड़ा सहृदय व्यक्ति है ।वह पान लगाता रहता है और देश-दुनिया की चर्चा भी खूब चटखारे लेकर करता है और बड़े ही प्रीतिकर भाव के साथ पान की गिलौरी हाथ में थमाता है और छोटी-सी कटोरी में जर्दा व सादी पत्ती भी। पान की गिलौरी मुँह में लिये अपने सहचर पौत्र कुमार कौस्तुभ के साथ बात करता हुआ कि कितने दिन इधर गुजर गए और मधुदूती (कोयल)की मीठी कूक सुनने को मेरे कान उतावले हैं, कि सहसा कोयल का हृदयहारी मधुर कूजन दो-तीन बार कानों में पड़ा और महाकवि कालिदास की पंक्ति मेरी जुबान से बेसाख्ता निकल पड़ी--"चूताङ्कुरास्वादकषायकण्ठः पुंस्कोकिलो यन्मधुरं चुकूज "(कुमारसंभवम्, 3/33 )। चूताङ्कुर (आम्र-मंजर)के आस्वाद से कोकिल-कंठ सुखर हो आता है, फलतः प्रस्फुटित स्वर बेपायाँ प्यारा हो उठता है। कालिदास ने आम्र-मंजर को 'ऋतुमङ्गल ' (अभिज्ञान शाकुन्तलम्-6/2) यों ही नहीं कहा है ।सुन करअन्तरतर हृदय आलोड़ित हुए बिना नहीं रहता। पोते ने हुंकारी दी, 'ठीक कहते हैं, बाबा!'
लौटते हुए रास्ते में पोते ने नसीहत दी, "बाबा, पान के साथ जर्दा खाना छोड़ दीजिए। जर्दा स्वास्थ्य के लिए बहुत घातक है। "और ,जवाब में मेरे मुख से निस्संकोच निकल पड़ा--"उम्र तो सारी कटी इश्के बुताँ में मोमीन ।अब आखिरी वक्त में क्या खाक मुसल्माँ होंगे। ।"
चैत्र और वैशाख--ये दो मास वसन्त ऋतु के हैं। गौरतलब है कि संस्कृत में चैत्र का अन्य पर्याय 'मधु 'है और वैशाख का है 'माधव'।सुतरां, मधुमास और माधवमास =वसन्त। वसन्त है 'ऋतुराज '।कोमल-कान्त पदावली के रससिद्ध रचयिता मैथिल-कोकिल विद्यापति इसी भाव से गा उठे हैं--"आओल ऋतुपति राज बसंत ।धाओल अलिकुल माधवि पंथ। ।"यानी,ऋतुराज वसन्त के आगमन पर अलिकुल (भ्रमर-पुंज)माधवी लता की ओर बरबस दौड़ पड़ते हैं ।माधवी लता वसन्त में खूब खिल उठती है ,इसीलिए माधवी का अन्य नाम 'वासन्ती 'भी है। इसके अन्य पर्याय 'अतिमुक्तक 'और 'पौण्ड्रक 'हैं (देखें, अमरकोष)।मधु-माधव (चैत्र-वैशाख)वसन्त के सर्वथा अनुरूप वासन्ती और माधवी -- लता के ये नाम कितने सटीक और तात्पर्य-व्यंजक हैं, कहना न होगा।
एक ओर कोकिल का हृदयावर्जक मधुर कूजन और दूसरी ओर मधुप-पुंज का कानों में मिसरी घोलती गुंजार--मत पूछिए दिल का हाल!
