परमात्मा सुख महान और विलक्षण होता है

परमात्मा सुख महान और विलक्षण होता है

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-इस प्रकार परमात्मा के स्वरूप में निरुद्ध हुए चित्त का उपरत होना क्या है?

उत्तर-जिस समय योगी का चित्त परमात्मा के स्वरूप में सब प्रकार से निरुद्ध हो जाता है, उसी समय उसका चित्त संसार से सर्वथा उपरत हो जाता है; फिर उसके अन्तःकरण में संसार के लिये कोई स्थान नहीं रह जाता। यद्यपि लोकदृष्टि में उसका चित्त समाधि के समय संसार से उपरत और व्यवहार काल में संसार का चिन्तन करता हुआ-सा प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में उसका संसार से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता-यही उसके चित्त का सदा के लिये संसार से उपरत हो जाना है।

प्रश्न-यहाँ ‘यत्र’ किसका वाचक है?

उत्तर-जिस अवस्था में ध्यान योग के साधक का परमात्मा से संयोग हो जाता है अर्थात् उसे परमात्मा का प्रत्यक्ष हो जाता है और संसार से उसका सम्बन्ध सदा के लिये छूट जाता है, तथा तेईसवें श्लोक में भगवान् ने जिसका नाम ‘योग’ बतलाया है, उसी अवस्था विशेष का वाचक यहाँ ‘यत्र’ है।

प्रश्न-यहाँ ‘एव’ का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘एव’ का प्रयोग यहाँ परमात्म दर्शन जतिन आनन्द से अतिरिक्त अन्य सांसारिक सन्तोष के हेतुओं का निराकरण करने के लिये किया गया है। अभिप्राय यह है कि परमानन्द और परम शान्ति के समुद्र परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर योगी सदा-सर्वदा उसी आनन्द में सन्तुष्ट रहता है, उसे किसी प्रकार के भी सांसारिक सुख की किंचित मात्र भी आवश्यकता नहीं रहती।

प्रश्न-जिस ध्यान से परमात्मा का साक्षात्कार होता है, उस ध्यान का अभ्यास कैसे करना चाहिये?

उत्तर-एकान्त स्थान में पहले बतलाये हुए प्रकार से आसन पर बैठकर मन के समस्त संकल्पों का त्याग करके इस प्रकार धारणा करनी चाहिये-

एक विज्ञान-आनन्दधन पूर्ण ब्रह्म परमात्मा ही है। उसके सिवा कोई वस्तु ही नहीं, केवल एकमात्र वही परिपूर्ण है। उसका यह ज्ञान भी उसी को है, क्योंकि वही ज्ञान स्वरूप है। वह सनातन, निर्विकार, असीम, अपार, अनन्त, अकल और अनवद्य है। मन, बुद्धि, अहंकार, द्रष्टा, दर्शन, दृश्य आदि जो कुछ भी हैं, सब उस ब्रह्म में ही आरोपित हैं और वस्तुतः ब्रह्म स्वरूप ही हैं। वह आनन्दमय है और अवर्णनीय है। उसका यह आनन्दमय स्वरूप भी आनन्दमय है। वह आनन्द स्वरूप पूर्ण है, नित्य है, सनातन है, अज है, अविनाशी है, परम है, चरम है, सत् है, चेतन है, विज्ञानमय है, कूटस्थ है, अचल है, ध्रुव है, अनमय हे, वोधमय है, अनन्तहै, और शान्त है। इस प्रकार उसके आनन्द स्वरूप का चिन्तन करते हुए बार-बार ऐसी दृढ़ धारणा करते रहना चाहिये कि उस आनन्द स्वरूप के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। यदि कोई संकल्प उठे तो उसे भी आनन्दमय से ही निकला हुआ, आनन्दमय ही समझकर आनन्दमय में ही विलीन कर दे। इस प्रकार धारणा करते-करते जब

