सम्पूर्ण भोगों से विरक्त होना ही वैराग्य

सम्पूर्ण भोगों से विरक्त होना ही वैराग्य

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-कर्मों में ‘युक्त चेष्टा’ करने का क्या भाव है?
उत्तर-वर्ण, आश्रम, अवस्था, स्थिति और वातावरण आदि के अनुसार जिसके लिये शास्त्र में जो कर्तव्य कर्म बतलाये गये हैं, उन्हीं का नाम कर्म है। उन कर्मों का उचित स्वरूप में और उचित मात्रा में यथा योग्य सेवन करना ही कर्मों में युक्त चेष्टा करना है। जैसे ईश्वर-भक्ति, देव पूजन, दीन-दुखियों की सेवा, माता-पिता-आचार्य आदि गुरूजनों का पूजन-पाठन-व्यापार आदि कर्म और शौच-स्नानादि क्रियाएँ-ये सभी कर्म वे ही करने चाहिये, जो शास्त्र विहित हों, साधु सम्मत हों, किसी का अहित करने वाले न हों, स्वावलम्बन में सहायक हों, किसी को कष्ट पहुँचाने या किसी पर मार डालने वो न हों और ध्यान योग में सहायक हों तथा इन कर्मों का परिमाण भी उतना ही होना चाहिये, जितना जिसके लिये आवश्यक हो, जिससे न्यायपूर्वक शरीर निर्वाह होता रहे और ध्यान योग के लिये भी आवश्यकतानुसार पर्याप्त समय मिल जाय। ऐसा करने से शरीर, इन्द्रिय और मन स्वस्थ रहते हैं और ध्यान योग सुगमता से सिद्ध होता है।

प्रश्न-युक्त सोना और जागना क्या है?

उत्तर-दिन के समय जागते रहना, रात के समय पहले तथा पिछले पहर में जागना और बीच के दो पहरों में सोना-साधारणतया इसी को उचित सोना-जागना माना जाता है। तथापि यह नियम नहीं है कि सबको बीच के छः घंटे सोना ही चाहिये। ध्यान योगी को अपनी प्रकृति और शरीर की स्थिति के अनुकूल व्यवस्था कर लेनी चाहिये। रात को पाँच या चार ही घंटे सोने से काम चल जाय, ध्यान के समय नींद या आलस्य न आवे और स्वास्थ्य में किसी प्रकार की गड़बड़ी न हो तो छः घंटे न सोकर पाँच या चार घंटे सोना चाहिये।

‘युक्त’ शब्द का यही भाव समझना चाहिये कि आहार, विहार, कर्म, सवोना और जागना शास्त्र के प्रतिकूल न हो और उतनी ही मात्रा में हो जितना जिसकी प्रकृति, स्वास्थ्य और रुचि के खयाल को उपयुक्त और आवश्यक हो।

प्रश्न-‘योग’ के साथ ‘दुःखहा’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘ध्यान योग’ सिद्ध हो जाने पर ध्यान योगी को परमानन्द और परम शान्ति के अनन्त सागर परमेश्वर की प्राप्ति हो जाती है, जिससे उसके सम्पूर्ण दुःख अपने कारण सहित सदा के लिये नष्ट हो जाते हैं। फिर न तो उसे कभी भूलकर भी जन्म-मरण रूप संसार दुःख का सामना करना पड़ता है और न उसे कभी स्वप्न में भी चिन्ता, शोक, भय और उद्वेग आदि ही होते हैं। वह सर्वथा और सर्वदा आनन्द के महान् प्रशान्त सागर में निमग्न रहता है। दुःखद का आत्यन्तिक नाश करने वाले इस फल का निर्देश करने के लिये ही ‘योग’ के साथ ‘दुःखहा’ विशेषण दिया गया है।

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।

निःस्पृहः सर्वकामेज्यो युक्त इत्युच्यते तदा।। 18।।

प्रश्न-‘चित्तम्’ के साथ ‘विनियतम्’ विशेषण देने का क्या प्रयोजन है? और उसका परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित होना क्या है?