वैशाख (माधव)शब्द को गुनते हुए एक अतिवेल मार्मिक तात्पर्य ,एक गूढ अभिप्राय, मेरे चित्त-फलक पर प्राज्यतया ज्योतित हो रहा है। 'वैशाख ' शब्द 'विशाखा '(दो तरकों वाला नक्षत्र)के आधार पर व्युत्पन्न है--वैशाख अर्थात् जो विशाखा-संयुत है । विशाखा का अन्य नाम 'राधा 'है अर्थात् विशाखा और राधा पर्यायवाची हैं। वैशाख है 'माधव ' और चैत्र है 'मधु'(देखें,अमरकोष)।'मधुमास 'कहने से केवल चैत्र का बोध होता है, पूरे वसन्त का नहीं --यानी, वसन्त के पूर्वार्द्ध का बोधक है 'मधुमास '।उसी प्रकार वसन्त का उत्तरार्द्ध वैशाख "माधव '-पदवाच्य है। विशाखा यानी राधा के साथ समरसीभूत माधव (वैशाख)का भाव-बोध 'वैशाख '(माधव)में अन्तर्ग्रथित है। अस्तु,वैशाख शब्द से राधा-माधव युगल का तात्पर्य एकहेलया कटाक्षित है ।(यहाँ "विशाखा"से राधा लक्षीभूत है ,यद्यपि 'विशाखा 'श्रीकृष्ण-प्रेष्ठा राधा की प्रधानअष्ट सखियों में सखी-विशेष के रूप में भी परिगणित है।
श्रीराधाकृष्ण-परक मधुरा भक्ति के रससिद्ध गायक स्वनामधन्य जयदेव क्या ही खूब गाया है--
"श्रृङ्गार : सखि मूर्त्तिमानिव मधौ मुग्धो हरि:क्रीडति। "मधौ=मधु में अर्थात् मधुमास (चैत्र) में मुग्ध हरि (कृष्ण)ऐसे क्रीडा कर रहे हैं, जैसे साक्षात् श्रृंगार ही मूर्त्तिमान् हो। धन्य है, मधु-माधव वसन्त---- चिदानन्द का क्षणिक सांसारिक अवभास।
वैशाख अब बीत चला है। वसन्त 'अलविदा 'बोलने को आतुर है। सुख के दिन बहुत थोड़े होते है और दुःख की रात बहुत लम्बी। किसी-किसी के जीवन में तो दुरन्त हो जाती है। ऐसों के लिए तो क्या शिशिर (पतझड़),क्या वसन्त -बल्कि वसन्त में भी पतझड़ ही पत्तों में छुप कर रोती नजर आती है।
वसन्त के दो मास जैसे पल भर में गुजर जाते हैं। पिकी पुकारती रह जाती है, मगर वह रुकने का नाम नहीं लेता ---
"वसन्त के चपल चरण।
पिकी पुकारती रही, पुकारती धरा गगन ;
मगर कहीं रुके नहीं ,वसन्त के चपल चरण।"[कविवर रामदयाल पाण्डेय]
वसन्त एक क्षणिक अनुभूति है--कब आता है,कब चला जाता है। आज जीवन जिस तरह यन्त्र-चालित-सा हो गया है और आदमी नितान्त हृदयहीन होकर इंसानियत खो चुका है, वसन्त अब एहसास को छू नहीं पाता --नहूसत में ही रुख़सत हो जाता है। वसन्त को महसूसने की फुर्सत ही कहाँ है!---
"चमन में फस्ले बहार आई और गुजर भी गई।
हम फिक्र में ही रहे आशियाँ बनाने के ।।"
जीवन तो दरअस्ल दु:ख का रूपक है ,जिसमे सुख के कतिपय क्षणिक प्रस॔ग आते-जाते रहते हैं--"life is a drama of pain with occasional episodes of happiness. "
ऐसे कुछ आते-जाते सुखद क्षणों की समष्टि का नाम है वसन्त। वसन्त की बाबत मेरी तो बस इतनी ही फहम है। एक तरह का और वसन्त होता है,जिसे 'घोंघा बसंत ' (मूर्ख के अर्थ में व्यंग्यात्मक प्रयोग )कहते हैं, जो और कोई नहीं,बल्कि खुद मैं ही हूँ।
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