समस्त संकल्प आनन्दमय बोध स्वरूप परमात्मा में विलीन हो जाते हैं और एक आनन्दधन परमात्मा के अतिरिक्त किसी भी संकल्प का अस्तित्व नहीं रह जाता, तब साधक की आनन्दमय परमात्मा में अचल स्थिति हो जाती है। इस प्रकार नित्य-नियमित ध्यान करते-करते अपनी और संसार की समस्त सत्ता जब ब्रह्म से अभिन्न हो जाती है, जब सभी कुछ परमानन्द और परम शान्तिरूप ब्रह्म बन जाता है, तब साधक को परमात्मा का वास्तविक साक्षात्कार सहज ही हो जाता है।

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धि ग्राह्यमतीन्द्रियम्।

वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्वलति तत्त्वतः।। 21।।

प्रश्न-यहाँ सुख के साथ ‘आत्यन्तिकम्, और ‘बुद्धिग्राह्यम्’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-अठारहवें अध्याय में छत्तीसवें उन्तालीसवें श्लोक तक जिन सात्विक, राजस और तामस, तीन प्रकार के सुखों का वर्णन है, उनसे इस परमात्म स्वरूप सुख की अत्यन्त विलक्षणता दिखलाने के लिये ही उपर्युक्त विशेषण दिये गये हैं। परमात्म स्वरूप सुख सांसारिक सुखों की भाँति क्षणिक, नाशवान् दुःखों का हेतु और दुःख मिश्रित नहीं होता। वह सात्त्विक सुख की अपेक्षा भी महान् और विलक्षण, सदा एकरस रहने वाला और नित्य है; क्योंकि वह परमात्मा का स्वरूप ही है, उससे भिन्न कोई दूसरा पदार्थ नहीं है। यही भाव दिखलाने के लिये ‘आत्यन्तिकम्’ विशेषण दिया गया है। वह सुख स्वयं नित्य ज्ञान स्वरूप है। माया की सीमा से सर्वथा अतीत होने के कारण बुद्धि वहाँ तक नहीं पहुँच सकती, तथापि जैसे मल रहित स्वच्छ दर्पण में आकाश का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वैसे ही भजन-ध्यान और विवेक-वैराग्यादि के अभ्यास से अचल, सूक्ष्म और शुद्ध हुई बुद्धि में उस सुख का प्रतिबिम्ब पड़ता है। इसीलिये उसे ‘बुद्धि ग्राह्य’ कहा गया है।

परमात्मा के ध्यान से होने वाला सात्त्विक सुख भी, इन्द्रियों से अतीत, बुद्धि ग्राह्य और अक्षय सुख में हेतु होने से अन्य सांसारिक सुखों की अपेक्षा अत्यन्त विलक्षण है। किन्तु वह केवल ध्यान काल में ही रहता है, सदा एकरस नहीं रहता; और वह चित्त की ही एक अवस्था विशेष होती है, इसलिये उसे ‘आत्यन्तिक’ या ‘अक्षय सुख’ नहीं कहा जा सकता। परमात्मा का स्वरूप भूत यह सुख तो उस ध्यान जनित सुख का फल है। अतएव यह उससे अत्यन्त विलक्षण है। इस प्रकार तीन विशेषण देकर यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि सात्त्विक सुख की भाँति यह सुख अनुभव में आने वाला नहीं है। यह तो ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता हो जाने पर अपने आप प्रकट होने वाले परमात्मा का स्वरूप ही है।

प्रश्न-‘तत्त्व से विचलित न होने’ का क्या तात्पर्य है और यहाँ ‘एव’ का प्रयोग किस अभिप्राय से हुआ है?

उत्तर-‘तत्व’ शब्द परमात्मा के स्वरूप का वाचक है और उसे कभी अलग न होना ही-विचलित नहीं होना है। ‘एव’ से यह भाव निकलता है कि परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर योगी की उनमें सदा के लिए अटल स्थिति हो जाती है, फिर वह कभी किसी भी अवस्था, किसी भी कारण से परमात्मा से अलग नहीं होता।
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