उत्तर-भलीभाँति वश में किया हुआ चित्त ही परमात्मा में अटल रूप से स्थित हो सकता है, यही बात दिखलाने के लिये ‘विनियतम्’ विशेषण दिया गया है। ऐसे चित्त का प्रमाद, आलस्य और विक्षेप से सर्वथा रहित होकर एकमात्र परमात्मा में ही निश्छल भाव से स्थित हो जाना-एक परमात्मा के सिवा किसी भी वस्तु की जरा भी स्मृति न रहना-यही उसका परमात्मा में भलीभाँति स्थित होना है।

प्रश्न-सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित होना क्या है?

उत्तर-परम शान्ति और परमानन्द के महान् समुद्र एक मात्र परमात्मा में ही अनन्य स्थिति हो जाने के कारण; एवं इस लोक और परलोक के अनित्य, क्षणिक और नाशवान् सम्पूर्ण भोगों में सर्वथा वैराग्य हो जाने के कारण किसी भी सांसारिक वस्तु की किंचित मात्र भी आवश्यकता या आकांक्षा का न रहना ही सम्पूर्ण भोगों से सपृहा रहित होना है।

प्रश्न-‘युक्तः’ पद का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-यहाँ युक्तः पद ध्यान योग की पूर्ण स्थिति का बोधक है। अभिप्राय यह है कि साधन करते-करते जब योगी में उपर्युक्त दोनों लक्षण भलीभाँति प्रकट हो जायँ, तब समझना चाहिये कि वह ध्यान योग की अन्तिम स्थिति को प्राप्त हो चुका है।

यथा दीपो निवातस्थो नेगंते सोपमा स्मृता।

योगिनो यतचित्तस्य युज्अतो योगमात्मनः।। 19।।

प्रश्न-यहाँ ‘दीप’ शब्द किसका वाचक है और निश्छलता का भाव दिखलाने के लिये पर्वत आदि अचल पदार्थों की उपमा न देकर जीते हुए चित्त के साथ दीपक की उपमा देने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-यहाँ ‘दीप’ शब्द प्रकाशमान दीपशिखा का वाचक है। पर्वत आदि पदार्थ प्रकाशहीन हैं एवं स्वभाव से ही अचल हैं, इसलिये उनके साथ चित्त की भाँति प्रकाशमान और चंचल है, इसलिये उसी के साथ मन की समानता है। जैसे वायु न लगने से दीपशिखा हिलती-डुलती नहीं, उसी प्रकार वश में किया हुआ चित्त भी ध्यान काल में सब प्रकार से सुरक्षित होकर हिलता-डुलता नहीं, वह अविचल दीपशिखा की भाँति समभाव से प्रकाशित रहता है। इसीलिये पर्वत आदि प्रकाश रहित अचल पदार्थों की उपमा न देकर दीपक की उपमा दी गयी है।

प्रश्न-चित्त के साथ ‘यत’ शब्द न जोड़कर केवल ‘चित्तस्यां के प्रयोग करने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-जीता हुआ चित्त ही इस प्रकार परमात्मा के स्वरूप में अचल ठहर सकता है, वश में न किया हुआ नहीं ठहर सकता-इसी बात को दिखलाने के लिये ‘यत’ शब्द दिया गया है।

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।

यत्र चैवातमनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।। 20।।

प्रश्न-‘योग सेवा; शब्द किसका वाचक है और ‘योग सेवा’ से होने वाले ‘निरुद्ध चित्त’ का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-ध्यान योग के अभ्यास का नाम ‘योग सेवा’ है। उस ध्यान योग का अभ्यास का अभ्यास करते-करते जब चित्त एकमात्र परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, तब यह ‘निरुद्ध’ कहलाता है।
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