प्राचीन भारत में बालिकाओं की महत्ता-अशोक “प्रवृद्ध”

प्राचीन भारत में बालिकाओं की महत्ता-अशोक “प्रवृद्ध”

वर्तमान में बालिकाओं, नारियों के संरक्षण हेतु प्रायः प्रत्येक परिस्थिति के लिए कानून मौजूद हैं। संविधान में नार्युत्थान हेतु अनेकानेक प्रावधान किये गए हैं। वर्तमान में जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में नारी अपनी उत्कृष्टता सिद्ध कर चुकी है। नारी स्वयं स्वावलंबिनी भी है, और कई स्थानों पर तो आश्रयदाता भी बनी हुई है। वह सशक्त भी है, और सफल भी। महामहिम द्रौपदी मुर्मू के रूप में नारी आज देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति के पद पर सुशोभित होकर अपनी सर्वोच्चता प्रमाणित कर चुकी हैं। फिर भी हमारे देश में बेटी बचाओ की मुहिम चलाने की आवश्यकता क्यों पड़ती है? कतिपय विद्वान इसका कारण व्यक्तिगत सफलता और सामूहिक सफलता में अंतर अभी शेष रह जाना बताते हैं। प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या यह हमेशा ऐसा ही था? भारतीय पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि सदैव ऐसा नहीं था। प्राचीन काल में भारत में नारी को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त रहा है, परन्तु भारतीयों के वैदिक सत्य ज्ञान से दूर होने और विभिन्न विदेशी आक्रमणों ने हमारी संस्कृति को इस तरह दूषित किया कि नारी समाज में अत्यंत पीछे होती चली गई।
किसी भी समाज में नारियों के उत्थान के लिए समाज में शांति होना, बाहुबल का निर्णायक नहीं होना, और यथासम्भव आवश्यक संसाधन उपलब्ध होना जरूरी शर्त होते हैं। लेकिन विदेशी आक्रमणों, विधर्मी हमलों ने सर्वप्रथम शांति की शर्त भंग की। अत्याचार और लूटपाट ने संसाधनों में कमी पैदा की, और युद्धक्षेत्र में बलिदान देने वाले युवकों की क्षति के कारण बाहुबल की महत्ता स्थापित होती गई। युद्ध पूर्व में भी होते थे, लेकिन उनका लक्ष्य लूटपाट नहीं होता था, और लूटी जाने वाली वस्तुओं में नारी शामिल नहीं होती थी। कैकेयी दशरथ के साथ न केवल युद्ध भूमि में जाती थीं, बल्कि उन्होंने अपने शौर्य से दशरथ की प्राणरक्षा भी की थी। देश का ऐसा इतिहास समाज में पुरुषों को सिर्फ इस आधार पर श्रेष्ठता का दावा करने का अवसर नहीं देता था कि वे बाहुबल में स्त्रियों से श्रेष्ठ हैं। भारत पर आक्रमण करने वाली विदेशी संस्कृतियों के द्वारा किये गये सांस्कृतिक प्रदूषण के गंभीर परिणाम आज भी दृष्ठिगोचर होते हैं। एक तरफ नारी शरीर पर आभूषणों से परहेज करते हुए अधिकाधिक कपड़े लादने को ही सांस्कृतिक आवश्यकता माना गया, तो दूसरी ओर नारी तन को कम से कम कपड़ों में करना ही अपनी सांस्कृतिक आवश्यकता माना गया। दोनों में यह एक बात साझी थी कि दोनों के लिए नारी मात्र एक तन, एक शरीर थी, जिसका शेष समाज, शेष परिवार से संबंध कपड़ों से जुड़ा था। वह न आत्मा थी, न मनुष्य। इन दोनों आक्रमणकारी संस्कृतियों की दृष्टि में नारी में आत्मा नहीं होती थी। इन संस्कृतियों का गम्भीर परिणाम आज का भारत भुगत रहा है। आज भी समाज में बलात्कारों की भीषण घटनाएं, कन्या भ्रूण हत्याओं की घटनाएं होती हैं। एक मजहब द्वारा झूठे प्रेम जाल में फंसाकर युवतियों का देह शोषण करना, उनको ब्लैकमेल करना एक धार्मिक कृत्य माना जा रहा है। कई मामलों में बलात्कार जैसे कुकृत्य के बाद यह कहना कि उनके लिए यह इबादत की भांति है, भारत को उस सांस्कृतिक हमले की विभीषिका की याद दिलाने के लिए काफी है।
