माँ! मुझे बस यही वर दे ।

माँ! मुझे बस यही वर दे ।

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श्री पंडित  मार्कण्डेय शारदेय 
स्वार्थ का हथियार लेकर निन्द्य राक्षस हो न जाऊँ,
पुण्य-बल से प्राप्त कर स्वर्गीय सुख में खो न जाऊँ ,
ग्रहण कर संन्यास अपनी नियति को मैं धो न जाऊँ ,
या अपाहिज बन कदाचित् मृत्युशय्या सो न जाऊँ ,
आत्मभक्तों की सरणि पर युगल मेरे चरण कर दे ,
माँ! मुझे बस यही वर दे ।
छीन ले कोई न मुझसे पुत्रता का दाय पावन,
मनस्विता –जनकात्मजा को हर न पाए आज रावण ,
जेठ की दुपहरी भी लगती रहे नित मास सावन ,
मरुमही या शैल –श्रेणी लगे समतल मनोभावन ,
भक्ति की धारा जिधर की उधर मेरी नाव कर दे ,
माँ! मुझे बस यही वर दे ।
मैं उपज तेरी कि तेरे ही लिए आया यहाँ पर ,
जो मिला वह है दिया तेरा सदा पाया यहाँ पर ,
एक तिलभर भी कमाई का नहीं लाया यहाँ पर ,
मातृऋण पूरा किसी ने है चुकाया क्या यहाँ पर?
बोझ हल्का कर सकूँ कुछ, मात्र इतनी शक्ति भर दे ,
माँ! मुझे बस यही वर दे।
द्वार किनका खटखटाऊँ चरण ही तेरे शरण हों ,
कल्पना में भी नए आराध्य का मत संवरण हो ,
देश-सेवा में अहर्निश पंचतत्त्वों का क्षरण हो ,
प्राण का तेरे लिए ही पल –विपल भी संचरण हो
अन्त में जिस गोद का हूँ उसी में सस्नेह धर दे ,माँ! मुझे बस यही वर दे ।*
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