वर्तमान में नारी मुक्ति के नाम पर, नारी को सबल बनाने के नाम पर, आधुनिकता के नाम पर, फिर एक बार नारी को महज शरीर बनाया जा रहा है। लगभग सारे विज्ञापनों में नारी शरीर का भोंडा प्रदर्शन होता है, और उसे अनावृत कर कला के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह काम भावना नहीं है। यह वासना भी नहीं है। यह सरासर बदमाशी है, नारी पर अत्याचार है। कोणार्क के सूर्य मन्दिर, खजुराहो की गुफाओं के भित्ति चित्रों में उत्कीर्णित मैथुन मुद्राओं का उदाहरण देकर इसे न्यायसंगत ठहराने वाले उन भित्ति चित्रों से गैर नारी तत्वों की अनदेखी कर देते हैं। उन प्रदर्शित मैथुन मुद्राओं को देखने से यह स्पष्ट होता है कि उन भित्ति चित्रों में नारी अपने भागीदार के साथ स्वेच्छा से है तथा किसी को आकर्षित करके व्यवसाय करने का कार्य नहीं कर रही है। वह वहां बराबरी की भागीदार है, सामान हिस्सेदारी में है, न कि एकतरफा विक्रय वस्तु है, उपभोग की वस्तु है। इसके विपरीत आज कार्यालयों में, कोरर्पोरेट घरानों के दफ्तरों में सुन्दर लड़कियों को उनके सौंदर्य के आधार पर उन्हें सबल बनाने के नाम पर विशुद्ध विज्ञापन की नीयत से ग्राहकों को प्रभावित करने के लिए रोजगार दिया जाता है। यह नारी पर अत्याचार है। देह का नहीं तो सौंदर्य का व्यापार है। परन्तु प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति ऐसी नहीं थी। वैदिक ग्रन्थों में स्त्रियों की स्थिति के अनेक पहलू दृष्टिगोचर होते हैं। इस काल में स्त्रियों को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। शिक्षा और स्वयंवर ही नहीं, बल्कि एक प्रजापत्य विवाह को छोड़कर प्राचीन भारत में प्रचलित विवाह के सभी प्रकारों में विवाह के लिए अपने वर के चयन में कन्या की भूमिका रहती थी। प्राचीन भारत में बालिकाएं भी गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करती थीं। सहशिक्षा का प्रचलन था, और आश्रमों में ब्रह्मचर्य अनिवार्य था। यह काल महिलाओं के अन्दर छिपे हुए सर्जनात्मक गुणों के प्रस्फुटन का काल था। वैदिक ऋचाओं में अनेक विद्वान महिलाओं, विदुषी नारियों का उल्लेख अंकित है। अकेले ऋग्वेद में नारी विषयक 422 मन्त्र हैं। ऋग, यजु, साम व अथर्व, चारों वेदों में नारी विषयक सैकड़ों मन्त्र हैं। ऋग्वेद में 24 और यजुर्वेद में 5 विदुषियों का उल्लेख है। महिलाएं रचनात्मक कार्यों में तो संलग्न थीं हीं, शैक्षिक क्षेत्र में विद्यमान भारी प्रतियोगिता के बावजूद अनेक पुरुषों को पराजित करते हुए अपना नाम वेदों तक शामिल करवाने में भी सफल रहीं। विश्ववरा, अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, मैत्रेयी और गार्गी आदि इनमें प्रमुख हैं, जिन्हें उनके जीवनकाल में ही ऋषि पद प्राप्त हुआ। यजुर्वेद के अनुसार वैदिक काल में कन्या का उपनयन संस्कार होता था। उसे सन्ध्यावन्दन करने का अधिकार था। ऋग्वेद में कहा गया है कि अपने मृत पति की चिता सजाने वाली विधवा स्त्री को पुनर्विवाह का आशीर्वाद प्राप्त होता है। ऋग्वेद में स्त्रियों के अपने पति अथवा प्रेमी के साथ मेलों और त्यौहारों में शामिल होने, राजकाज चलाने वाली सभाओं और समितियों में स्त्रियों के शामिल होने के अनेकों उदाहरण है। परिवार के भीतर स्त्री और पुरूष को एक दूसरे का अर्द्धांश माना गया है और उन्हें सभी दायित्वों में और सभी सम्मानों में बराबरी का अधिकारी कहा गया है। अथर्ववेद में पत्नी को रथ की धुरी कहकर गृहस्थी का आधार माना गया है। पुरुष को स्त्री के बिना कुछ धार्मिक कार्य करने की अनुमति नहीं थी। ऋग्वेद 1/79/ 872 के अनुसार पत्नी को यज्ञ, संध्या पूजा और अन्य सभी धार्मिक अनुष्ठानों को करना चाहिए, किसी कारणवश पति के मौजूद नहीं होने की स्थिति में अकेले महिला को पूरा यज्ञ करने का अधिकार है। ऋग्वेद 1/ 73/ 829 के अनुसार पत्नी की निष्ठा और पवित्रता केवल अग्नि से तुलना करने के योग्य है, शुद्ध अग्निदेव और पतिव्रता स्त्री ही पूजने योग्य हैं। एक नव विवाहित स्त्री को वेद ज्ञान प्राप्त करके अपनी नई गृहस्थी में उस ज्ञान का उपयोग करने की सलाह देते हुए अथर्ववेद अध्याय 14/1/64 में कहा गया है कि हे दुल्हन ! ईश्वरीय कृपा से वेद का ज्ञान तुम्हारे सामने हो, तुम्हारे पीछे हो, तुम्हारे मष्तिष्क के केंद्र में हो और उसके अंत में भी हो, वेदों के ज्ञान को प्राप्त करने के बाद आप अपने जीवन का संचालन कर सकती हो। आप उदार हो, अच्छे स्वास्थ्य और भाग्य की अग्रदूत हो ,और महान गरिमा के साथ रहती हो और आप अपने ज्ञान से अपनी पति का गृह प्रकाशित करो।
प्राचीन भारत में स्त्री को न तो सिर्फ शरीर अर्थात देह रूप में देखा जाता था, और न सिर्फ पत्नी रूप में और न ही घर-गृहस्थी में उसकी भूमिका के रूप में। उस काल में स्त्री को यह स्वतन्त्रता थी कि वह अपनी इच्छानुसार अपना सम्पूर्ण जीवन बिना विवाह किए शिक्षादि कार्य करते हुए व्यतीत कर सकती थी। विद्यार्थिनियों को दो वर्गों में बांटा जाता था- ब्रह्मवादिनी और सद्योद्वाह। लंबे समय तक अथवा जीवनपर्यंत शिक्षा, दर्शन और धर्म से जुड़ी रहने वाली को ब्रह्मवादिनी तथा युवा होने तक अथवा विवाह होने तक शिक्षा ग्रहण करने वाली को सद्योद्वाह कहा जाता था। बालिकाएं अपना जीवनसाथी चुनने के लिए स्वतंत्र थीं। यही कारण है कि इस युग में ही स्त्री की शक्ति रूप में स्थापना हुई, और वह शक्ति रूप में पूज्यनीय बनी। भारतीय साहित्य में देवी स्वरूप को कई स्थानों पर पुरुष देवताओं से भी अधिक शक्तिशाली दिखाया गया है। स्त्री को धऩ, शौर्य और ज्ञान की अधिष्ठात्री बताया गया है। प्राचीन वैदिक काल में स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। महानिर्वाण तंत्र के अनुसार एक बालिका के विकास और शिक्षा में महान प्रयत्न और सावधानी की जरुरत होती है। देवी महात्म्य के अनुसार ज्ञान के सभी रूप में महिलाएं है और महिलाओं का स्वरुप ज्ञानमय है। दूसरे वैदिक काल, जिसे कुछ विद्वान मध्य वैदिक काल कहते हैं, त्रेतायुग में भी स्त्रियों को वैदिक काल के समान सभी अधिकार प्राप्त थे। रामायण काल में स्त्रियों को दिए गए वचन को पूर्ण करने को कर्तव्य का रूप देना एक महत्वपूर्ण तथ्य है। कैकेयी को दिए गए वचन को पूरा करने के लिए महाराजा दशरथ ने अपने पुत्र श्रीराम को वनगमन का आदेश दे दिया, जिसके शोक में वह स्वयं भी मृत्यु को प्राप्त हो गए, लेकिन उन्होंने अपने वचन को पूर्ण किया। उस समय भी स्त्री के बिना कोई भी मंगल कार्य नहीं किया जाता था। सीता की अनुपस्थिति में श्रीराम ने सीता की स्वर्ण प्रतिमा को वाम भाग में बिठाकर ही यज्ञ किया था। महाभारत के अनुसार पत्नीविहीन गृह, गृह नहीं। गृहिणीहीन घर जंगल है। महाभारत काल में स्त्रियां सामाजिक संबंध स्थापित करने के लिए स्वतन्त्र थीं। खुला यौनाचार नहीं था, लेकिन स्त्रियों का स्वयं प्रणय निवेदन या काम निवेदन करना कोई बड़ी बात नहीं थी। पर्दा प्रथा नहीं थी। पुरुषों द्वारा स्त्रियों की रक्षा करना परम कर्तव्य माना जाता था। विधवा स्त्री पुनर्विवाह कर सकती थी। स्त्री-पुरुष समान रूप से धार्मिक कृत्यों को करते थे। किसी भी यज्ञ आदि में पति-पत्नी दोनों का होना आवश्यक था। महाभारत युद्ध से कुछ पहले श्रीकृष्ण के बाल्य-काल में कंस के गुप्तचर प्रभाग की मुखिया एक स्त्री का होने का उल्लेख भी प्राप्त था, जिसका नाम पूतना था। ऐसा बहुत काल बाद तक चला, परन्तु जैन और बौद्ध धर्मों के प्रचार के बाद स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन की घटनाओं में अकस्मात वृद्धि होने लगी। नारियों की स्वतंत्रता को पुरुष वर्ग की सुविधा के साथ जोड़ा जाने लगा। यज्ञ करना तथा वेदों का अध्ययन अध्यापन सीमित हो गया और स्त्रियों के लिए तो लगभग प्रतिबन्धित ही हो गया। विधवा पुनर्विवाह बंद होने और स्त्रियों के लिए शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई होने के लक्षण उत्पन्न होने लगे। कालांतर में स्त्रियों के अधिकार और संकुचित होते गए। विदेशी हमलों से विधवाओं की संख्या बढऩे लगी। स्त्रियां माता से सेविका और गृहलक्ष्मी से याचिका बन गयीं। स्त्रियों के लिए विवाह ही एकमात्र धार्मिक संस्कार रह गया। और अब तो वह सिर्फ भोग्या बनने के कगार पर है।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